मनुष्य ऋषि ने पत्थर रगड़कर अग्नि प्रज्वलित की। अग्नि को प्रसन्न करने के लिए प्रार्थना की “हे अग्नि, हमें सुख-समृद्धि दो, शत्रुओं पर विजय दिलाओ।” उसने उच्चारण किया: “अग्नये स्वाहा। इदं अग्नये इदं न मम।”
तभी हवनकुंड से एक धुएँ जैसी, शरीरहीन आकृति प्रकट हुई। वह हाथ जोड़कर खड़ी थी। उसने कहा, “मैं धूम्राक्ष हूँ, अग्निपुत्र। धुआँ ही मेरा भोजन है। मनुष्य की इच्छाओं को पूरा करना ही मेरा धर्म है।”
ऋषि ने मधुमक्खियों के छत्ते का मध माँगा। धूम्राक्ष ने धुआँ फैलाया, मधुमक्खियाँ उड़ गईं। ऋषि को खाँसी आई, लेकिन मीठा मध मिल गया। धूम्राक्ष फिर आदेश की प्रतीक्षा में खड़ा रहा।
समय आगे बढ़ता है। अर्जुन धूम्राक्ष को खांडववन जलाने का आदेश देता है। धूम्राक्ष अग्नि की सहायता से वन के जीव-जंतु और वनस्पतियाँ निगलता है। वनवासी व्याकुल होकर जंगल से बाहर निकलते हैं और अर्जुन की शरण में आते हैं। वे दुनिया के पहले विस्थापित बनते हैं। खांडववन की राख पर इंद्रप्रस्थ बसता है। आज मुंबई, नोएडा जैसे सैकड़ों महानगर भी धूम्राक्ष की मदद से खड़े हुए हैं।
मनुष्य की हर इच्छा को पूरा करते-करते, धूम्राक्ष इतना बड़ा हो गया है कि आज उसकी धुएँ जैसी देह पूरी पृथ्वी को ढक चुकी है।
शायद, मनुष्य की असीम इच्छाओं को पूरा करते-करते, एक दिन धूम्राक्ष मनुष्य को ही निगल जाएगा।


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