सन 1980 तक हमारा परिवार इसी मकान में किराए पर रहता था। अपनी उम्र के 20 वर्ष मैंने यही बिताए। पुरानी दिल्ली में मकानों के नंबर होते थे परंतु नंबर के सहारे मकान ढूंढना बहुत ही मुश्किल कार्य था। अधिकांश मकान नाम से अथवा काम से जाने जाते थे। जैसे अचारवालों का मकान इत्यादि। हमारे मकान को भी सुशीला मोहन के मकान के नाम से जाना जाता था। स्वर्गीय सुशीला दीदी एक स्वतंत्रता सेनानी थीl उन्होंने भगत सिंह, दुर्गा भाभी, चंद्रशेखर आजाद इत्यादि स्वतंत्रता सेनानियों के साथ काम किया था।
1756, यह एक आयताकार मकान था। मकान में प्रवेश करते ही शौचालय के दर्शन होते थे। पहले शौचालय नीचे ही होते थे। उसके बाद एक जीना दांई तरफ ऊपर जाता था यहां सामने एक वरांडा और दो कमरे जिनमें हमारा परिवार रहता था। बगल में एक वरांडा और एक कमरे में दीक्षितजी जो दिल्ली के एक प्रसिद्ध अंग्रेजी अखबार के संपादक मंडल में थे। परिवार में वह और उनकी पत्नी जिन्हें हम भाभीजी कहते थे। उनकी कोई खुद की संतान नहीं थी। परंतु एक भतीजा और भतीजी पढ़ने के लिए साथ में रहते थे। उनके वरांडे में सामने की तरफ रसोई घर तथा एक बाथरूम जो दोनों परिवारों के पानी भरने और स्नान के काम आता था। एक जीना ऊपर छत पर जाता था। छत पर एक कमरा था। जहां बनर्जी नाम के एक चित्रकार रहते थे। उन्होंने शादी नहीं की थी। मुझे याद है उनका एक-एक चित्र उस जमाने में भी दस-दस हजार का बिकता था। कभी-कभी उनका एक भाई हालचाल जानने आ जाता था। वह सिगरेट बहुत पीते थे। अकेले में रहना पसंद करते थे। परंतु बंदरों से उनकी अच्छी यारी दोस्ती थी। बंदरों नहीं कभी भी उनकी किसी भी चित्र को नहीं पहुंचाया।
यह तो दाएं भाग में रहने वाले किरायेदारों की बात। आगे एक हैंडपंप था। हैंडपंप का पानी मीठा था। पहले यहां कुआं हुआ करता था। हैंडपंप के बाद एक जीना सीधा ऊपर की मंजिल पर जाता था। ऊपर पहली मंजिल पर एक जैन परिवार, दो पंजाबी परिवार और एक गुजराती परिवार रहते थे। नीचे सामने की तरफ एक बड़ा कमरा था। जो किताबों गोदाम था। उसका दूसरा दरवाजा मंदिर वाली गली की ओर खुलता था। नीचे दाई तरफ एक काफी बड़ा बेड़ा था। एक मधुमलाती की बहुत बड़ी बेल थी जो खंबोंके सहारे फैली हुई थी। कई सौ चिड़ियोंका घर भी थी। एक जैन परिवार किराए पर रहता था। तथा बाकी बहुत बड़े इलाके में हमारे मकान मालिक श्याम मोहन जिन्हे लोक वकील साहब कहते थे। हम उन्हे चाचाजी के नाम से बुलाते थे। मकान के पीछे एक पतली गली थी और काबूलीगेट का स्कूल का पिछला हिस्सा था। एक चोर दरवाजा इसी गली की ओर खुलता था।स्वतन्त्रता सेनानी इसी दरवाजे का उपयोग करते थे।
काबुलीगेट स्कूल का प्रवेश द्वार नया बाजार की तरफ था। पहले यहां काबुली दरवाजा होता था। जो अठारह सौ सत्तावन की युद्ध मे नष्ट हो गया था। अट्ठारह सौ सत्तावन में इस दरवाजे के बाहर भयंकर युद्ध हुआ था। ब्रिटिश सेना के ब्रिगेडियर निकलसन यहां मारे गए थे। बाद में यहां स्कूल बना। कई किस्से कहानियां और अफ़वाएं इस युद्ध को लेकर लोगों में प्रचलित थी। कहते है,आज भी अमावस की रात घोड़ों के टापोंकी और सैनिकों के चीखने चिल्लाने की आवाज सुनाई देती है। कई लोगों को ब्रिगेडियर निकलसन का कटा दिखाई देने के किस्से भी प्रचलित थे। वैसे यह बात अलग है, हमारे दोनो कमरोंकी खिड़कियां भी काबुली गेट स्कूल की तरफ खुलती थी। रात को बंदरों की उछल कूद की आवाजें आती थी। हमें कभी भी सैनिकों की चीखें सुनाई नहीं दी। ब्रिगेडियर निकलसन नहीं दिखाई दिया। हमारे पिताजी, चाचा और बुआएं भी काबुली गेट स्कूल में पढ़ी थी। हमारे दादाजी आज से सौ वर्ष पूर्व दिल्ली आए थे। नया बाजार में किराए के मकान में रहते थे।उनका रंग-रसायन का काम था। १९४७ धंधा तबाह हो गया। वे वापस नागपुर चले गए। बाद ने हमारे पिताजी नौकरी के सिलसिले में दिल्ली आए और इसी मकान में किराए पर कमरा लिया।
क्रमश: भाग दो: सुशीला मोहन और वकील साहब
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