सोमवार, 30 मई 2022

पुरानी दिल्ली की यादें (5): गोटू और क्रिकेट की गेंद


उस समय मेरी उम्र 12-13 साल की थी। थोडा बडा हो गया था। अपने दोस्तों के साथ छूटियों में क्रिकेट खेलने जाने लगा था। गर्मी की छूटियों में  जहां हम सुबह घूमने जाते थे। वहीं दशहरे और क्रिसमस की छूटियों  क्रिकेट खेलने। पुरानी दिल्ली में मोरीगेट के बाहर क्रिकेट खेलने के लिए एक बड़ा मैदान था। मैदान का एक हिस्सा स्टीफन कॉलेज का था।  इसलिए लोग उस मैदान को स्टीफन ग्राउंड के रूप में जानते थे। छुट्टियों के दौरान, 25-30 क्रिकेट टीमें मैदान पर खेलती थीं। खेलते समय सावधानी बरतनी पड़ती थी। कहीं से भी गेंद आके सर  पर लग सकती थी।  हमारी टीम में 5-6 मराठी लड़के, आस पास के गली मोहल्ले के हिन्दू और मुस्लिम लड़के हमारी टीम में आते-जाते खेलते थे।आखिर 11 लड़कों की टीम जो पूरी करनी होती थी। हम सभी सभी गरीब या निम्न मध्यम वर्ग के थे। उस समय एक कॉर्क बॉल 2-3 रुपये में आता था। हम सब दस पैसे से चवन्नी मिलाकर बॉल खरीदते थे।  मैदान में अमीर लड़के सफेद कपड़े, अच्छी क्वालिटी के बल्ले हाथ में लिए, क्रिकेट की गेंद से क्रिकेट खेलते थे। उस समय भी क्रिकेट बॉल की कीमत 10-15 रुपये हुआ करती थी। हमारा उनसे ईर्ष्या होना स्वाभाविक था। हमने कभी सोचा नहीं था की कभी हम भी क्रिकेट की गेंद से क्रिकेट खेल सकेंगे। 

वह शायद दशहरे की छुट्टी का पहला ही दिन था। हमें मैदान में गोटू मिला। उसके पास क्रिकेट की 2-3 गेंदें थीं। वह नई गेंद चार से पाँच और कुछ ओवर पुरानी दो से तीन रुपए में बेच रहा था। हमने भी उससे एक गेंद खरीद ली। परंतु मेरे एक दोस्त को शक हुआ, उसने गोटू से पूछा, इतनी सस्ती गेंदें कहां से लाते हो। गोटू ने रौब से कहा, उसकी जान पहचान डीडीसीए (दिल्ली जिला क्रिकेट संघ) में है। मैच खत्म होने पर डीडीसीए वाले पुरानी गेंदों को अपने जान पहचान वोलों को  सस्ते में बेच देते हैं। कुछ गेंदें एक-दो ओवर भी पुरानी भी होती है। वह ऐसी गेंदों को एक दर्जन के भाव पर खरीदता है। 2-4 रुपए में पुरानी, ​​नई गेंद 3 से 5 रुपये में। हमने उससे क्रिकेट गेंदें खरीदना शुरू किया। कभी 2 रुपए में तो, कभी 3 रुपए में।  गोटू भी क्रिकेट अच्छा खेलता था। कभी-कभी सुबह हमारे साथ खेलने आ जाता था। हमने कभी भी उससे उसका असली नाम नहीं पूछा।  

स्कूल को क्रिसमस की छुट्टियाँ लगी थी। हमने गोटू को क्रिकेट की गेंद के लिए कहा था। लेकिन हमारे मैदान में पहुँचने से पहले ही उसने दूसरी टीम को गेंद बेच दी थी। हमारा उससे काफी झगड़ा हुआ। काफी कहा सुनी हुई। आखिर हार कर गोटू ने  कहा कि वह आज सुबह 11 बजे फिरोजशाह कोटला  जाएगा। यदि गेंद मिलती है तो कल सुबह हमें लाकर देगा। जाहीर था, हमें उस पर विश्वास नहीं हुआ। मैंने और मेरे दोस्त ने उसके पीछे जाने फैसला किया।  हमारा मकसद था, यह जानना की वह किससे गेंद खरीदता है। एक बार जब यह पता लग जाएगा तो हम भी उस आदमी से थोक में  गेंद खरीद सकते हैं। हम भी उसकी तरह  गेंद को बेचकर पैसा कमा सकते है। बड़ा नायाब आइडिया था। सुबह करीब 11 बजे मैं और मेरा दोस्त पैदल चलते हुए दिल्ली गेट पहुंचे। पहले फिरोजशाह कोटला स्टेडियम उतना बड़ा नहीं था, जितना आज है। एक सड़क दिल्ली गेट से राजघाट की ओर जाती है। एक तरफ पुरानी दिल्ली की दीवार। दीवार के पीछे दरियागंज और सामने बगीचा। सड़क के दूसरी ओर फुटबॉल स्टेडियम, बस स्टैंड और एक गली है जो सीधे फिरोजशाह कोटला स्टेडियम की ओर जाती है। स्टेडियम  की दीवार और गली के बीच  एक छोटा सा मैदान था। मैदान के एक हिस्से में प्रक्टिस के लिए नेट बने हुए थे। और  बीचोबीच क्रिकेट की पिच थी। डीडीसीए के ज्यादातर लीग मैच वहीं होते थे। हम वहां पहुंचे, तो हमने देखा कि गोटू मैदान के बाहर सड़क के किनारे बैठा हुआ था। मैदान में क्रिकेट मैच चल रहा था। हमें देखकर वह चौंक गया। उसने हमसे कहा, " धंधे का राज को जानने आए हो? मुझ पर विश्वास नहीं है, क्या?"  मैंने कहा, विश्वास होता तो यहां क्यों आते। बाकी हम तेरे काम में दखल नहीं देंगे।  हमें सिर्फ क्रिकेट की गेंद चाहिए। (बचपन से ही हम स्वार्थी हो  जातें है,  12 साल की उम्र में भी सफ़ेद झूठ बोलना सीख लिया था।) उसने कहा कि अभी मैच चल रहा है, हमें यहां कुछ देर धूप में बैठना होगा। मैंने उससे कहा, इतनी दूर से बैठकर खेल देखने से अच्छा थोड़ा आगे पेड़ के नीचे छांव में बैठते है। वहाँ से खेल देखने का मजा भी ज्यादा आयेगा। वो बस मुस्कुराया और कहा, अब तुम आ ही गए हो तो चुपचाप यहीं बैठो और तमाशा देखो। झकमार कर हम दोनों उसके साथ तेज धूप में चुपचाप बैठे रहे। कुछ ही देर बाद बल्लेबाज ने गेंद को जोर से मारा और गेंद हमारी दिशा में उछलकर आई। ऐसा लग रहा था कि गोटू इसी पल का इंतजार कर रहा था। उसने गेंद को उठाया और चिल्लाया, भागो भागो। एक पल के लिए हमें कुछ समझ नहीं आया, लेकिन हमने उसे दौड़ते हुए तेजी से सड़क पार करते हुए देखा, डर के मारे  बिना कुछ विचार किए हम दोनों उसके पीछे भाग लिए।  तेज भागतेट्राफिक को नजरंदाज करके हमने रोड क्रॉस किया। भगवान का शुक्र है, हमारा आक्सीडेंट नहीं हुआ। दरियागंज दीवार में बने एक छेद से अंदर घुसने के बाद ही चैन की सांस ली। गोटू ने हमारी तरफ देखकर  हँसते  हुए कहा, क्यों आया न मजा। अबे बेवकूफों की तरह क्यों बैठे रहे। थोड़ी और देर हो जाती तो, पकडे जाते। बहुत मार पड़ती है। कभी कभी तो पुलिस को भी सौंप देते हैं। जान हथेली पर रख कर गेंद जुटता हूँ तुम्हारे लिए, फिर भी भरोसा नहीं करते हो।

मेरे मन में ख्याल आया कि अगर मैं पकड़ा गया होता तो....  शायद बहुत पिटाई होती। घर वालों को पता लगता तो, कल्पना करना भी असंभव था। क्रिकेट खेलना तो बंद हो ही जाता। और तो और,गली-मोहल्ले में लोग चोट्टा कहकर पुकारते। मैंने हिम्मत करके उससे पूछ ही लिया की वह यह सब क्यों करता है। एक पल के लिए  उसकी आँखों में पानी आ गया, उसने कहा कि उसके दो छोटे भाई और एक बहन है। उसकी मां का दो साल पहले निधन हो गया था, उसके पिता ने दूसरी शादी की। उसके पिता साप्ताहिक बाजारों में शाम को सब्जी की रेडी लगाते हैं। वह इस काम में अपने पिता की मदद करता है। लेकिन पिताजी उसे जेब खर्ची के लिए छदाम भी नहीं देते। सौतेली मां उनके लिए कुछ नहीं लाती। अगर वह अपने पिता से उसकी शिकायत करता है, तो वे उल्टे उसे ही पीट देते हैं। अपनी जान जोखिम में डालकर कमाए पैसों से  वह छोटे भाई-बहनों के लिए  मिठाई, कपड़े आदि खरीदता है। उस उम्र में मुझे नहीं पता था कि आगे क्या कहूं। मैं चुप ही रहा। कुछ लोगों के लिए जिंदगी की डगर बहुत ही  मुश्किल होती है। यही सच है। उसने हमसे वादा किया कि वह आज की घटना के बारे में हमारे टीम में किसी को नहीं बताएगा। उसने अपना वादा निभाया। मैं और मेरे दोस्त ने भी इस घटना का जिक्र किसी से न करने की कसमें खाई। कई सालों तक इस राज को हमने किसी पर जाहीर नहीं किया। सच जानने के बावजूद भी अगले दो-तीन साल हम उससे गेंद खरीदते रहे। बाद में वह मुझे दिखाई नहीं दिया। आज सोचता हूँ सारे चोर बाजार हमारे जैसे स्वार्थी, मतलबी लोगों की वजह से ही चलते है।  परंतु जब खुद के घर में चोरी होती है, तब हम पुलिस और सरकार को गालियां देते हैं। जब की इसके दोषी हम खुद होते हैं। 

  पुरानी दिल्ली की यादें (6): जमुना किनारा

मंगलवार, 24 मई 2022

पुरानी दिल्ली के यादें (4) गर्मीकी छुट्टियाँ : सुबह की सैर और आशिक़ी का किस्सा

उन दिनों तीस अप्रैल को स्कूलों का परीक्षा परिणाम आता था और  पंधरा मई से  छुट्टियाँ लगती थी। घरोंमें पंखे नहीं थे। मोहल्ले के सब लोग छत पर ही सोते थे। स्कूल जाते समय बेशक माँ को हमे उठाना पड़ता हो, पर छुट्टियों में हम सुबह पाँच बजे से पहले उठ जाते थे। सैर को जो जाना होता था। दस बारह साल के हम बच्चोंकी टोली, थैली  में  दूध की बोतलें लेकर मोहल्ले से सुबह पाँच बजे तक निकल पड़ती थी। नई बस्ती से बाहर एक चौक था। एक तरफ फायर स्टेशन जो आज भी है और दूसरी तरफ टीबी हॉस्पिटल। उसके बाजू में डीएमएस का दूध का डिपो था। जिसे शायद चित्रा गांगल नाम की एक मराठी लड़की उसे लड़की चलाती थी। उस समय  डीएमएस का दूध लेने के लिए टोकन जरूरी होता था। जो अलुमिनियम बना होता था। जिस पर नाम, पता और दूध की मात्रा लिखी होती थी। दूध के डिपो पर दूध डिलिवरी करने वाली महिलाओंका ही कब्जा था। एक महिला हमारे मोहल्ले में डीएमएस का दूध लेकर घरों तक पहुँचती थी।  हम अपनी बोतलें उसे सौंप, देते थे।  हमारे परिवार में हम पाँच भाई बहन। मिलकर सात सदस्य थे, फिर भी केवल एक लीटर टोंड दूध घर आता था। जो शायद बहुत कम था। हमारी माँ दूध गरम करते समय दूध में पानी मिला देती थी। ताकि सभी बच्चोंकों कम से कम एक-एक कप दूध पीने को मिल जाए। उसके बाद हमारी टोली आगे निकाल पड़ती थी। नोवेल्टी सिनेमा के सामने रेलवे लाइन के ऊपर बने पुल से चलते हुए  हम मोरी गेट पहुँच जाते थे। मोरीगेट से एक गली कश्मीरी गेट की तरफ जाती थी। जिसके एक तरफ दिल्ली की दीवारोंके पुराने अवशेष और दूसरी तरफ क्रिकेट का मैदान और उसके बाद तिकोना पार्क था। आज इस पार्क का बहुत बड़ा हिस्सा मोरी गेट के डीटीसी स्टैंड ने खा लिया है और नाम भी बदलकर महाराजा अग्रसेन पार्क हो गया है।  तिकोने पार्क में फूलोंके पौधे बहुत कम थे। इसलिए हम सड़क को पार कर कुदसिया बाग पहुँच जाते थे। यह  तरह-तरह के फूलोंसे भरा बहुत बड़ा पार्क था। आज इसका भी काफी बड़ा हिस्सा सड़कों ने लील लिया है। कुदसिया बाग  मोगरे के फूलोंकी भी कई बेलें थी। हमारा परिवार महराष्ट्रियन था। घर में एक छोटासा मंदिर भी था। माँ रोज सुबह स्नान करने के बाद पूजा करती थी। पूजा के लिए भी फूल चाहिए होते थे।  खेलने के बाद बहुत सारे फूल हम इक्कठा कर लेते थे। माँ को मोगरे की वेणी पहनना भी अच्छा लगता था। गर्मीयोंकि छुट्टियों में उनका यह शौक पूरा हो जाता था। एक पुरानी मस्जिदनुमा इमारत भी बाग थी। जो शायद कुदसिया बेगम ने बनवाई थी या उनकी याद में बनी थी।  इस पार्क में  घण्टेभर खेलने के बाद हम पुन घर की लौट पड़ते थे। रस्ते में रेलवे पुल पर रुक कर थोड़ी देर रेल के डिब्बोंकी शंटिंग होते हुए देखते थे। इंजन के छोड़ने पर डिब्बे अपने आप सौ मीटर का फासला तय करके दूसरे डिब्बों से जुड़ जाते थे। यह सब देखने में बड़ा मजा आता था। 

पुरानी दिल्ली में मुगल शहजादियोंकि आशिक़ी के कई किस्से मशहूर थे। एक जैसे किस्से कई शहजादियोंके नाम पर सुनने के बाद इनपर विश्वास करना कठिन होता था। पर यह किस्से भी पुरानी दिल्ली की आत्मा है।  ज़्यादातर किस्सो में बादशाह औरंगजेब को खलनायक के रूप में पेश किया जाता था।  

एक ऐसा ही एक किस्सा। कहा जाता है, दूसरों के सामने गर्दन न झुकानी पड़े इसलिए बादशाह शहजादियोंकि शादी नहीं करते थे। पर दिल तो मोहब्बत के आगे मजबूर हो ही जाता है। एक शहजादी को मोहब्बत हो गयी। आशिक उससे रोज मिलने आने लगा। बादशाह को यह बात पता लगी। शहजादी और उसके आशिक को रंगेहाथ पकड़ने के लिए जासूसों से सूचना मिलते ही बादशाह औरंगजेब शहजादी के महल पहुंचा। बादशाह को आते देख शहजादी ने अपने आशिक को पानी भरे एक बड़े देग में छिपा दिया। औरंगजेब को वहाँ कोई गैर मर्द नजर नहीं आया। उसने शहजादी से इस बारे में पूछा तो उसने भी मना कर दिया। औरंगजेब की नजर देग पर पड़ी। वह स्वभाव से ही क्रूरकर्मा था। उसने सिपाहियों कों देग के नीचे लकड़ियाँ जलाने को कहा। उसे लगा जब देग में भरा पानी उबलने लगेगा तब आशिक खुद ही चीखते-चिल्लाते बाहर निकलेगा। पर औरंगजेब को क्या मालूम, सच्चे आशिक मोहब्बत पर हँसते-हँसते कुर्बान हो जाते है। अपनी महबूबा की इज्जत पर आंच न आए, इसलिए उबलते-तड़पते हुए मरते समय भी आशिक के मुंह से आह तक नहीं निकली। औरंगजेब मुंह लटकाकर वहाँ से चला गया। एक अदने से आशिक ने बादशाह को परास्त कर दिया था। यही है मोहब्बत की ताकत। 

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पुरानी दिल्ली की यादें (5): गोटू और क्रिकेट की गेंद 

मंगलवार, 10 मई 2022

पुरानी दिल्ली के यादें (3): चुन्नी मियां और बकरा

नई बस्ती से तिलक बाजार की ओर जाने वाली गली में  एक कमरे में चुन्नी मियां रहते थे।  उनकी उम्र उस समय कम से कम साठ साल तो होगी ही। सफ़ेद दाढ़ी, मैलासा सफ़ेद कुर्ता-पाजामा, एक पुरानी मेज और उतनी ही पुरानी उषा सिलाई मशीन। यही चुन्नी मियां की पहचान थी। उसी गली में अमजद कसाई की दुकान भी थी। (शोले  फिल्म के बाद मोहल्ले के  बच्चे उन्हें गब्बर सिंह के नाम से पुकारने लगे। उनकी दुकान के सामने से गुजरते समय बच्चे ज़ोर-ज़ोर से शोले का डाइलाग बोलते थे, "पचास कोस दूर के बकरे अमजद कसाई का नाम सुनकर ...)  


उस समय दशहरे पर दिल्ली में स्कूलोंको 10 दिन की छुट्टियाँ होती थी। छुट्टियाँ शुरू होते ही हम चुन्नी मियां का घर आने का इंतजार करते थे। जब चुन्नी मियां इंच-टेप और माप लिखने के लिए एक पुरानी फटी हुई नोटबुक लेकर घर आते थे। तो हमारी खुशी का ठिकाना ही नहीं रहता था। क्योंकि साल में एक बार दिवाली पर नए कपड़े जो पहनने को मिलते थे।  कपड़ा और सिलाई सब चुन्नी मियां का होता था।  चुन्नी मियां के सिले हुए शर्ट और निक्कर पहने हुए बच्चे दूर से ही पहचाने जाते थे। शायद एक ही थान से सबके कपड़े सिलते थे।  

उस समय चुन्नी मियां और अमजद कसाई के बीच बातचीत बंद थी। चुन्नी मियां का कहना था, अमजद कसाई ने कपड़े सिलवाने की सिलाई नहीं दी थी। उधर अमजद कसाई का कहना था, चुन्नी मियां ने उसके महंगे कपड़े बर्बाद कर दिये। इसलिए चुन्नी मियां को हर्जाना देना चाहिए।  चुन्नी मियां के लिए अमजद भाई जैसे दबंग आदमी से पैसे वसूल करना संभव नहीं था। परंतु हर आने जाने वाले से वे अमजद की शिकायत करते थे। कुछ ही दिनों में मौहल्ले में सबको मालूम हो गया अमजद कसाई ने चुन्नी मियांकों सिलाई के पैसे नहीं दिये। मेरा मुस्लिम दोस्त कालू (उसका असली नाम क्या था, यह मैंने उससे कभी नहीं पूछा), हमे चुन्नी मियां से पंगे लेने में बड़ा मजा आता था। उन दिनों जब भी चुन्नी मियां के दुकान के सामने से गुजरते थे, ज़ोर से आवाज देकर उनसे पूछते थे,  "मियांजी, अमजद ने आपके पैसे दिए या नहीं"। मियांजी  उतनी ज़ोर से चिल्लाते थे, नाम मतलो उस पाजी हरामखोर का?  वह क्या समझता है, चुन्नी  मियां के पैसे डुबायेगा, मेहनत की कमाई है.  पैसे नहीं चुकाए तो देखना कोई बकरा एक दिन उसकी मोटी गर्दन पकड़कर उसे हलाल करेगासुबह-सुबह आ जाते हो खामका परेशान करने. भागो शैतानो यहां से कहते हुए पास पड़ा हुआ डंडा उठा हमे मारने के लिए दौड़ते थे। हम हँसते हुए वहाँ से भाग निकलते थे। 

एक दिन हमने  मियांजी की दुकान के सामने एक बकरे को बंधा हुआ देखा।  मियांजी ने बकरे को अपने हाथों से बादाम खिला रहे थे। मैंने मियांजी से पूछा, मियांजी बकरा क्यों खरीदा है। मियांजी बोले "कुर्बानी के लिए खरीदा है।  कालू से नहीं रहा, वाह! मियांजी, यहाँ दो टैम रोटी के लाले पड़े हैं और बकरा बादाम पाड रिया है।  चुन्नी मियां ने उसकी ओर देखा और कहा, "यहाँ आजा बंध जा, तुझे भी बादाम खिलता हूँ " और गले पर चाकू फेरने का नाटक किया। कालू भी कहाँ कम था, वह ज़ोर से मियांजी पर चिल्लाया, बादाम की खातिर, बच्चे को मार डालोगे क्या, खुदा का कहर टूटेगा। जहन्नुम में जाओगे, मियांजी। चुन्नी मियां  हाथ में डंडा में लिए हमारी तरफ देखते हुए कहा, अभी बताता हूँ शैतानों खुदा का कहर क्या होता है। हमेशा की तरह हम वहाँ से भाग निकले।

बकरीद के दो-तीन दिन बाद हम फिर मियांजी की दुकान के सामने से गुजरे। देखा बकरा वहीं बंधा हुआ था। चुन्नी मियां भी उदास दिखे। मैंने मियांजी से पूछा,  मियांजी बकरे की कुर्बानी नहीं दी क्या? मियांजी ने धीमी उदास आवाज में कहा, बेटा क्या करूँ दिल लग गया..। मियांजी आगे कुछ बोलते, कालू ने  कहा, "क्या समय आ गया है, इस उम्र में मियांजी को बकरे से मोहब्बत हो गयी है। मुझे  चाचीजान को बताना ही पड़ेगा। मियांजी ने अपने पास रखे डंडे को उठाया और गुस्से से बोले, बत्तमीज, शैतानो, पहले बोलने की तमीज़ सीखकर आओ, भागो यहाँ से। उस समय वहां से भागना ही अच्छा था।

करीब एक हफ्ते बाद जब हम वापस मियांजी की दुकान पर गए तो वहां बकरा बंधा हुआ नहीं था। बकरे का आखिर क्या हुआ यह जानने के लिए मैंने मियांजी से पूछा, मियांजी बकरा कहाँ गया? मियांजी ने कहा, अमजद कसाई को बेच दिया। कई दिनों से उसकी बकरे पर नजर थी। मैंने बात काटते हुए पूछा, मियांजी अमजद ने पैसे दिये या मुफ्त में उड़ा ले गया। मियांजी ने कहा, पूरे नगद २०० रूपये में बेचा है। ये बात अलग है इतने के तो बादाम खा गया होगा वह  हरामखोर, पाजी बकरा. फिर भी सौदा घाटे का नहीं रहा. तभी कालू बीच में बोल पड़ा, मियांजी, आप तो उससे मोहब्बत करते थे। कसाई को बेच दिया उसे। अब तक तो कट भी चुका होगा. चंद चांदी के टुकड़ों की खातिर आपने मौहब्बत कुर्बान कर दी, लानत है आप पर. इस बार मियांजी को उसकी बात सुनकर गुस्सा नहीं आया। मियांजी बोले, अरे काहे की मोहब्बत, एक दिन रात के टैम उस कमीने को बादाम खिला रहा था, उसने इंसानी आवाज में कहा, मियांजी, ख़बरदार मुझे कुर्बान किया तो, अगले जन्म में कसाई बनकर तेरी गर्दन पर छुरी चलाऊंगा.  मैं तो घबरा गया। सोचने लगा इस हरामखोर बकरे का क्या करूँ, तभी मुझे अमजद कसाई का ख्याल आया. बेच दिया उसको. कालू ने हँसते हुए कहा, तो अगले जन्म में अमजद कसाई कि गर्दन पर छुरी चलेगी. एक तीर से दो शिकार कर दिये मियांजी आपने. चुन्नी मियांजी की एक उदास हंसी आसमान में गूंज उठी। 

बाकी  दबंग अमजद कसाई की नजर उस बकरे पर पड़ गयी थी। अमजद कसाई को सस्ते में बकरा बेचने के सिवा चुन्नी मियां के सामने और कोई रास्ता नहीं था।  


गुरुवार, 5 मई 2022

पुरानी दिल्ली के यादें (2): सुशीला मोहन, स्वतन्त्रता सेनानी और वकील साहब


मकान मालिक वकील साहब थे फिर भी पुरानी दिल्ली में मकान को सुशीला मोहन का मकान  के नाम से जाना जाता था। सुशीला मोहन एक क्रांतिकारी थी। भगत सिंह, दुर्गा भाभी इत्यादि के साथ उन्होने कार्य किया था।काकोरी षड्यंत्र में जब राम प्रसाद बिस्मिल और उनके साथियोंकों बचाने के लिए सुशीला दीदी ने दस तोला सोना दिया। भगत सिंह को बचाने के लिए भी उन्होने 12000 रुपया एकत्रित किया था।  उनकी ब्रिटिश विरोधी गतिविधियोंकि वजह से 1932 में उन्हे छह महीने की सजा भी हुई थी। जेल से छूटने के बाद सुशीला दीदी ने सन 1933 में अपने ही एक सहयोगी वकील श्याम मोहन से विवाह किया। पुरानी दिल्ली के लोग उन्हे वकील साहब और मोहल्ले के चाचाजी के नाम से पुकारते थे।1942 के आंदोलन में भी उन्होने भाग लिया था। पति-पत्नी दोनों को सजा भी हुई थी। 


सुशीला दीदी ने विवाह से पूर्व एक बालक को गोद लिया था। जिसका नाम उन्होने प्यार से सतीश रखा था। हम मोहल्ले के बच्चे उन्हे सतीश काका के नाम से पुकारते थे। (मराठी मे काका चाचा को कहते  है)। शायद  सबसे पहले मेरे बड़े भाई ने उन्हे काका करके बुलाया होगा। सुशीला दीदी को कोई संतान नहीं हुई। परंतु यह सुशीला दीदी का दुर्भाग्य था की निसन्तान होते हुए भी चाचाजीने सतीश काका को कभी अपना नहीं माना। मैं जब दो साल का था अर्थात 1963 में सुशीला दीदी का स्वर्गवास हो गया था। मेरी माँ ने दीदी बारे में जो कुछ बताया उसके अनुसार वह सभी किराएदारोंकों अपने परिवार का ही मानती थी। जरूरत पड़ने पर उनकी धन और तन से सहायता भी करती थी। उन्होने मरने से पहले चाचाजी से वचन लिया था की वे किसी किराएदार को निकलेंगे नहीं। चाचाजी ने मरते दम तक अपनी पत्नी को दिए वचन का पालन किया।  

चाचाजी बहुत ही कठोर स्वभाव के थे। वकीली चोगे, सर पर ब्रिटिश हैट और हाथ मे छड़ी लेकर जब वह निकलते थे, तब उनका रौब देखते ही बनता था। गली- मोहल्ले के किसी बालक को गाली देते देखते ही उनका पारा चढ़ जाता था। जब तक छड़ी से उस बालक की अच्छी तरह  धुलाई नहीं कर लेते, उन्हे चैन नहीं मिलता था। उनके सामने किसी की भी बोलने की हिम्मत नहीं होती थी। यही कारण था पुरानी दिल्ली में रहते हुए भी हमारे  मुख से कभी 'साला' शब्द भी नहीं निकला। एक बार मोहल्ले के किसी बच्चे ने जमीन पर पड़ा तीन पैसे का सिक्का उठा लिया था। उसकी चाकलेट खरीद कर वह घर आया। दुर्भाग्य से चाचाजी की नजर उस पर पड गयी। मैं उस समय पाँच साल का हूंगा। पर अभी भी उस बच्चे की धुलाई याद है।  जिंदगी में कभी भी जमीन पर गिरा पैसा उठाने की हिम्मत नहीं हुई। शायद यही कारण था किरायेदारोंका कोई भी बालक निकम्मा नहीं निकला। एक डॉक्टर, एक इंजीनियर बाकी सरकारी नौकरी में या खुद के काम- धंधे में सफल हुए। 

सुशीला दीदी के गोद लिए बालक सतीश काका का विवाह पंजाब से निर्वासित परिवार की सुमन नाम की स्त्री से हुआ था। हम बच्चे उन्हे सुमन आंटी नाम से बुलाते थे। एक कमरे मे वे रहते थे। सतीश काका चाय बेचकर अपना गुजारा करते थे। चाचाजी ने शायद ही कभी उनकी आर्थिक मदत की हो। इसपर भी सुमन आंटी ने चाचाजी की तन-मन से सेवा की। उनके नाश्ते, भोजन इत्यादि का वह खास खयाल रखती थी। उन्हे भी कोई संतान नहीं हुई। सतीश काका मिलनसार और मृदभाषी थे। बच्चों में खासे लोकप्रिय थे। सदा हंसी मज़ाक करते रहते थे। मैंने कभी उन्हे नाराज होते नहीं देखा। 

सुशीला दीदी के मरने के बाद वकील साहब अपनी वसीयत और मकान अपने भतीजे के नाम कर दिया। जो कभी कभार ही उनसे मिलने आता था। वैसे तो चाचाजी  पक्के कोंग्रेसी थे। कांग्रेस के स्थानीय नेता सदा उनका आशीर्वाद लेने आते थे। उन्हे स्वतन्त्रता सेनानी का खिताब भी मिला। सिद्धांतवादी चाचाजीने पेंशन लेने से इंकार कर दिया था। जीवन के आखिरी पड़ाव पर उनके विचारधारा में परिवर्तन दिखाई दिया। 1978 में जमुना में बाढ़ आयी थी, उन्होने और मोहल्ले की महिलाओं सुमन आंटी, मेरी माँ इत्यादि ने गली और मोहल्ले में घर-घर जाकर पैसा आटा-चावल इत्यादि इकठ्ठा किया था। बेड़े में हलवाई के साथ मोहल्ले की महिलाओंने पूरिया तली, आलू की सब्जी बनी। पूरी-सब्जी, कपड़े, आटा-चावल, दाल बाढ़ पीड़ितों तक पहुँचाने की ज़िम्मेदारी उन्होने आरएसएस के कार्यकर्ताओं को सौंपी। शायद आपातकाल इसका कारण रहा हो। 

1979 में उनकी तबीयत खराब हो गयी और उनका स्वर्गवास हो गया। उनके भतीजे ने तत्काल ही मकान बेचने की प्रक्रिया शुरू कर दी। 'गाजर, डंडा और कानून' के प्रयोग से सभी किराएदारों से मकान खाली करा लिए। उस समय हमारे घर की हालत भी खस्ता थी। मुंबई के दलाल मजदूर नेताओंकी वजह से वहाँ  हड़तालें चल रही थी। जिसकी लपेट मे हमारे पिताजी की भी कंपनी थी। तनखा आधी-अधूरी मिल रही थी। केवल पाँच हजार रुपए लेकर हमारे पिताजी ने वह मकान छोड़ दिया। हमारा परिवार पश्चिमी दिल्ली अर्थात हरी नगर आ गया। इसके साथी ही हमारा भाग्योदय भी हुआ। जिसकी चर्चा फिर कभी। 

आपके मन में भी खयाल आया होगा मकान बेचने के बाद सतीश काका का क्या हुआ। सुमन आंटी के एक भाई सरकारी नौकरी में थे। उन्होने अपना एक फ्लॅट सतीश काका को रहने के लिए दे दिया। जहां वे अंत समय तक रहे। अपनी बहन के लिए एक भाई ने किराए की आमदानी पर पानी छोड़ दिया। 

क्रमश: अब एक किस्सा: चुन्नी मियां और बकरा (एक गरीब दर्जी और एक दबंग कसाई और बेचारा बकरा)



सोमवार, 2 मई 2022

पुरानी दिल्ली की यादें:(1) १७५६, कुंए वाली गली नई बस्ती दिल्ली ६


सन 1980 तक हमारा परिवार इसी मकान में किराए पर रहता था। अपनी उम्र के 20 वर्ष मैंने यही बिताए। पुरानी दिल्ली में मकानों के नंबर होते थे परंतु नंबर के सहारे मकान ढूंढना बहुत ही मुश्किल कार्य था। अधिकांश मकान नाम से अथवा काम से जाने जाते थे। जैसे अचारवालों का मकान इत्यादि। हमारे मकान को भी सुशीला मोहन के मकान के नाम से जाना जाता था। स्वर्गीय  सुशीला दीदी एक स्वतंत्रता सेनानी थीl उन्होंने भगत सिंह, दुर्गा  भाभी, चंद्रशेखर आजाद इत्यादि स्वतंत्रता सेनानियों के साथ काम किया था।   



1756, यह एक आयताकार मकान था। मकान में प्रवेश करते ही शौचालय के दर्शन होते थे। पहले शौचालय नीचे ही होते थे। उसके बाद एक जीना दांई तरफ ऊपर जाता था यहां सामने एक वरांडा और दो कमरे जिनमें हमारा परिवार रहता था। बगल में एक वरांडा और एक कमरे में दीक्षितजी जो दिल्ली के एक प्रसिद्ध अंग्रेजी अखबार के संपादक मंडल में थे।  परिवार में वह और उनकी पत्नी जिन्हें हम भाभीजी कहते थे। उनकी कोई खुद की संतान नहीं थी। परंतु एक भतीजा और भतीजी पढ़ने के लिए साथ में रहते थे। उनके वरांडे में सामने की तरफ रसोई घर तथा एक बाथरूम जो दोनों परिवारों के  पानी भरने और स्नान के काम आता था। एक जीना ऊपर  छत पर जाता था। छत पर एक कमरा था। जहां बनर्जी नाम के एक चित्रकार रहते थे। उन्होंने शादी नहीं की थी।  मुझे याद है उनका एक-एक चित्र उस जमाने में भी दस-दस  हजार का बिकता था। कभी-कभी उनका एक भाई  हालचाल जानने आ जाता था।  वह सिगरेट बहुत  पीते थे। अकेले में रहना पसंद करते थे। परंतु बंदरों से उनकी अच्छी यारी दोस्ती थी। बंदरों नहीं कभी भी उनकी किसी भी चित्र को नहीं पहुंचाया। 

यह तो दाएं भाग में रहने वाले किरायेदारों की बात। आगे एक हैंडपंप था। हैंडपंप का पानी मीठा था। पहले यहां कुआं हुआ करता था। हैंडपंप के बाद एक जीना सीधा ऊपर की मंजिल पर जाता था। ऊपर पहली मंजिल पर एक जैन परिवार, दो पंजाबी परिवार और एक गुजराती परिवार रहते थे। नीचे सामने की तरफ एक बड़ा कमरा था। जो किताबों गोदाम था। उसका दूसरा  दरवाजा मंदिर वाली गली की ओर खुलता था। नीचे दाई तरफ एक काफी बड़ा बेड़ा था। एक मधुमलाती की बहुत बड़ी बेल थी जो खंबोंके सहारे फैली हुई थी। कई सौ चिड़ियोंका घर भी थी। एक जैन परिवार किराए पर रहता था। तथा बाकी बहुत बड़े इलाके में हमारे मकान मालिक श्याम मोहन जिन्हे लोक  वकील साहब कहते थे। हम उन्हे चाचाजी के नाम से बुलाते थे। मकान के पीछे एक पतली गली थी और काबूलीगेट का स्कूल का पिछला हिस्सा था। एक चोर दरवाजा इसी गली की ओर खुलता था।स्वतन्त्रता सेनानी इसी दरवाजे का उपयोग करते थे। 

काबुलीगेट स्कूल का प्रवेश द्वार नया बाजार की तरफ था। पहले यहां काबुली दरवाजा होता था। जो अठारह सौ सत्तावन की युद्ध मे नष्ट हो गया था। अट्ठारह सौ सत्तावन में इस दरवाजे के बाहर भयंकर युद्ध हुआ था। ब्रिटिश सेना के ब्रिगेडियर निकलसन यहां मारे गए थे। बाद में यहां स्कूल बना। कई किस्से कहानियां और अफ़वाएं इस युद्ध को लेकर लोगों में प्रचलित थी। कहते है,आज भी अमावस की रात घोड़ों के टापोंकी और सैनिकों के चीखने चिल्लाने की आवाज सुनाई देती है। कई लोगों को ब्रिगेडियर निकलसन का कटा दिखाई देने के किस्से भी प्रचलित थे। वैसे यह बात अलग है,  हमारे दोनो कमरोंकी  खिड़कियां भी काबुली गेट स्कूल की तरफ खुलती थी।  रात को बंदरों की उछल कूद की आवाजें आती थी। हमें कभी भी सैनिकों की चीखें सुनाई नहीं दी। ब्रिगेडियर निकलसन नहीं दिखाई दिया। हमारे पिताजी, चाचा और बुआएं भी काबुली गेट स्कूल में पढ़ी थी। हमारे दादाजी  आज से सौ वर्ष पूर्व दिल्ली आए थे। नया बाजार में किराए के मकान में रहते थे।उनका रंग-रसायन का काम था। १९४७ धंधा तबाह हो गया। वे वापस नागपुर चले गए। बाद ने हमारे पिताजी नौकरी के सिलसिले में दिल्ली आए और इसी मकान में किराए पर कमरा लिया। 

क्रमश: भाग दो: सुशीला मोहन और वकील साहब