समाज समलेंगिकता को एक विकृती मानता हैं तथा उसका निषेध करता है परंतु आज समलेंगिकता को कानूनी रूप से जायज करार देने की मांग तथाकथित बुद्धीजीवी कर रहे हैं. क्या यह उचित है? समाज समलेंगिकता एक विकृती क्यों मानता है. इसी पर प्रकाश डालने का प्रयास अपनी अल्प बुद्धी से किया है.
परमात्मा के मन में एक से अनेक होने कि इच्छा उत्पन्न हुई. इसके साथ ही सृष्टी का निर्माण शुरू हुआ. विज्ञान कि भाषा में इसे 'बिग बैंग' भी कहते हैं. तभी से एक से अनेक होने विचार मन में संजोये सभी जीव सृष्टी कि निर्मिती में परमात्मा का हाथ बंटा रहे हैं. हम सभी जानते हैं, एक कोशकीय जीव स्वयं को विभाजित कर अनेक होता हैं. उस परमात्माने स्त्री-पुरुष के रूप में मानवजाती का निर्माण किया हैं अत: जन्म से ही अन्य जीवोंकी तरह मानव मन में भी एक से अनेक होने कि इच्छा विद्यमान रही है.
परमात्मा के मन में एक से अनेक होने कि इच्छा उत्पन्न हुई. इसके साथ ही सृष्टी का निर्माण शुरू हुआ. विज्ञान कि भाषा में इसे 'बिग बैंग' भी कहते हैं. तभी से एक से अनेक होने विचार मन में संजोये सभी जीव सृष्टी कि निर्मिती में परमात्मा का हाथ बंटा रहे हैं. हम सभी जानते हैं, एक कोशकीय जीव स्वयं को विभाजित कर अनेक होता हैं. उस परमात्माने स्त्री-पुरुष के रूप में मानवजाती का निर्माण किया हैं अत: जन्म से ही अन्य जीवोंकी तरह मानव मन में भी एक से अनेक होने कि इच्छा विद्यमान रही है.
यही
इच्छा मन में संजोये स्त्री-पुरुष मिलन करते हैं. मानव एक से अनेक होता
हैं तथा निर्मिती परमानंद स्त्री-पुरुष दोनो को प्राप्त होता हैं. अत:
स्त्री-पुरुष का एक दुसरे कि ओर आकर्षित होना मानवजाती के अस्तित्व के
लिये आवश्यक भी है. इसीलिये हमारे प्राचीन मनीषियों
विवाह के रूप में स्त्री-पुरुष संबंधों को परिभाषित किया हैं. केवल यौन
आनंद के लिये होने वाले स्त्री-पुरुष संबंधों को भी हमारे मनीषियों कभी उचित नहीं माना है. क्योंकी यह मिलन विकृत संतती को ही जन्म देता है.
अब
प्रश्न है पुरुष का पुरुष के प्रती, स्त्री का स्त्री के प्रति आकर्षित
होने से क्या परमात्मा प्रदत्त मानव कि 'एक से अनेक होने की' इच्छा पूर्ण
हो सकती है? हम सभी जानते हैं बिना पुरुष वीर्य धारण किये स्त्री बीज फलित
नहीं सकता हैं. समलेंगिक व्यक्ती मानव की एक से अनेक होने की मूल इच्छा
को कभी भी पूर्ण नहीं कर सकते हैं. इसके अलावा यौन आनंद भी कभी प्राप्त नहीं हो सकता हैं. क्योंकी आनंद निर्मिती में प्राप्त होता हैं विनाश में नही. अत: समलेंगिकता एक विकृती है, मानवजाती को विनाश की ओर ले जाने वाली है. समलेंगिक व्यक्ती जिंदगी में दुख और पीडा ही भोगते हैं. यही सच्चाई है. समलेंगिक व्यक्ती अपनी विकृती को पहचाने तथा कुशल चिकित्सक से अपनी बिमारी का इलाज कराये उसी में उसकी एवं मानव जाती की भलाई हैं. भारतीय मनीषी इसे बिमारी ही मानते हैं जिसकी चिकित्सा की जा सकती हैं.
विवेक सर
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है प्रकृति के विपरीत चीज गलत ही हो सकती हैं.. लेकिन समलैंगिकता भी तो प्रकृति से ही हैं. यह बात और है की इससे प्रजनन की क्रिया नही होगी। बात हैं यौन सुख की तो समलैंगिक लोग आपस में सुख भोग ही लेते हैं. क्या यह सामाजिक विकृति है? यदि हैं तो उन्हें साहिमे चिकत्सा की जरुरत हैं. जैसा समाज वैसा दृश्टिकोण।
अरबों वर्षों से सृष्टि में निर्मिती का कार्य चल रहा है. धरती पर ही हम चाहे भगवन को माने या बाबा डार्विन को, निरंतर चलने वाली निर्मिती के फलस्वरूप ही एक कोशिकीय प्राणी से मनुष्य जैसा प्राणी आज धरती पर अवतरित हुआ है. मानव जाती में स्त्री पुरुष का मिलन यौन सुख के लिए नहीं अपितु निर्मिती की प्रक्रिया सतत चलती रहे इसलिए होता है. निर्मिती की प्रक्रिया में आनंद मिलता है, यह मानवीय सोच है. समलैंगिकता सृष्टि के निरंतर चलने वाले चक्र के लिए बाधक है. अत: इसे विकृति ही कहना पड़ेगा. विकृति को दूर किया जा सकता है, परन्तु इसका समर्थन करना सृष्टि के असामयिक विनाश का कारण बन सकता है.
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