मैंने शादी की और एक स्त्री को अधिकार समझकर घर लाया। उसके सामने चारा रखा। उसने बदले में भरपूर दूध दिया। वह अपना कर्तव्य पूरी निष्ठा से निभा रही थी।मैंने सोचा—इसमें प्यार कहाँ है? यह मेरा संकीर्ण, नीच पुरुषवादी सोच थी।
उस समय मैं अस्पताल के बिस्तर पर मृत्यु से लड़ रहा था। मेरा शरीर काँप रहा था। उसने दोनों हाथों से मुझे थामकर बैठाया। मैंने उसकी आँखों में झाँका। वहाँ केवल निर्मल, निष्कलंक प्रेम था।
मेरे मन में विचार आया—मैं उसके प्रेम को क्यों नहीं पहचान पाया? मुझे खुद पर शर्म आने लगी। मैंने उसका हाथ कसकर पकड़ा और काँपती आवाज़ में कहा, “मुझे डर लग रहा है।”
उसने दृढ़ स्वर में कहा, “आपको कुछ नहीं होगा। मैं हूँ ना!” उस क्षण वह मुझे सावित्री जैसी लगी— जो अपने पति के लिए यमराज से लड़ पड़ी थी। स्त्री अपने प्रियजनों के लिए अपना सब कुछ समर्पित करती है। बिना किसी आशा के संसार में सुख और खुशी के रंग भरती है। हाँ, मेरी पत्नी ही मेरी कामधेनु है।
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