कल दोपहर कार्यालय में एक विशेष भ्रष्टाचार की फाइल पढ़ते समय अचानक दाँत में दर्द शुरू हुआ। कुछ ही देर में वह दर्द बढ़ता गया और साथ ही सिर में भी पीड़ा होने लगी। आखिरकार तंग आकर मैंने वह फाइल पढ़ना बंद कर दिया।
घर पहुँचने पर मैंने गर्म पानी में नमक डालकर कुल्ला किया, एक लौंग भी मुँह में रखी। लेकिन कोई राहत नहीं मिली। पूरी रात दाँत के दर्द से तड़पते हुए बीती।
सुबह दंत चिकित्सक के पास गया। डॉक्टर ने मेरी ओर देखा, मुस्कराए और शरारत भरे अंदाज़ में बोले—"आपके दाँत को कोई मामूली कीड़ा नहीं लगा है, यह तो जानलेवा अक्ल का कीड़ा है। अगर इसे तुरंत नहीं निकाला गया, तो यह दिमाग तक पहुँच जाएगा। वहाँ जाकर अक्ल के तारे तोड़ देगा। इसके परिणाम आपको भुगतने पड़ेंगे। शायद समय से पहले सरकारी सेवा से निवृत्त होना पड़े। पेंशन भी नहीं मिलेगी। दर-दर भटकते हुए भीख माँगनी पड़ेगी।"
मेरी आँखों के सामने जुगनू चमकने लगे. क्या वाकई ऐसा हो सकता है? डर के मारे मैं चिल्ला उठा—"डॉक्टर, निकाल दीजिए वह दाँत, उस अक्ल के कीड़े समेत!"
दाँत निकलते ही दर्द भी चला गया। तन और मन दोनों शांत हो गए। कार्यालय पहुँचकर मैंने वह विशेष भ्रष्टाचार की फाइल लाल फीते में बाँधकर अलमारी में रख दी।
घर लौटकर मैंने सफेद शुभ्र वस्त्र पहना और आईने के सामने खड़ा हुआ।लेकिन आईने में मुझे अपना चेहरा काले धब्बे से ढका हुआ क्यों दिखाई दे रहा था—यह मैं समझ नहीं पाया।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें