एक बार छह ऋषि, जनकल्याण की दिव्य भावना से प्रेरित होकर, हिमालय के हृदय में पहुँचे। उनकी आँखों में जिज्ञासा थी, हृदय में तपस्या, और आत्मा में एक ही ध्येय—सत्य की खोज।
उन्होंने एक हिमाच्छादित पर्वत पर कठोर तप आरंभ किया। समय थम गया, वायु स्थिर हो गई, और अंततः... सत्य प्रकट हुआ।
सत्य का तेज इतना प्रखर था कि प्रत्येक ऋषि ने उसे भिन्न रूप में देखा—किसी को वह करुणा का प्रतीक लगा, किसी को न्याय का, किसी को प्रेम का, और किसी को शून्यता का। सभी ने सत्य का वर्णन किया, और आश्चर्य की बात यह थी कि हर वर्णन अलग था। फिर भी कोई असत्य नहीं बोल रहा था।
अंततः वृद्ध ऋषि ने मौन तोड़ा। उन्होंने कहा: "सत्य एक ही होता है, पर उसका प्रतिबिंब हर हृदय में अलग रूप में उतरता है। जब उसका पालन किया जाए, वह अमृत बनता है। लेकिन जब उसे दूसरों पर थोपने का प्रयास किया जाए, वह विष बन जाता है—और विनाश का कारण बनता है।"
उन्होंने शिष्यों को पृथ्वी पर लौटने का आदेश दिया, एक ही उपदेश देकर—सत्य का प्रचार करो, पर उसे बंधन मत बनाओ।
ऋषि पृथ्वी पर लौटे। उन्होंने सत्य का प्रचार किया, पर समय के साथ वे वृद्ध ऋषि की चेतावनी भूल गए। उनके शिष्य अहंकार से अंधे हो गए और अपने अनुभव किए गए सत्य को दूसरों पर थोपने लगे। सत्य प्रचार का माध्यम नहीं रहा, वह शस्त्र बन गया। मठ-मंदिर जलने लगे, विचारों का युद्ध छिड़ गया, और अंततः...
आज सत्य ही मानवता के विनाश का कारण बनने को है।
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