हालाँकि शून्य का आविष्कार हमारे पूर्वजों ने किया था, लेकिन आज हम उसका असली अर्थ भूल चुके हैं। दुनिया का सारा तंत्र शून्य के गणित पर ही आधारित है।
तो शून्य का गणित क्या है?
अगर हम किसी से ₹100 का कर्ज लेते हैं, तो जब तक उसे चुकाते नहीं, हिसाब पूरा नहीं होता। 100 - 100 = 0 — जब तक उत्तर शून्य नहीं आता, तब तक गणित अधूरा रहता है। जिनका शून्य का गणित बिगड़ता है, वे कर्ज में डूब जाते हैं।
आज किसानों की यही हालत है। धरती माँ से लिया गया पानी लौटाने के बजाय वे लाखों रुपये खर्च कर बोरवेल लगाते हैं। फिर भी जल स्तर गिरता ही जाता है। एक दिन ऐसा आएगा जब धरती के खाते में पानी ही नहीं बचेगा। उपजाऊ ज़मीन रेगिस्तान बन जाएगी।
किसान ज़मीन से अन्न लेते हैं, लेकिन पराली, पत्ते, कचरा जला देते हैं। प्राकृतिक खाद के रूप में जमीन को वापस नहीं लौटाते। जानवरों और इंसानों का मल-मूत्र भी खाद के रूप में धरती को नहीं लौटाते। परिणाम, धरती से लिया गया कर्ज चुकता नहीं होता। शून्य का गणित बिगड़ जाता है। और जब शून्य बिगड़ता है, तो खेती से लक्ष्मी नहीं आती। किसान कर्ज में डूबता है, गरीब होता है, और कभी-कभी आत्महत्या तक कर लेता है।
अब सवाल है। धरती को पानी कैसे लौटाएं?
द्वापर युग में श्रीकृष्ण ने ब्रज में 99 सरोवर बनवाकर धरती का कर्ज चुकाया। सरोवरों का महत्व समझाने के लिए ऋषियों ने उनके किनारे तीर्थ बनाए और धार्मिक मूल्य दिए।
पहले हर गाँव में तालाब होता था। दिल्ली में 1947 से पहले 4 लाख की आबादी के लिए 500 से ज़्यादा तालाब थे। भंडारा ज़िले में गोंड राजाओं ने 10,000 से ज़्यादा तालाब बनवाए थे। पहले पानी का कर्ज चुकाने की पूरी व्यवस्था थी। लोग शून्य का गणित समझते थे।
अब समय है कि सरकार सख्ती करे। पराली और कचरा जलाने वाले किसानों पर कार्रवाई हो। शहरों के कचरे से खाद बनाकर धरती को लौटाया जा सकता है। इसके लिए सब्सिडी दी जा सकती है। रासायनिक खाद की जगह जैविक खाद को बढ़ावा दिया जाए।
बुलढाणा ज़िले के हिवरे बाज़ार गाँव ने सामूहिक प्रयासों से 40 से ज़्यादा तालाब बनाकर जल संकट को दूर किया। खेती, पशुपालन और जीवन स्तर में सुधार हुआ। उन्हें शून्य का गणित समझ में आया।
अगर बाकी गाँव भी ऐसा करें, तो पहाड़ों में बड़े-बड़े बांधों की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।
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