करीब ३५ साल बाद वे दोनों फिर मिले। बाल सफेद हो चुके थे, चेहरे पर उम्र की लकीरें थीं, लेकिन आंखों में पहचान अब भी ताज़ा थी। उसे आखिरी मुलाकात याद आई—नेहरू पार्क। उसके बालों में मोगरे के फूलों की वेणी थी, वह उसके करीब बैठी थी। उसने वेणी को सूंघने का बहाना करते हुए उसके गाल पर हल्का सा चुंबन लिया।
“दूर हटो! क्या समझा तुमने? अभी तो हमारी शादी भी नहीं हुई,” वह नाराज़ होकर बोली।
“तो फिर कब पूछोगे अपने पिताजी से? मुझे नौकरी लगे एक साल हो गया है।”
“मेरे पापा एक किराए के मकान में रहने वाले लड़के से अपनी बेटी की शादी नहीं करेंगे।”
“तो क्या हम ऐसे ही रहेंगे?”
“मैं सरकारी नौकरी के लिए कोशिश कर रही हूं। एक बार नौकरी लग गई तो पापा से कहूंगी—एक स्मार्ट, थोड़े बेअक्ल, लेकिन कंजूस लड़के से शादी करनी है। हमारी दोनों की तनख्वाह में घर चल जाएगा। पापा मना नहीं करेंगे, मुझे यकीन है।”
“मैं कंजूस?”
“तो क्या! अपनी प्रेमिका को चाणक्य सिनेमा में ६५ पैसे की पहली पंक्ति की टिकट दिलाने वाला, एक रुपए का पॉपकॉर्न और एक कप कॉफी दोनों के लिए। क्या मजनू है मेरा! वैसे, तुम्हारे माता-पिता से पूछा क्या?”
“दूध देने वाली गाय को कौन मना करता है।”
उसने उसकी पीठ पर ज़ोर से थप्पड़ मारा।
“अरे! कितना ज़ोर से मारती हो!”
“अरे नहीं, अब ‘पत्नी जी’ कहना सीखो।”
“मतलब शादी के बाद भी मारोगी?”
“हां, लेकिन बेलन से।”
उसके बाद वह कभी नहीं मिली। बाद में पता चला कि उसने मुंबई में एक सरकारी दफ्तर में नौकरी जॉइन की थी। उसकी शादी भी हो गई थी। वह कोई देवदास नहीं था। उसने अपनी मां की पसंद की लड़की से शादी कर ली।
“कैसी हो?” उसने पूछा।
वह बोली, “नाराज़ तो नहीं हो मुझसे? मेरे पापा को हमारे रिश्ते के बारे में पता चल गया था। मुझे तुमसे दूर करने के लिए उन्होंने चाल चली। मां ने कसम दिलाई। तुम भी वहां नहीं थे। मजबूरी में पापा की इच्छा माननी पड़ी।”
“तुम्हारे पति क्या करते हैं?”
“अब वे जीवित नहीं हैं। एक बड़ी कंपनी में ऊंचे पद पर थे, लेकिन शराब और जुए की लत में डूब गए। नशे में वे शैतान बन जाते थे। सारा गुस्सा मुझ पर निकालते थे। कुछ ही सालों में वे चले गए। बेटा भी पिता की राह पर चला। शराब ने उसकी भी जान ले ली। अब शायद रिटायरमेंट के बाद वृद्धाश्रम जाना पड़े। किस्मत है सबकी अपनी। तुम्हारा क्या?”
“तुम्हारी शादी की खबर सुनकर मुझे गुस्सा आया था। लेकिन मां ने समझाया—जिंदगी ऐसी ही होती है। मैंने मां की पसंद से शादी की। शादी के बाद एक बार पत्नी के साथ ओडियन में बालकनी की टिकट लेकर ‘मैंने प्यार किया’ फिल्म देखी।" बोलते समय एक उदास मुस्कान उसके चेहरे पर तैर गयी।
“वाह! किस्मत वाली है वो—प्रेमिका के लिए ६५ पैसे की टिकट और पत्नी के लिए बालकनी!” कहते हुए उसने जीभ काट ली।
उसकी नजर सड़क पर मोगरे की वेणी बेचने वाले दुकानदार पर गई। मन में ख्याल आया—उसके सफेद बालों पर भी मोगरे की वेणी खूब जचेगी। वह रुका, पूछा, “वेणी लोगी?”
“हां, ले लो! अपनी पत्नी के लिए। मुझे भी मोगरे की वेणी पसंद है।”
उसने दो वेणियां लीं। एक उसके हाथ में दी।
उसने कहा, “तुम्हें भूलने की बहुत कोशिश की, लेकिन नहीं भूल पाई। उनके जाने के बाद तो बस तुम्हारी ही याद आती थी। कभी लगता था शायद तुम अब भी मेरा इंतज़ार कर रहे हो, कभी लगता था तुम्हारा भी परिवार होगा। खुद को समझाने की बहुत कोशिश की। जब तुम्हारी याद बेकाबू हो जाती, तो बाजार जाकर मोगरे की वेणी खरीदती, कमरे का दरवाज़ा बंद करके बालों में वेणी सजाकर आईने के सामने खड़ी होकर रोती... आज भी रोऊंगी।” कुछ पल दोनों चुप रहे। तभी उसकी बस आई और वह चली गई।
कुछ देर बाद उसकी नजर हाथ में पकड़ी मोगरे की वेणी पर गई। उसने पत्नी के कहने के बावजूद भी कभी भी अपनी पत्नी के लिए वेणी नहीं खरीदी थी। और आज... उसके मन में विचारों का तूफान उठा। शादी से पहले उसकी पत्नी ने भी सप्तरंगी संसार के सपने देख होंगे। लेकिन हकीकत में ज़िंदगी भर वह पति की कम तनख्वाह में घर चलाने की जद्दोजहद करती रही। उसने अपनी सारी इच्छाएं मार दीं। कभी कुछ मांगा नहीं, कभी ज़िद नहीं की। उसे याद आया—कई बार उसके और बच्चों के टिफिन भरने के बाद सब्ज़ी बचती ही नहीं थी। जब पूछता, “अरे! तुम्हारे लिए सब्ज़ी नहीं बची?” तो वह कहती, “मैं अपना देख लूंगी।” अक्सर अचार या तेल-नमक-मिर्च के साथ रोटी खाकर भूख मिटा लेती। उसने भी उसे तन और मन से प्यार किया था। बदले में उसने क्या दिया? क्या मैंने कभी दिल से उसे प्यार किया?
उसने ठान लिया—अब सब भूलकर फिर से जीवन की शुरुआत करनी है।घर जाकर उसने अपने हाथों से पत्नी के सफेद बालों में मोगरे की वेणी सजाई..
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