अ॒ग्निर्जा॑गार॒ तमृच॑: कामयन्ते॒ऽग्निर्जा॑गार॒ तमु॒ सामा॑नि यन्ति ।
अ॒ग्निर्जा॑गार॒ तम॒यं सोम॑ आह॒ तवा॒हम॑स्मि स॒ख्ये न्यो॑काः।
(ऋग्वेद 5/44/15 ऋषी: अवत्सार काश्यप | देवता: विश्वेदेवता)
अवत्सार कश्यप ऋषि विश्वदेवताओं की प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि ज्ञान के प्रकाश में जागृत रहने वाला मनुष्य सदैव सजग रहता है। वह सांसारिक सुख-संपत्ति के साथ-साथ अलौकिक, नित्य आनंद का भी अनुभव करता है। ऋषि प्रार्थना करते हैं — हे प्रभु, कृपया हमें सभी प्रकार का आश्रय प्रदान करें, जिससे हम सदा आपकी मैत्री में ही निवास करें।
यह ऋचा एक जागृत, ज्ञानप्रकाशयुक्त साधक के जीवन की महिमा का वर्णन करती है। ऋषि प्रार्थना करते हैं कि जैसे अग्नि निरंतर जागृत रहता है, वैसे ही साधक भी आत्मजागृति में स्थित रहे। जब साधक अंतःकरण से जागृत होता है, तब उसे ऋचा — अर्थात ज्ञान की प्राप्ति होती है, और सोम — अर्थात आनंदस्वरूप परमात्मा का सान्निध्य प्राप्त होता है। (सोम अर्थात परमेश्वर स्वयं साधक को संबोधित करता है: “मैं तेरा सखा हूँ, तेरे साथ हूँ।”)
यहाँ एक प्रश्न उठता है — जागृत अवस्था क्या है? भगवद्गीता में भगवान कहते हैं:
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥
— भगवद्गीता, अध्याय 2, श्लोक 69
जो समय (स्थिति) सभी प्राणियों के लिए रात्रि के समान है — अर्थात विषय-वासनारूपी अंधकार से आच्छादित है. उस समय संयमी पुरुष जागृत होता है, अर्थात ज्ञानरूपी प्रकाश में स्थित होता है। जिन विषयों में सामान्य प्राणी जागृत रहते हैं — जैसे इंद्रिय सुख, विषयभोग आदि — वे ज्ञानी मुनि के लिए रात्रि के समान होते हैं।
रात्रि का अर्थ है तमस। तमस त्रिगुणों में से एक है, जिसे अज्ञान, आलस्य, मोह और आत्मविस्मृति का मूल कारण माना गया है। तमस-दोष से ग्रस्त व्यक्ति में आलस्य और प्रमाद दिखाई देता है। वह कार्यों को टालता है, प्रयास से बचता है और निष्क्रिय रहता है। अज्ञान के कारण उसे योग्य-अयोग्य, सत्य-असत्य का भेद नहीं समझ आता। ऐसा विवेकहीन व्यक्ति मोह-माया में फँसकर तात्कालिक सुख के लिए विवेक खो देता है। वह अहंकारी, क्रोधी और द्वेषी बन जाता है। आत्मविस्मृति के कारण उसे अपने आत्मस्वरूप का भी स्मरण नहीं रहता। साधना, सेवा और ज्ञानमार्ग में उसकी रुचि नहीं रहती। वह केवल अपने स्वार्थ को देखता है। इन सभी दोषों के कारण व्यक्ति का मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। इसलिए तमस का निवारण आत्मजागृति के लिए अत्यंत आवश्यक है।
तमस को दूर करने के लिए प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर ध्यान करना और मन शांत होने पर आत्मचिंतन करना पहला कदम है। दूसरों की गलतियाँ देखने के बजाय अपनी त्रुटियों की जाँच करके उन पर विचार करना और उन्हें दूर करने का प्रयास करना, तथा योग्य-अयोग्य का विवेकपूर्वक निर्णय लेना — यही सजगता का मार्ग है। आलस्य और प्रमाद को त्यागकर पुरुषार्थ का मार्ग अपनाने से जीवन में सच्चा प्रकाश आता है।
विषयभोग और वासनाओं पर नियंत्रण पाने के लिए सत्संग में भाग लेना, सेवा और परोपकार के कार्य करना — ये तमस को नष्ट करने के प्रभावी उपाय हैं। सत्संग की सुगंध से — अर्थात उत्तम और सज्जन लोगों के संग से — मन शुद्ध होता है। सेवा और परोपकार के स्पर्श से वासनाओं की परतें धीरे-धीरे विरल होने लगती हैं और ज्ञान का तेजस्वी प्रकाश अंतःकरण में प्रकट होता है। यदि विद्यार्थी हों, तो मोबाइल के मोह से बचकर अध्ययन पर ध्यान केंद्रित करना ही सच्ची साधना है। इसके अतिरिक्त, प्रतिदिन एक अच्छा वचन मन में रखकर उसके अनुसार आचरण करने का प्रयास करना, और “मैं कौन हूँ?” इस प्रश्न पर विचार करना — ये आत्मविकास के मूलभूत चरण हैं। ऐसे सजग प्रयासों से मन का अंधकार दूर होता है और आत्मजागृति का दीप प्रज्वलित होता है।
जागृति ही साधना का मूलाधार है। अंतःकरण से जागृत रहने वाला ही सच्चा साधक होता है। जागृत साधक को भौतिक सांसारिक सुखों की प्राप्ति होती है, और साथ ही आध्यात्मिक क्षेत्र में उसकी सतत प्रगति होती है। इस मार्ग पर चलते हुए उसे नित्य आनंद की अनुभूति होती है — जो क्षणिक नहीं, बल्कि शाश्वत होती है। अंततः परमेश्वर स्वयं सखा बनकर उसके जीवन में प्रवेश करता है और उससे सख्यभाव से निवास करता है।
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