सोमवार, 20 अक्टूबर 2025

मेरी कामधेनु

 

मैंने शादी की और एक स्त्री को अधिकार समझकर घर लाया। उसके सामने चारा रखा। उसने बदले में भरपूर दूध दिया। वह अपना कर्तव्य पूरी निष्ठा से निभा रही थी।मैंने सोचा—इसमें प्यार कहाँ है? यह मेरा संकीर्ण, नीच पुरुषवादी सोच थी।

उस समय मैं अस्पताल के बिस्तर पर मृत्यु से लड़ रहा था। मेरा शरीर काँप रहा था। उसने दोनों हाथों से मुझे थामकर बैठाया। मैंने उसकी आँखों में झाँका। वहाँ केवल निर्मल, निष्कलंक प्रेम था।

मेरे मन में विचार आया—मैं उसके प्रेम को क्यों नहीं पहचान पाया? मुझे खुद पर शर्म आने लगी। मैंने उसका हाथ कसकर पकड़ा और काँपती आवाज़ में कहा, “मुझे डर लग रहा है।”

उसने दृढ़ स्वर में कहा, “आपको कुछ नहीं होगा। मैं हूँ ना!” उस क्षण वह मुझे सावित्री जैसी लगी— जो अपने पति के लिए यमराज से लड़ पड़ी थी। स्त्री  अपने प्रियजनों के लिए अपना सब कुछ समर्पित करती है। बिना किसी आशा के संसार में सुख और खुशी के रंग भरती है। हाँ, मेरी पत्नी ही मेरी कामधेनु है। 

रविवार, 12 अक्टूबर 2025

चिन्या की दिवाली और फटाकों का आनंद

 

सड़क के एक तरफ बड़े-बड़े बंगले थे और दूसरी तरफ झुग्गी बस्ती। यह किसी भी बड़े शहर का आम दृश्य था। दस साल का चिन्या ऐसी ही एक झुग्गी में रहता था। बाकी बच्चों की तरह उसे भी दिवाली पर अनार, चरखी, रॉकेट जैसे फटाके चलाने की इच्छा थी।

उसके पापा ने उसे एक छोटा सा पिस्तौल दिलाया था। दिनभर टिकली चलाकर वह ऊब गया था। शाम को जब उसने आसमान में उड़ते रॉकेट देखे, तो उसे महसूस हुआ कि उसके पापा अनार जैसे फटाके नहीं ला सकते। "हम गरीब हैं," यह सोच उसे दुखी करने लगी।

"चिन्या, अंदर क्यों बैठा है? बाहर आ! सामने वाला कोठी वाला बड़ा अनार चलाने वाला है!" पापा की आवाज सुनकर चिन्या बाहर आया। सामने एक आदमी ने अनार चलाया। रंग-बिरंगा फव्वारा आसमान में चमका।

"क्या मजा आया ना!" पापा ने पूछा।

"कैसा मजा? मैंने थोड़ी अनार चलाया है," चिन्या बोला।

"देख सामने के बच्चे कैसे ताली बजा रहे हैं, कूद रहे हैं। उन्होंने भी अनार नहीं चलाया," पापा ने समझाया।

"नहीं चलाया, लेकिन उनके नौकर ने तो चलाया!" चिन्या बोला।

"अगर ऐसा होता तो सिर्फ नौकर को खुशी मिलती, बच्चों को नहीं," पापा ने कहा।

चिन्या चुप रहा।

"देख चिन्या, बड़े लोग, राजा-महाराजा, सेठ—खुद कुछ नहीं करते। उनके नौकर उनके लिए काम करते हैं। सोचो कि ये नौकर तुम्हारे लिए अनार चला रहा है। देखो कितना मजा आएगा!" पापा ने कहा।

"मतलब वो हमारा नौकर है, ऐसा मानू?" चिन्या ने पूछा।

 बस तभी चिन्या ने देखा, “पापा! वो नौकर फिर से एक अनार फोड़ने वाला है!” वह उत्साह से चिल्लाया। नौकर की ओर देखते हुए चिन्या बोला, “अरे भैया! हमारे लिए भी एक अनार फोड़ दो!”

 

नौकर ने सड़क के पार झोपड़ी के सामने खड़े छोटे चिन्या को देखा। उसे अपने गांव में छोड़े बेटे की याद गईवही उत्सुक चेहरा, वही चमकती आँखें। नौकर ने एक बड़ा, मोटा अनार उठाया, चिन्या को दिखाया और उसे जलाया। और लो! लाल, नीले और सुनहरे रंग की चिंगारियाँ आसमान में नाच उठीं। लाल, नीले और सफेद रंग की चमकती चिंगारियाँ आसमान को रोशन कर गईं।

चिन्या ने तालियाँ बजाईं और खुशी से उछल पड़ा। सड़क पार से नौकर को एक हँसता हुआ चेहरा मिला। नौकर ने भी मुस्कराहट लौटाईएक मजबूर पिता की उदास मुस्कान।

उस मुस्कान को देखकर चिन्या के पिता की आँखें भर आईं। बेबस पिताओं के आँसू।

नौकर की तरफ देखकर चिन्या चिल्लाया, " नौकर! हमारे लिए अनार चलाओ!"

लाल, नीले, सफेद रंग की सप्तरंगी रोशनी आसमान में फैल गई। चिन्या ने ताली बजाई, कूदने लगा। उसके चेहरे पर मुस्कान थी।

वह मुस्कान देखकर पापा की आंखों में आंसू गए।


सोमवार, 6 अक्टूबर 2025

ययाति का द्वंद: भोग का मार्ग या त्याग का मार्ग

 बुद्धिमान और शक्तिशाली ययाति को पृथ्वी का साम्राज्य दिया जाता है। ऋषि उसे उपदेश देते हैं: “तुझे पृथ्वी के सभी जीव-जंतु और जड़-चेतन सभी की रक्षा करनी है। क्षमा, दया और सहनशीलता मानवता के सच्चे आभूषण हैं। त्याग के साथ भोग करने से ही जीवन सार्थक होता है। यदि तू यह मार्ग अपनाएगा, तो प्रलय तक पृथ्वी का भोग कर सकेगा।

लेकिन ययाति अपने ज्ञान और शक्ति के नशे में चूर है। उसे लगता है कि "क्षमा और दया" दुर्बलों की भाषा है। वह कहता है कि पृथ्वी वीरों के भोग के लिए है, दुर्बलों को यहाँ जीने का अधिकार नहीं।

वह शूद्र जीवों को पैरों तले कुचलता है। बड़े वन्य प्राणी भी उसके मनोरंजन के साधन बन जाते हैं। वह चिरयौवना  पृथ्वी की सुंदरता से मोहित हो जाता है।  लेकिन उसकी राक्षसी लालसा उस सुंदरता को नष्ट कर देती है। वह उन्मादी और बलात्कारी बन जाता है, पृथ्वी के हरित वस्त्रों को फाड़ देता है। उसकी क्रूरता से पृथ्वी के शरीर पर गहरे घाव हो जाते हैं। इलाज न होने पर वे घाव सड़ने लगते हैं और वातावरण में विषैली दुर्गंध फैल जाती है। अब ययाति को श्वास लेने में भी तकलीफ होने लगती है। 

स्वर्ग के देवता उसे चेतावनी देते हैं: “तेरा जीवन पृथ्वी से जुड़ा है। भोग का मार्ग छोड़ और पृथ्वी को बचा—नहीं तो तू भी उसके साथ नष्ट हो जाएगा।

ययाति देवताओं को तुच्छ समझता है। वह ज्ञान के बल पर अंतरिक्ष में दूसरी पृथ्वी खोजने की सोचता है, या शक्ति के बल पर देवताओं को अपदस्थ कर स्वर्ग में अप्सराओं के साथ नित्य नए भोग का सपना देखता है। कभी-कभी उसे लगता है कि शायद स्वर्ग का अमृत उसकी प्यास ना बुझा सके।

लेकिन मनुष्य का भाग्य समय  के गर्भ में छिपा है। क्या ययाति भोग का नीच मार्ग छोड़कर त्याग और तपस्या का मार्ग अपनाएगा? या वह अंतरिक्ष के असीम अंधकार में खो जाएगा?

फिलहाल ययाति किंकर्तव्यविमूढ़ है।

बुधवार, 1 अक्टूबर 2025

विक्रमादित्य और सिंहासन की सीढ़ियाँ: आत्मा के बदले सत्ता"

 

राजा विक्रमादित्य सत्ता को केवल वैभव या प्रतिष्ठा के लिए प्राप्त नहीं चाहता था। वह सत्ता का उपयोग जनता के दुःख, गरीबी और अन्याय को दूर करने के लिए करना चाहता था।  वह  मंत्रियों और अधिकारियों लूट को बंद कर जनता का भला करना चाहता था।  उसने निश्चय किया कि वह राज्यलक्ष्मी की आराधना करेगा और उसकी कृपा से प्राप्त सत्ता का उपयोग जनकल्याण के लिए करेगा। सत्ता प्राप्त करने के बाद  वह गरुड़ जैसी पैनी नजर रख शासन के भ्रष्ट मंत्री और  भ्रष्ट अधिकारियों के अत्याचारों  से जनता की रक्षा करेगा।  

राजा की तपस्या से राज्यलक्ष्मी प्रसन्न हुई। शुभ मुहूर्त पर विक्रमादित्य सिंहासन की ओर बढ़ा। लेकिन सिंहासन तक पहुँचने के लिए सिंहासन की सीढ़ियों पर लगी उसे चार पुतलियों की परीक्षा पास करनी थी।  

पहली सीढ़ी पर जैसे ही राजा विक्रमादित्य ने पैर रखा पहली पुतली (जिसके आँखों पर पट्टी थी) बोली: “राजा को बुराई नहीं देखनी चाहिए।” चाहे भ्रष्टाचार और अन्याय सामने हो, उसे अनदेखा करना होगा।" राजा ने आँखें ढँक लीं। दूसरी पुतली (जिसके कान ढँके हुए थे) बोली: “राजा को बुराई नहीं सुननी चाहिए।” राजा को यदि जनता की पीड़ा, किसानों की आत्महत्या, गरीबी की चीखें सुनाई दे तो राजा को  कान बंद रखने होंगे।" राजाने कान ढँक लिए। तीसरी पुतली (जिसके होंठों पर उंगलीथी) बोली: “राजा को बुरा नहीं बोलना चाहिए।” चाहे मंत्री भ्रष्ट हों, राजा को मौन रहना होगा।" राजा ने मौन स्वीकार किया।

चौथी पुतली बोली: “अगर आँखें, कान और मुँह बंद भी कर लो, तो आत्मा बेचैन रहेगी। न्यायप्रिय राजा सत्ता खो देता है। अगर सत्ता चाहिए, तो अपनी आत्मा मुझे दे दो।” विक्रमादित्य ने चौथी पुतली को अपनी आत्मा अर्पित कर दी और वह सिंहासन पर बैठ गया।

जैसे ही वह सिंहासन पर बैठा, उसके सामने एक दिव्य दृश्य प्रकट हुआ: हरे-भरे खेत, मुस्कुराते किसान, गलियों में खेलते खुशहाल बच्चे, चहल-पहल से भरे बाज़ार, और एक शांत, समृद्ध समाज। दुख, गरीबी या अन्याय का कोई नामोनिशान नहीं था। हर घर में हँसी थी, हर दिल में उम्मीद, और हर कदम में खुशी। विक्रमादित्य को विश्वास हो गया  राजलक्ष्मी का आशीर्वाद से उसे  एक स्वर्ग जैसा राज्य प्राप्त हुआ है। 

आज भी कई नेता सत्ता पाने से पहले ईमानदारी और जनसेवा की बातें करते हैं, लेकिन सत्ता मिलते ही बदल जाते हैं।    सत्ता पाने के लिए अक्सर आत्मा  गिरवी रखनी पड़ती है। उसके बाद राजा को जनता के दुख और दर्द दिखाई नहीं देते हैं। 

गुरुवार, 25 सितंबर 2025

एक याद – गोटू और क्रिकेट की गेंद

 
सर्दियों की छुट्टियाँ थीं। उम्र बारह की रही होगी, लेकिन मन जैसे पहली बार दुनिया को समझने निकला था। पुरानी दिल्ली के मोरीगेट के बाहर फैले बागों में हम क्रिकेट खेलते थे. गरीब लड़कों की टीम, जिनके पास जुनून था, लेकिन गेंद नहीं। कॉर्क की गेंद के लिए हम पैसे जोड़ते थे — दस पैसे, बीस पैसे — और जब तीन रुपये इकट्ठा होते, तो लगता जैसे कोई खज़ाना मिल गया हो। असली क्रिकेट गेंदें तो अमीर लड़कों के पास होती थीं — सफेद कपड़े, चमकते बैट, और वो गेंद जो हमारे सपनों में थी।

एक दिन गोटू मिला.  मेरी ही उम्र का था वह.  उसके पास क्रिकेट की कई गेंदें थीं। उसने कहा, “DDCA से जान-पहचान है। मैच के बाद पुरानी गेंदें सस्ते में मिल जाती हैं।” हम उसके ग्राहक बन गए. क्रिकेट की असली गेंद , गेंद की कंडिशन के हिसाब से हम उससे  एक रुपये की, दो रुपये की, कभी तीन की भी खरीदते थे. 

गोटू अच्छा खेलता था। कभी-कभी हमारे साथ भी। कुछ दिनों बाद पता चला, उसका असली नाम असलम था। बल्लीमारान में रहता था। फिर एक दिन उसने वादा किया, लेकिन गेंद नहीं लाया। बाद में पता चला, वो गेंद किसी और को बेच दी थी।

मेरे दोस्त ने उसे डांटा, तो उसने कहा कि वह फिरोजशाह कोटला जा रहा है, अगर गेंद मिली तो अगली सुबह देगा। हमें उस पर भरोसा नहीं हुआ। मैंने और मेरे दोस्त ने तय किया कि हम भी वहाँ चलेंगे और देखेंगे कि वह गेंद कहाँ से लाता है। अगर पता चल गया तो हम भी सीधे थोक में खरीद सकते हैं और बेचकर पैसे कमा सकते हैं

हम पैदल दिल्ली गेट पहुँचे। तब फिरोजशाह कोटला स्टेडियम इतना बड़ा नहीं था। एक गली सीधे स्टेडियम की ओर जाती थी। स्टेडियम की दीवार और गली के बीच एक छोटा मैदान था, जहाँ DDCA की लीग मैचें होती थीं।हमने देखा कि गोटू गली के छोर पर बैठा था। मैच चल रहा था। हमें देखकर वह मुस्कराया और बोला, “धंधे का राज जानने आए हो क्या?” मैंने कहा, “अगर भरोसा होता तो यहाँ क्यों आते?” उसने कहा, “मैच चल रहा है, थोड़ी देर धूप में बैठना पड़ेगा।” मैंने कहा, “चलो थोड़ा आगे पेड़ के नीचे बैठते हैं।” वह हँसकर बोला, “अब आ ही गए हो तो चुपचाप बैठो और तमाशा देखो।”
हम वहीं बैठ गए। थोड़ी देर में बल्लेबाज़ ने जोरदार शॉट मारा और गेंद हमारी तरफ आई। गोटू जैसे इसी पल का इंतज़ार कर रहा था। वह दौड़कर गेंद उठाई और चिल्लाया, “भागो, भागो!” हमें कुछ समझ नहीं आया, लेकिन उसे भागते देख हम भी दौड़ पड़े।

हम एक दीवार की दरार से गली के अंदर घुसे और राहत की साँस ली। गोटू हँसते हुए बोला, “क्यों, मज़ा आया ना? थोड़ी देर और होती तो पकड़े जाते। बहुत मार पड़ती है, कभी-कभी पुलिस को भी सौंप देते हैं। जान हथेली पर रखकर तुम्हारे लिए गेंद लाता हूँ, फिर भी भरोसा नहीं करते।”

मन में एक ख्याल आया — अगर उस दिन हम पकड़े गए होते तो क्या होता... हमने कोई गलती नहीं की थी, फिर भी शायद हमें खूब मार पड़ती।
अगर यह बात घर तक पहुँच जाती, तो उसकी कल्पना भी करना मुश्किल है।क्रिकेट खेलना तो निश्चित ही बंद हो गया होता — हमेशा के लिए।

मैंने उससे पूछा, “इतना खतरा उठाकर तू ये सब क्यों करता है?” कुछ पल वह चुप रहा, फिर उसकी आँखें भर आईं। बोला, “घर पर मुझसे छोटे दो भाई और एक बहन है। माँ दो साल पहले गुजर गई, बाप ने दूसरी शादी कर ली। वह सब्ज़ी बेचता है, लेकिन मुझे एक पैसा नहीं देता। सौतेली माँ छोटे बच्चों को ठीक से खाना भी नहीं देती। मैं जो पैसे कमाता हूँ, उनसे उनके लिए खाना लाता हूँ।”

उसकी बात सुनकर मैं चुप हो गया। जाते समय मैंने वादा किया कि आज की घटना किसी को नहीं बताऊँगा। हमने वह वादा निभाया भी। अगली गर्मी की छुट्टियों में वह मैदान में नहीं दिखा।

इस साल IPL का मैच देखते हुए, न जाने क्यों, 42 साल बाद उसकी याद आ गई। सोचता हूँ, आज वह कहाँ होगा...
 
 

शनिवार, 20 सितंबर 2025

दंगे की राख में बचपन

 

यह बचपन की कहानी है। मेरी उम्र लगभग 12-13 साल थी। हमारा स्कूल पहाड़गंज में थी। स्कूल सुबह की थी, इसलिए हम 7-8 दोस्त पैदल ही स्कूल जाते थे। नया बाजार, कुतुब रोड, सदर बाजार, बारा टूटी, मोतियाखान होते हुए स्कूल पहुंचते द.  स्कूल पहुँचने में लगभग आधा घंटा लगता था। रोज़ 3-4 किलोमीटर चलने से चप्पल और जूते जल्दी खराब हो जाते थे।

मोतियाखान में फुटपाथ पर एक मोची  बैठता था। 5-10 पैसे में जूते-चप्पल ठीक करता था। उसका बेटा छोटू, हमारी उम्र का ही था। वह सरकारी स्कूल में पढ़ता था, जो दोपहर की होती थी। सुबह वह अपने पिता की मदद करता था।

उन दिनों पुरानी दिल्ली में साल में 2-4 दंगे होते थे। हमारे लिए दंगे का  मतलब दुकानों की लूट और आगजनी। एक बार सदर बाजार में दंगा हुआ। कपड़ों की कई दुकानें लूटी गईं। गरीबों ने भी मौका देखकर कपड़े उठा लिए। स्कूल में फटे कपड़े पहनने वाले बच्चे नए कपड़ों में दिखने लगे।

दंगे के 15-20 दिन बाद की बात है। स्कूल के बाद हम घर जा रहे थे। एक दोस्त के जूते फट गए थे। छोटू उस दिन मैली-कुचैली स्कूल यूनिफॉर्म में दुकान पर बैठा था। 

मैंने पूछा, "अब्बू की तबियत खराब है क्या?"

छोटू बोला, "स्कूल छोड़ दिया है। अब दुकान पर ही बैठूंगा।"

मैंने पूछा, "क्यों?"

उसने कहा, "अब्बू जेल में हैं।"

छोटू ने कहा उस दिन सुबह उसकी अम्मी ने अब्बू को उठाया और कहा, "सदर में दुकानें लूटी जा रही हैं। पड़ोसी नानके कपड़े उठा लाया है। मोहल्ले के बाकी मर्द भी गए हैं। तुम सो रहे हो?" अब्बू उठे, मन में सोचा कि यह ठीक नहीं है। लेकिन उन्होंने कई सालों से बच्चों के लिए नए कपड़े नहीं खरीदे थे। वहाँ तो पूरा मोहल्ला—हिंदू हो या मुसलमान—दुकानों की लूट में शामिल था। अब्बू भी उस भीड़ का हिस्सा बन गए। सदर बाज़ार में एक दुकान से लोग कपड़ों के थान सिर पर उठाकर बाहर निकल रहे थे। अब्बू भी उस दुकान में घुसे।

"लालच बुरी बला होती है" यह कहावत यूँ ही नहीं बनी है। शरीर साथ नहीं दे रहा था, फिर भी अब्बू ने 3–4 कपड़ों के थान सिर पर लाद लिए और दुकान से बाहर निकले। तभी अचानक आवाजें आईं—"पुलिस! पुलिस!" अब्बू घबरा गए। उनका  संतुलन बिगड़ गया और वे सड़क पर गिर पड़े। चोट तो लगी ही, साथ ही पुलिस ने उन्हें रंगे हाथ पकड़ लिया। 

उस उम्र में यह समझना आसान नहीं था कि ऐसे समय में क्या कहना चाहिए। फिर भी मैंने हिम्मत करके पूछा, "कोई वकील किया है क्या?"

"हाँ, एक वकील किया है, लेकिन वह कहता है कि अब्बू के खिलाफ पक्के सबूत हैं। अब्बू को कुछ साल तो जेल में रहना ही पड़ेगा।"

छोटू बोला, "अब्बू से गलती हो गई। किस्मत खराब थी।"

अब छोटू की पढ़ाई छूट गई। घर की जिम्मेदारी उसके कंधों पर आ गई।

उस साल की ईद और दिवाली कई घरों में अंधेरा लेकर आई।

मोगरे की वेणी

 

करीब ३५ साल बाद वे दोनों फिर मिले। बाल सफेद हो चुके थे, चेहरे पर उम्र की लकीरें थीं, लेकिन आंखों में पहचान अब भी ताज़ा थी। उसे आखिरी मुलाकात याद आई—नेहरू पार्क। उसके बालों में मोगरे के फूलों की वेणी थी, वह उसके करीब बैठी थी। उसने वेणी को सूंघने का बहाना करते हुए उसके गाल पर हल्का सा चुंबन लिया।

“दूर हटो! क्या समझा तुमने? अभी तो हमारी शादी भी नहीं हुई,” वह नाराज़ होकर बोली।

“तो फिर कब पूछोगे अपने पिताजी से? मुझे नौकरी लगे एक साल हो गया है।”

“मेरे पापा एक किराए के मकान में रहने वाले लड़के से अपनी बेटी की शादी नहीं करेंगे।”

“तो क्या हम ऐसे ही रहेंगे?”

“मैं सरकारी नौकरी के लिए कोशिश कर रही हूं। एक बार नौकरी लग गई तो पापा से कहूंगी—एक स्मार्ट, थोड़े बेअक्ल, लेकिन कंजूस लड़के से शादी करनी है। हमारी दोनों की तनख्वाह में घर चल जाएगा। पापा मना नहीं करेंगे, मुझे यकीन है।”

“मैं कंजूस?”

“तो क्या! अपनी प्रेमिका को चाणक्य सिनेमा में ६५ पैसे की पहली पंक्ति की टिकट दिलाने वाला, एक रुपए का पॉपकॉर्न और एक कप कॉफी दोनों के लिए। क्या मजनू है मेरा! वैसे, तुम्हारे माता-पिता से पूछा क्या?”

“दूध देने वाली गाय को कौन मना करता है।”

उसने उसकी पीठ पर ज़ोर से थप्पड़ मारा।

“अरे! कितना ज़ोर से मारती हो!”

“अरे नहीं, अब ‘पत्नी जी’ कहना सीखो।”

“मतलब शादी के बाद भी मारोगी?”

“हां, लेकिन बेलन से।”

उसके बाद वह कभी नहीं मिली। बाद में पता चला कि उसने मुंबई में एक सरकारी दफ्तर में नौकरी जॉइन की थी। उसकी शादी भी हो गई थी। वह कोई देवदास नहीं था। उसने अपनी मां की पसंद की लड़की से शादी कर ली।

“कैसी हो?” उसने पूछा।

वह बोली, “नाराज़ तो नहीं हो मुझसे? मेरे पापा को हमारे रिश्ते के बारे में पता चल गया था। मुझे तुमसे दूर करने के लिए उन्होंने चाल चली। मां ने कसम दिलाई। तुम भी वहां नहीं थे। मजबूरी में पापा की इच्छा माननी पड़ी।”

“तुम्हारे पति क्या करते हैं?”

“अब वे जीवित नहीं हैं। एक बड़ी कंपनी में ऊंचे पद पर थे, लेकिन शराब और जुए की लत में डूब गए। नशे में वे शैतान बन जाते थे। सारा गुस्सा मुझ पर निकालते थे। कुछ ही सालों में वे चले गए। बेटा भी पिता की राह पर चला। शराब ने उसकी भी जान ले ली। अब शायद रिटायरमेंट के बाद वृद्धाश्रम जाना पड़े। किस्मत है सबकी अपनी। तुम्हारा क्या?”

“तुम्हारी शादी की खबर सुनकर मुझे गुस्सा आया था। लेकिन मां ने समझाया—जिंदगी ऐसी ही होती है। मैंने मां की पसंद से शादी की। शादी के बाद एक बार पत्नी के साथ ओडियन में बालकनी की टिकट लेकर ‘मैंने प्यार किया’ फिल्म देखी।" बोलते समय एक उदास मुस्कान उसके चेहरे पर तैर गयी। 

“वाह! किस्मत वाली है वो—प्रेमिका के लिए ६५ पैसे की टिकट और पत्नी के लिए बालकनी!” कहते हुए उसने जीभ काट ली।

उसकी नजर सड़क पर मोगरे की वेणी बेचने वाले दुकानदार पर गई। मन में ख्याल आया—उसके सफेद बालों पर भी मोगरे की वेणी खूब जचेगी। वह रुका, पूछा, “वेणी लोगी?”

“हां, ले लो! अपनी पत्नी के लिए। मुझे भी मोगरे की वेणी पसंद है।”

उसने दो वेणियां लीं। एक उसके हाथ में दी।

उसने कहा, “तुम्हें भूलने की बहुत कोशिश की, लेकिन नहीं भूल पाई। उनके जाने के बाद तो बस तुम्हारी ही याद आती थी। कभी लगता था शायद तुम अब भी मेरा इंतज़ार कर रहे हो, कभी लगता था तुम्हारा भी परिवार होगा। खुद को समझाने की बहुत कोशिश की। जब तुम्हारी याद बेकाबू हो जाती, तो बाजार जाकर मोगरे की वेणी खरीदती, कमरे का दरवाज़ा बंद करके बालों में वेणी सजाकर आईने के सामने खड़ी होकर रोती... आज भी रोऊंगी।” कुछ पल दोनों चुप रहे। तभी उसकी बस आई और वह चली गई।

कुछ देर बाद उसकी नजर हाथ में पकड़ी मोगरे की वेणी पर गई। उसने  पत्नी के कहने के बावजूद भी कभी भी अपनी पत्नी के लिए वेणी नहीं खरीदी थी। और आज... उसके मन में विचारों का तूफान उठा। शादी से पहले उसकी पत्नी ने भी सप्तरंगी संसार के सपने देख होंगे। लेकिन हकीकत में ज़िंदगी भर वह पति की कम तनख्वाह में घर चलाने की जद्दोजहद करती रही। उसने अपनी सारी इच्छाएं मार दीं। कभी कुछ मांगा नहीं, कभी ज़िद नहीं की। उसे याद आया—कई बार उसके और बच्चों के टिफिन भरने के बाद सब्ज़ी बचती ही नहीं थी। जब पूछता, “अरे! तुम्हारे लिए सब्ज़ी नहीं बची?” तो वह कहती, “मैं अपना देख लूंगी।” अक्सर अचार या तेल-नमक-मिर्च के साथ रोटी खाकर भूख मिटा लेती। उसने भी उसे तन और मन से प्यार किया था। बदले में उसने क्या दिया? क्या मैंने कभी दिल से उसे प्यार किया?

उसने ठान लिया—अब सब भूलकर फिर से जीवन की शुरुआत करनी है।घर जाकर उसने अपने हाथों से पत्नी के सफेद बालों में मोगरे की वेणी सजाई..

 

रविवार, 14 सितंबर 2025

सत्य का भार

 

एक बार छह ऋषि, जनकल्याण की दिव्य भावना से प्रेरित होकर, हिमालय के हृदय में पहुँचे। उनकी आँखों में जिज्ञासा थी, हृदय में तपस्या, और आत्मा में एक ही ध्येय—सत्य की खोज

उन्होंने एक हिमाच्छादित पर्वत पर कठोर तप आरंभ किया। समय थम गया, वायु स्थिर हो गई, और अंततः... सत्य प्रकट हुआ।

सत्य का तेज इतना प्रखर था कि प्रत्येक ऋषि ने उसे भिन्न रूप में देखा—किसी को वह करुणा का प्रतीक लगा, किसी को न्याय का, किसी को प्रेम का, और किसी को शून्यता का। सभी ने सत्य का वर्णन किया, और आश्चर्य की बात यह थी कि हर वर्णन अलग था। फिर भी कोई असत्य नहीं बोल रहा था।

अंततः वृद्ध ऋषि ने मौन तोड़ा। उन्होंने कहा: "सत्य एक ही होता है, पर उसका प्रतिबिंब हर हृदय में अलग रूप में उतरता है। जब उसका पालन किया जाए, वह अमृत बनता है। लेकिन जब उसे दूसरों पर थोपने का प्रयास किया जाए, वह विष बन जाता है—और विनाश का कारण बनता है।"

उन्होंने शिष्यों को पृथ्वी पर लौटने का आदेश दिया, एक ही उपदेश देकर—सत्य का प्रचार करो, पर उसे बंधन मत बनाओ।

ऋषि पृथ्वी पर लौटे। उन्होंने सत्य का प्रचार किया, पर समय के साथ वे वृद्ध ऋषि की चेतावनी भूल गए। उनके शिष्य अहंकार से अंधे हो गए और अपने अनुभव किए गए सत्य को दूसरों पर थोपने लगे। सत्य प्रचार का माध्यम नहीं रहा, वह शस्त्र बन गया। मठ-मंदिर जलने लगे, विचारों का युद्ध छिड़ गया, और अंततः...

आज सत्य ही मानवता के विनाश का कारण बनने को है।

सत्य एक तेज है जो संसार को प्रकाशित करता है, पर वह विनाश भी कर  सकता है। उसे आत्मसात करने के लिए अहंकार का त्याग करना पड़ता है और दूसरों के अनुभव किए सत्य का भी सम्मान करना पड़ता है। क्योंकि सत्य एक नहीं, अनेक रूपों में प्रकट होता है। यही अंतिम सत्य है। 

बुधवार, 10 सितंबर 2025

अकल का कीड़ा


कल दोपहर कार्यालय में एक विशेष भ्रष्टाचार की फाइल पढ़ते समय अचानक दाँत में दर्द शुरू हुआ। कुछ ही देर में वह दर्द बढ़ता गया और साथ ही सिर में भी पीड़ा होने लगी। आखिरकार तंग आकर मैंने वह फाइल पढ़ना बंद कर दिया।

घर पहुँचने पर मैंने गर्म पानी में नमक डालकर कुल्ला किया, एक लौंग भी मुँह में रखी। लेकिन कोई राहत नहीं मिली। पूरी रात दाँत के दर्द से तड़पते हुए बीती।

सुबह दंत चिकित्सक के पास गया। डॉक्टर ने मेरी ओर देखा, मुस्कराए और शरारत भरे अंदाज़ में बोले—"आपके दाँत को कोई मामूली कीड़ा नहीं लगा है, यह तो जानलेवा अक्ल का कीड़ा है। अगर इसे तुरंत नहीं निकाला गया, तो यह दिमाग तक पहुँच जाएगा। वहाँ जाकर अक्ल के तारे तोड़ देगा। इसके परिणाम आपको भुगतने पड़ेंगे। शायद समय से पहले सरकारी सेवा से निवृत्त होना पड़े। पेंशन भी नहीं मिलेगी। दर-दर भटकते हुए भीख माँगनी पड़ेगी।"

मेरी आँखों के सामने जुगनू चमकने लगे.  क्या वाकई ऐसा हो सकता है? डर के मारे मैं चिल्ला उठा—"डॉक्टर, निकाल दीजिए वह दाँत, उस अक्ल के कीड़े समेत!"

दाँत निकलते ही दर्द भी चला गया। तन और मन दोनों शांत हो गए।  कार्यालय पहुँचकर मैंने वह विशेष भ्रष्टाचार की फाइल लाल फीते में बाँधकर अलमारी में रख दी।

घर लौटकर मैंने सफेद शुभ्र वस्त्र पहना और आईने के सामने खड़ा हुआ।लेकिन आईने में मुझे अपना चेहरा काले धब्बे से ढका हुआ क्यों दिखाई दे रहा था—यह मैं समझ नहीं पाया।


मंगलवार, 9 सितंबर 2025

अलादीन और जिन्न का न्याय

 

अलादीन सुबह-सुबह लोधी गार्डन में टहल रहा था, जब अचानक एक तेज़ हवा के झोंके ने पेट्रोल की तीखी बदबू उसके नथुनों तक पहुँचा दी। नाक सिकोड़ते हुए वह बुदबुदाया, “प्रकृति की गोद में भी शुद्ध हवा नहीं! इस प्रदूषण का कुछ तो हल निकालना होगा।”

तभी उसका पैर किसी कठोर चीज़ से टकराया। वह लड़खड़ाया, पर गिरा नहीं। नीचे देखा तो एक पुराना, मैला सा चिराग पड़ा था। उत्सुकता से उसने उसे उठाया। “काफी पुराना लगता है… शायद अच्छा दाम मिल जाए,” उसने सोचा। रूमाल से उसे साफ़ करने लगा।

अचानक चिराग से धुआँ उठा—और एक जिन्न प्रकट हुआ।

“क्या आदेश है, मालिक?” जिन्न ने पूछा।

अलादीन चौंक गया, हड़बड़ाते हुए बोला  “कोई आदेश नहीं। वापस चिराग में चले जाओ।”

जिन्न ने हल्का सा सिर झुकाया और बोला “मालिक, मैं तब तक वापस नहीं जा सकता जब तक आपका दिया कोई आदेश पूरा न कर दूँ। आपको आदेश देना  ही होगा।”

अलादीन ने खुद को संभाला। “तो बताओ—तुम क्या कर सकते हो?”

“मेरे लिए कुछ भी असंभव नहीं,” जिन्न बोला। “मैं वह कर सकता हूँ जो कोई मनुष्य नहीं कर सकता।”

अलादीन मुस्कराया। “ठीक है। पृथ्वी से सारा प्रदूषण तुरंत और पूरी तरह समाप्त कर दो।”

जिन्न हात जोड़े चुपचाप खड़ा रहा।

अलादीन ने ताना मारा, “क्या हुआ? प्रदूषण ने तुम्हें भी हरा दिया? मैं जानता था—यह काम तुम्हारे बस का नहीं। वापस चिराग में जाओ और सो जाओ। जब कोई तुम्हारे लायक काम होगा, तब बुलाऊँगा।”

जिन्न की आवाज़ में एक थरथराहट थी—न डर की, न क्रोध की, बल्कि एक गहरे दुख की। “मालिक, मैं प्रदूषण को जड़ से मिटा सकता हूँ… लेकिन

“लेकिन, किन्तु, परंतु!” अलादीन झल्लाया। “तुमने तो इंसानों की बहानेबाज़ी भी सीख ली है। अपने मालिक की आज्ञा मानो—या स्वीकार करो कि तुम अक्षम हो।

जिन्न ने सिर झुकाया, जैसे किसी अंतिम निर्णय पर मुहर लगा रहा हो। “जैसी आज्ञा, मालिक। मैं प्रदूषण को जड़ सहित मिटा देता हूँ। उसने आँखें बंद करके एक मंत्र बोला और आकाश में एक अजीब सन्नाटा छा गया।अगले ही पल, मानवता की साँसें थम गईं। अलादीन सहित सभी इंसान—अपने-अपने पापों के भार के साथ—नरक की आग में समा गए। धरती ने चैन की  साँस ली…  धरती हरी भरी हो गयी। 

शुक्रवार, 5 सितंबर 2025

“साहब, मुझे मत मारिए… मुझे जीना है।”

 

कॉंस्टेबल बलवान सिंह जोर से चिल्लाया, “साहब! हमारे जवानों पर हमला करने वाली, जवानों को मारने वाली नक्सली कमांडर यहीं गिरी पड़ी है। क्या करना है इसके साथ?”

कमांडेंट उसके पास गया। देखा—वह दर्द से तड़पती, खून से लथपथ ज़मीन पर पड़ी थी। उसने सोचा—इस घने जंगल में मदद आने में कई घंटे लगेंगे। तब तक इसका जीवित रहना संभव नहीं। इसे मृत्यु की पीड़ा से मुक्त करना ही उचित होगा।

उसने अपनी बंदूक उसकी छाती की ओर तानी।

कमांडेंट की नज़र एक पल को उसके चेहरे पर गई। उसे लगा, उसकी आँखें कह रही हैं—

“साहब, मुझे मत मारिए… मुझे जीना है।”

कमांडेंट ने आँखें बंद कीं और ट्रिगर दबा दिया।

धाँय-धाँय—गोली की आवाज जंगल में गूंज उठी।

एक पक्षी आकाश की ओर उड़ गया।

उस दिन की मुठभेड़ में बंदूक से निकली गोलियों ने कई परिवारों की ज़िंदगी उजाड़ दी। कई सपने टूट गए।

उस घटना को अब कई साल बीत चुके हैं। कमांडेंट अब रिटायर हो चुका है। हर रात वह नींद की गोली लेता है, फिर भी उसे नींद नहीं आती।

रातभर उसके कानों में वही आवाज गूंजती रहती है—

“साहब, मुझे मत मारिए… मुझे जीना है।”

युद्ध की कहानियाँ कभी सुंदर नहीं होतीं। वे बेहद पीड़ादायक होती हैं।

 

सोमवार, 1 सितंबर 2025

बूढ़ा आदमी और सुनहरे फूलों की महक

 

एक बूढ़ा आदमी रोज़ सुबह बगीचे में टहलने आता था। बगीचे में पहुँचने के बाद वह घंटों तक सुनहरे फूलों से बातें करता। इस सुबह भी वह आया, लेकिन उसने क्या देखा—बगीचे में सुनहरे फूलों का पौधा किसी ने उखाड़ दिया था। 

"यह जरूर उन क्रिकेट खेलने वाले शरारती लड़कों की करतूत है," उसने मन ही मन सोचा और उन्हें कोसा। उसने एक मुरझाया हुआ सुनहरा फूल उठाया और उसे अपने सीने से कसकर लगा लिया। उसके दिल में एक टीस उठी, और वह वहीं ज़मीन पर लुढक गया।

"दादाजी, अब कैसा लग रहा है?"

बूढ़े आदमी ने आँखें खोलीं। सामने क्यारी में सुनहरे फूल हवा में झूम रहे थे। उनकी महक चारों ओर फैली हुई थी। उसने प्यार से फूलों को सहलाया।

दादाजी ने हमेशा की तरह पूछा, "कैसे हो मेरे बच्चों?"

"दादाजी, हम बहुत अच्छे हैं। यहाँ कोई चिंता नहीं है। अब कोई हमें तकलीफ़ नहीं दे सकता। आप थक गए होंगे—थोड़ा आराम कर लीजिए। हम आपकी पसंदीदा बाँसुरी की टेप चला देते हैं। अब हमारे पास भरपूर समय है—सिर्फ हमारे लिए।"

बूढ़े आदमी ने संतोष से आँखें बंद कर लीं। दूर आकाश में बाँसुरी की मधुर धुन गूंज रही थी।

 

शनिवार, 30 अगस्त 2025

विरही प्रेम

 

उस दिन शनिवार था। कनॉट प्लेस के सरकारी दफ्तर से दोपहर ढाई बजे काम निपटाकर बाहर निकला। मेट्रो स्टेशन की ओर जाते हुए, वह सामने से आती दिखाई दी। उसने भी मुझे देखा।

“विवेक!” वह दौड़ती हुई मेरे पास आई। ऐसा लगा जैसे वह मुझे गले लगाना चाहती हो। लेकिन पास आते ही ठिठक गई। आज भी वह वैसी ही लग रही थी—दुबली-पतली, उजली पंजाबी रंगत, बस बालों में थोड़ी सफेदी आ गई थी। उसके चेहरे पर खुशी और डर का मिला-जुला भाव था।

मैं बोला, “तुम बिल्कुल नहीं बदली हो। वैसी ही लग रही हो जैसे 35 साल पहले लगती थी।” वह हँस पड़ी, “तुम भी वैसे ही हो—बस बाल सफेद हो गए हैं।” मैं मुस्कुराया, “उम्र हो गई है अब। कॉफी हाउस चलें? बातें भी हो जाएंगी।” अनायास ही मैंने उसका हाथ थाम लिया और हम कॉफी हाउस की ओर चल पड़े।

शायद अगस्त 1981 रहा होगा। मुझे राजेंद्र प्लेस की एक व्यापारिक संस्था में अस्थायी नौकरी मिली थी। वह भी पास की एक कंपनी में काम करती थी। उम्र हमारी बराबर थी। वह तिलक नगर में रहती थी। हमारी मुलाकात चार्टर्ड बस में हुई। वह बी.कॉम के अंतिम वर्ष में थी और अकाउंट्स में कमजोर थी। मैं उसमें अच्छा था। रविवार और समय मिलने पर वह पढ़ने मेरे घर आने लगी।

एक दिन पढ़ाई के बाद जब मैं उसे जेल रोड तक छोड़ने जा रहा था, कुछ आवारा लड़के अजीब नजरों से हमें घूरते हुए गुज़रे। मुझे असहजता हुई। मैंने महसूस किया,  मेरा हाथ उसके कंधे पर था। मैंने झिझकते हुए हाथ हटा लिया और कहा, “सॉरी, गलती से रख दिया था।”

उसने मेरा हाथ फिर से अपने कंधे पर रखा और मुस्कराकर कहा, “तू मूर्ख है, तुझे कुछ समझ नहीं आता।”  अब हमारी मित्रता प्रेम में बदल गयी थी। उस समय शनिवार को ऑफिस जल्दी बंद हो जाते थे। हम रचना सिनेमा हॉल में फिल्में देखते, बुद्ध गार्डन में बॉलीवुड प्रेमियों की तरह घूमते। लेकिन नियति को कुछ और ही मंज़ूर था। कुछ दिनों से वह मिलने नहीं आयी। एक दिन उसकी सहेली लंच टाइम में मेरे ऑफिस आई और बोली, “विवेक, उससे मिलने की कोशिश मत करना। हमारे ऑफिस भी मत आना।” मैंने पूछा, “क्या हुआ?” उसने बताया कि उसके पिता ने उसके बड़े भाई के दोस्त से उसकी शादी की बात की थी। उसने साफ़ मना कर दिया और कहा -“मैं उस शराबी से शादी करूंगी? आप यह कैसे सोच सकते हैं?”उसका भाई भड़क गया और पिता से बोला, "मैं तो पहले ही कह रहा था कि उसे नौकरी मत करने दो। बाहर इधर-उधर नजरें लड़ाती फिरती होगी"।'भाई की बात सुन वह भी तमतमा गई— “हाँ करती हूँ। क्या कर लोगे? वह तुम्हारे दोस्त जैसा शराबी नहीं है। वह साफ-सुथरे ब्राह्मण परिवार से है।”

उस समय दिल्ली में खालिस्तानी हवा बह रही थी।  उसकी बात सुन उसके पिता को गुस्सा आया और बेल्ट निकालकर उसे पीटना शुरू कर दिया। वह उससे मेरा नाम बुलवाना चाहते थे। वह मार खाती रही लेकिन उसने मुंह नहीं खोला। उसकी माँ ने किसी तरह उसे बचाया। उसका भाई मुझे मारने की कसम खा चुका था। दो-तीन दिन बाद उसका भाई उसके ऑफिस आया और बोला, “उसका एक्सीडेंट हो गया है। अब वह ऑफिस नहीं आएगी।” फिर धीरे से उसने मुझसे कहा, “उसका एक बॉयफ्रेंड है। उसे उससे मिलना है। मुझे उसका संदेश देना है।” उसके चेहरे के भाव देखकर मेरी छठी इंद्रिय जाग गई। मैंने कहा, “हम सिर्फ ऑफिस के मित्र  हैं। बाहर क्या करती है, मुझे नहीं पता।” वह बुदबुदाया, “न बताओ, मैं खुद देख लूंगा।” हमारे मैनेजर को भी शक हुआ। अगले दिन हम उसके घर गए। उसकी माँ चाय  बनाने के लिए  रसोई में गई। तब वह धीरे से बोली, “विवेक से कहना, कुछ महीनों तक उससे मिलने की कोशिश न करे। मेरा भाई कनाडा जाने की कोशिश कर रहा है। उसके जाने के बाद मैं खुद मिलूंगी।”

नवंबर में मुझे सरकारी नौकरी मिल गई। घर की आर्थिक स्थिति सुधरी। जनवरी 1983 में हम हरिनगर के एलआईजी फ्लैट में शिफ्ट हो गए। एक दिन मैं उसके ऑफिस गया। उसकी सहेली ने बताया, “वह फिर ऑफिस नहीं आयी। कुछ दिन पहले वह उसके घर गई थी—घर पर ताला लगा था। उसके पिता ने घर बेचकर बेटे को कनाडा भेज दिया था और बाकी पैसों से दिल्ली में ही कहीं फ्लैट खरीद लिया। उसकी सहेली की बात सुन मैं स्तब्ध रह गया। इतनी बड़ी दिल्ली में मैं उसे कहाँ खोजता? मेरी प्रेम कहानी यहीं समाप्त हो गयी थी।

कॉफी पीते हुए उसने पूछा, “विवेक, तुम्हारा परिवार कैसा है?” मैं बोला, “तुम्हारा कोई पता नहीं चला। पच्चीस की उम्र पार होते ही मैंने माँ ने पसंद की लड़की से शादी कर ली। दो बच्चे हैं।” “तुम्हारा क्या?” वह बोली, “छह महीने बाद भाई कनाडा चला गया, उसी हफ्ते माँ-बाप का एक्सीडेंट हुआ। घर आते समय एक ट्रक ने उनके स्कूटर को टक्कर मारी। पिताजी  हमेशा के लिए बिस्तर पर पड़ गए। माँ भी एक साल तक चल फिर ना सकी। मेरा पूरा समय उनकी सेवा में बीतता था। पिताजी ने दुकान भी बेच दी, पैसे फिक्स डिपॉज़िट में लगाए। भाई थोड़े पैसे घर भेजता था, उसी से गुज़ारा चलता रहा। एक साल बाद माँ वॉकर के सहारे चलने लगी। एक दिन तुम्हारे घर गई, लेकिन तुम शिफ्ट हो चुके थे। ऑफिस की सहेली भी नौकरी छोड़ चुकी थी। तुम्हारा कोई सुराग नहीं था। भाई ने कनाडा में शादी कर ली और पैसे भेजना बंद कर दिया। बचत भी धीरे धीरे खत्म होने लगी थी। मैंने घर पर ट्यूशन शुरू की और सरकारी नौकरी की तैयारी की। 1986 के अंत में नौकरी मिल गई। फिर तुम्हारी खबर मिली—तुम शादीशुदा हो। "मैं टूट गई। शायद मेरे भाग्य में माँ-बाप की सेवा ही थी। इसलिए नियति ने हमें अलग कर दिया।

मैंने पूछा, “अब कैसे हैं वे?” वह बोली, “पिताजी चार-पाँच साल बाद चल बसे। अंतिम संस्कार मैंने ही किया। माँ ने कई बार शादी की बात की, लेकिन उन्हें छोड़कर कैसे जाती? पिछले साल वह भी चली गईं।”  कुछ देर चुप रहकर मैंने पूछा, “क्या तुम अपना पता और फोन नंबर दे सकती हो? कभी ज़रूरत पड़ी तो…”

उसने मेरा दाहिना हाथ अपने हाथ में लिया। उसके स्पर्श में एक जलन थी। वह बोली, “विवेक, मैंने जीवन में सिर्फ एक पुरुष को छुआ है—तुम्हें। जब रातों में मैं बेचैन होती हूँ, मन व्याकुल हो उठता है—तब तुम्हारा स्पर्श याद आता है और मुझे सुकून से भर देता है। उस एक प्रेमभरे स्पर्श से ही मुझे जीने की ताक़त मिलती है।  मेरा पता मत मांगो। फोन नंबर भी नहीं। अगर कभी मैं दिखूं, तो दूसरी राह पकड़ लेना। मेरे पास मत आना। अगर मेरी भावनाओं का बाँध टूट गया, तो हम दोनों जलकर राख हो जाएंगे। तुम्हारा परिवार भी बिखर जाएगा।”

उसकी साँसें तेज़ थीं, आवाज़ काँप रही थी। वह उठी, पर्स उठाया और तेज़ कदमों से विपरीत दिशा में चली गई। उसने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा।  मैं अवाक बैठा रह गया। आँखों में आँसू थे। उसके स्पर्श की ऊष्मा महसूस कर रहा था  "वह अंदर ही अंदर सुलग रही थी, फिर भी खुद को समेटे हुए चली गई—मेरे स्पर्श को अपनी खामोशी में सहेजकर।"  लसैंकड़ों अनसुलझे सवाल छोड़कर —क्यों नहीं खोजा मैंने उसे? शादी की इतनी जल्दी क्यों की? क्या मैं इंतज़ार नहीं कर सकता था? लेकिन अतीत कभी जवाब नहीं देता। हम सब नियति के गुलाम हैं।

उसे मेरी जानकारी थी, फिर भी वह कभी मिलने नहीं आई। उसने मेरी खुशियों पर अपनी छाया नहीं पड़ने दी। वह गज़ेटेड ऑफिसर बन चुकी थी। उसका पता और नंबर मिलाना मुश्किल नहीं था। लेकिन उसके प्रेम का सम्मान कर मैंने भी उससे मिलने का प्रयत्न नहीं किया। अब वह मेरे स्पर्श को दिल में सँजोकर अपना जीवन जी रही है। उसने मुझसे सच्चा प्रेम किया था।

और मैं…? मैं क्या सचमुच उससे प्रेम करता था, यह आज भी नहीं जानता। कुछ सवालों के जवाब कभी नहीं मिलते। वे उम्र भर हमें सताते रहते हैं।

गुरुवार, 24 जुलाई 2025

मतदान का अधिकार, हमारा हक


बिहार में चुनाव आयोग ने मतदाता सूचियों की जांच पड़ताल की। फलस्वरूप लाखों नाम मतदाता सूची से कट गए। लाखों लोगों का मताधिकार छिन लिया गया। उसी पर चार लाइन:

मरे हुओं की आत्माएँ 
भटकती है जहाँ।  
उन्हे भी हक है 
मतदान करने का वहाँ। 

घुसपैठीयों का पसीना 
बहता है जहाँ।
उन्हे भी हक है
मतदान करने का वहाँ। 

डुप्लीकेट मतदाता भी 
बढ़ाते हैं मतदान जहाँ। 
उन्हे भी हक है
मतदान करने का वहाँ।

मत बदलो मतदाता सूची
चुनाव आयोग वालों। 
लोकतंत्र की रक्षा के लिए 
नकली मतदान जरूरी है।



सोमवार, 21 जुलाई 2025

ऑपरेशन सिंदूर : ट्रम्प चाचा कोमा में

 

ऑपरेशन सिंदूर के बाद ट्रंप चाचा  कोमा में चले गए हैं। वो भ्रमित व्यक्ति की तरह बड़बड़ाने लगे हैं। भारत के खिलाफ अनाप-शनाब बड़बड़ाने लगे हैं।  उन्होंने हाल ही में कहा कि भारत-पाक युद्ध में कई जेट विमान गिर गए, लेकिन किसके थे, ये नहीं बता सके। अमेरिका के सैकड़ों उपग्रह और CIA भी उन्हें सही जानकारी नहीं दे सके। सच्ची जानकारी मिलने पर उन्हें एहसास हुआ होगा कि भविष्य में भारत को ब्लैकमेल करना संभव नहीं है। इसका मानसिक झटका उन्हें जरूर लगा होगा।

मेरे एक मित्र कट्टर मोदी विरोधी हैं। कल उन्होंने मुझे फोन करके कहा, "पटाईत, ट्रम्प  चाचा  फिर कह रहे हैं, भारत के जेट गिर गए।" ऐसा कहते हुए वो खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। मैंने जवाब दिया, "भारत के युद्धक विमान गिर गए और तुम खुश हो रहे हो?" मान लो  चाचा  ने अगर सच कहा है, पाकिस्तान ने भारतीय युद्धक विमानों को मार गिराया।  हमारे  पायलट पैराशूट खोलकर पाकिस्तान की जमीन पर उतरे, फिर वहां से ओला-उबर पकड़कर भारत लौट आए। वो बोला, "पटाईत, कुछ भी मत बोलो!" मैंने कहा, "गधे, फिर क्या कहूं? अगर विमान सचमुच गिरते, तो अभिनंदन की तरह कोई पायलट पकड़ा गया होता या उसका शव तो पाक मीडिया दिखाता। अगर भारतीय युद्धक विमान भारत में गिरे होते, तो मीडिया वहां पहुंच जाता और स्थानीय लोग वीडियो डालते। भारत में हर शहीद सैनिक को सलामी दी जाती है, यह तो तुम्हें पता ही है।  थोड़ा तो अपने दिमाग का इस्तेमाल किया करो। उसके बाद मेरे मित्र के सुर बदल गए। उसने पूछा, "तो चाचा  झूठ क्यों बोले?" मैंने जवाब दिया, " चाचा कोमा में चले गए हैं।" उनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया है। 

किराना हिल्स में शायद चाचा के परमाणु हथियारों का भंडार हो। ऐसा कहा गया है की भारत ने वहां मिसाइल हमला नहीं किया।  लेकिन उस इलाके में हुए धमाकों के सैटेलाइट फोटो मीडिया में हैं। बाद में उस क्षेत्र में कई भूकंप भी आए। शायद परमाणु हथियार जमीन के अंदर ही फट गए हो। नूरखान बेस में ज़मीन के अंदर हथियार भंडार नष्ट हुआ। भारत ने दुनिया को दिखा दिया कि पाकिस्तान के हथियार सुरक्षित नहीं हैं। अगर वहां ट्रम्प चाचा के हथियार थे तो उनका कोमा में जाना तय ही था।

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि उस  सुबह वे भारत पर हवाई हमला करने वाले थे, लेकिन उससे पहले ही भारत ने ब्रह्मोस मिसाइल से हमारे एयरबेस पर हमला कर दिया। हमें जवाब देने के लिए 30 सेकंड भी नहीं मिले। भरात के हमले में कई हवाई अड्डों की हवाई पट्टी और वहाँ  खड़े विमान नष्ट हो गए। हवाई अड्डों पर पाकिस्तान के विमान हमला करने की तैयारी कर रहे थे, भारतीय हमले के समय वे असुरक्षित थे। बचाव का कोई उपाय ही नहीं था। कम से कम 30-40 विमानों को नुकसान हुआ होगा। सही आंकड़ा शायद कुछ सालों बाद पाकिस्तान बताएगा। भारत की सटीक हमला करने की क्षमता देखकर चाचाजी को झटका लगना स्वाभाविक था।

हाल में हुए इज़राइल-ईरान युद्ध में अमेरिका की आधुनिक सुरक्षा प्रणाली हज़ारों किलोमीटर दूर से आ रहे मिसाइलों और ड्रोन को नहीं रोक सकी, जबकि भारत ने 25-50 किलोमीटर दूर से आ रहे मिसाइलों और ड्रोन को रोक दिया। भारत की सटीक सुरक्षा प्रणाली देख चाचाजी को ज़बरदस्त झटका लगा होगा।

ट्रम्प चाचा की तरह भारत में भी कुछ लोगों को गहरा धक्का लगा और उनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया। भारत ने 9 आतंकी ठिकाने तबाह किए, वहां इतने आतंकी मारे गए कि एक आतंकी नेता ने कहा, "हम लाशें गिनते-गिनते थक गए। हमारा दर्द कोई नहीं समझ सकता।" पाकिस्तान के 11 एयरबेस नष्ट होने से इतना तो तय है, पाकिस्तान एक साल तक कुछ गड़बड़ नहीं कर सकता। भयंकर नुकसान होने के बाद भी पाकिस्तान ने जवाबी हमला न करके युद्धविराम स्वीकार किया। यानी बिना शर्त आत्मसमर्पण। फिर भी हमारे कुछ नेता कह रहे हैं कि भारत ने आत्मसमर्पण किया। शायद पाकिस्तान की हार का दुख उन्हें ज़्यादा हुआ होगा और वे भी ट्रम्प चाचा की तरह बड़बड़ाने लगें हैं। ईरान ने भारत को धन्यवाद दिया। उसका मुख्य कारण ईरान पर हमला करने के लिए कम से कम एक साल अमेरिका पाकिस्तान के हवाई अड्डों का इस्तेमाल नहीं कर पाएगा। 

अब ट्रम्प चाचा को भारत के साथ सभी व्यापारिक समझौते समानता के आधार पर करने की मानसिक तैयारी करनी चाहिए। उन्हें कोमा से जल्दी बाहर आना होगा। अब प्रधानमंत्री मोदी के भारत को कोई हल्के में नहीं ले सकता।


बुधवार, 16 जुलाई 2025

सनातन पर्व: काँवड़ यात्रा का आर्थिक महत्व

भारत में सनातन के सभी पर्व, तीर्थ यात्राएं इत्यादि का धार्मिक महत्व के साथ आर्थिक महत्व भी होता। सभी पर्व और यात्राएं समाजवादी अर्थव्यवस्था की प्रतीक है। इन पर्वों और यात्राओं के माध्यम से धन समाज के सभी तबकों तक पहुंचता है। आर्थिक चक्र को गति देता हैं। जिससे समाज का सर्वांगीण विकास होता है। इस साल हरिद्वार में कम से कम छह से सात करोड़ काँवड़ उठाने शिव के भक्त आएंगे। यह संख्या हम कम करके यदि पाँच करोड़ मान लेते हैं। इन काँवड़ यात्रियों में आधे ऐसे होने जो हर साल काँवड़ उठाते हैं और आधे वे होते हैं मनौती, संकल्प इत्यादि पूरा करने के लिए जो प्रथम बार काँवड़ उठाते हैं। 

काँवड़ उठाने वाले यात्री को नए जूते चप्पल खरीदने पड़ते हैं। शिव की तस्वीर लगी बनियान, अंगोछा,  टॉवल और कपड़े रखने के लिए एक बैग भी।  हरिद्वार पहुँचने के लिए ट्रेन, बस, टॅक्सी, ट्रक, रेलवे  इत्यादि का उपयोग करते होंगे। इसके लिए किराया देना पड़ता हैं।  कम से कम ढाई करोड़ लोगों 15 दिन के काल में एक दिन हरिद्वार रुकते होंगे। जिनमें से कम से कम एखाद करोड़ होटल धर्मशालाओं में भी रुकते होंगे। उन्हे भी रोजगार मिलता है। काँवड़ के लिए बांस का इस्तेमाल होता हैं। कई करोड़ बांस की जरूरत पड़ती है। बांस उगाने वालों से लेकर बेचने वालों को रोजगार मिलता है। कांवड़िए गंगाजल प्लास्टिक, पीतल, स्टील इत्यादि का प्रयोग करते हैं। उनको बनाने और बेचने वालों को रोजगार मिलता है । काँवड़ तैयार करने में भी कई लाख लोगों को रोजगार मिलता है। पाँच करोड़ लोग चार दिन भी यात्रा करेंगे तो मार्ग में उनके रुकने के लिए व्यवस्थाएं करनी पड़ती है। हजारो जगह  शिविर लगते हैं। टेंट वालों को रोजगार, डीजे वालों को रोजगार, जनेरेटर चलाने वालों को रोजगार,  बिजली वालों को रोजगार, हजारों  हलवाइयों को रोजगार, सभी जगह भगवान शिव और अन्य तस्वीरें लगी होती हैं। पूजा पाठ होता हैं। पूजा करनेवालों  को रोजगार, फूलों की खेती करने वालों और बेचने वालों को रोजगार, जागरण करने वालों को रोजगार, स्वांग भरने वालों को रोजगार, जूते चप्पल ठीक करने वाले मोचियों को भी रोजगार मिलता है। बीस से पच्चीस करोड़ पत्तल, दोने, चाय के कप का इस्तेमाल होता हैं। इन सभी को बनाने वालों और बेचने वालों को रोजगार मिलता हैं।  काँवड़ यात्रा के मार्ग में पड़ने वाले चाय की दुकान, ढाबे इत्यादि सभी को रोजगार मिलता हैं। फल, सब्जी, दूध, दही, पनीर सहित सभी खाद्य पदार्थों की बिक्री बढ़ जाती है। इससे भी रोजगार निर्मित होता है।  बड़े-बड़े सेठ धार्मिक आस्था और पुण्य कमाने के लिए शिविरों के निर्माण और भोजन इत्यादि पर हजारों करोड़ इन दिनों खर्च कर देते हैं। एक अनुमान कम से कम 20 से 25 हजार करोड़ के आर्थिक व्यवहार काँवड़ यात्रा के समय देश में होता है। 

काँवड़ यात्रा होती है, इसलिए हजारो मोची, हजारो पूजा पाठ कथा वाचकों को, स्वांग भरने वालों को, टेंट वालों को, डीजे वालों को, बिजली का काम  करने वालों को  ट्रक, टेम्पो, बस वालों को, रेलवे को, पत्तल बनाने वालों को,  बेचने वालों को, करोड़ों काँवड़ बनाने में कई लाख को रोजगार, किसानों को, साफ सफाई करने वालों इत्यादि को रोजगार मिलता है। अर्थव्यवस्था का नियम हैं जितने ज्यादा लोगों के पास पैसा पहुंचता है, उतना ही  पैसों का चक्र ज्यादा तेज घूमता हैं। जिनके पास पैसा आयेगा वह भी खर्च करेंगे, अप्रत्यक्ष रूप से लाख करोड़ का आर्थिक व्यवहार अकेली काँवड़ यात्रा की वजह से देश में होता है और कई लाख लोगों को रोजगार मिलता है। यह  रोजगार विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले हिन्दू ,मुस्लिम ,सिख, ईसाई सभी को मिलता हैं। काँवड़ यात्रा न हो तो यह आर्थिक गतिविधि नहीं होगी। लाखों लोगों का रोजगार डूब जाएगा। 

आखिर काँवड़ यात्रा करने वाले को क्या लाभ मिलता है। प्रतिदिन 50-60 किमी चलने से शारीरिक और मानसिक दृढ़ता आती है। कठिनाइयों से लड़ने की क्षमता विकसित होती है।  विभिन्न जाति, वर्ग, भिन्न-भिन्न भाषा-भाषी प्रान्तों  के लोगों से मिलना होता है। धार्मिक और सामाजिक समरसता फैलती है। कई गलतफहमियां दूर होती है। लोगों से संपर्क बढ़ता है। जिसका आर्थिक लाभ भी धंधे और रोजगार में होता है। 

कई महाविद्वान किताबी कीड़े जिन्हे अर्थव्यवस्था की समझ नहीं है, जो सनातन धर्म को समझते नहीं है, जिनके मन में सनातन धर्म के प्रति घृणा की भावना भरी है। वे ही काँवड़ यात्रा का विरोध करते हैं। आशा है, यह लेख पढ़ने के बाद आप भी काँवड़ यात्रा का समर्थन करेंगे और  शारीरिक रूप से स्वस्थ हो तो काँवड़  उठाने इस साल नहीं तो अगले साल जरूर जाएंगे।