उन दिनों तीस अप्रैल को स्कूलों का परीक्षा परिणाम आता था और पंधरा मई से छुट्टियाँ लगती थी। घरोंमें पंखे नहीं थे। मोहल्ले के सब लोग छत पर ही सोते थे। स्कूल जाते समय बेशक माँ को हमे उठाना पड़ता हो, पर छुट्टियों में हम सुबह पाँच बजे से पहले उठ जाते थे। सैर को जो जाना होता था। दस बारह साल के हम बच्चोंकी टोली, थैली में दूध की बोतलें लेकर मोहल्ले से सुबह पाँच बजे तक निकल पड़ती थी। नई बस्ती से बाहर एक चौक था। एक तरफ फायर स्टेशन जो आज भी है और दूसरी तरफ टीबी हॉस्पिटल। उसके बाजू में डीएमएस का दूध का डिपो था। जिसे शायद चित्रा गांगल नाम की एक मराठी लड़की उसे लड़की चलाती थी। उस समय डीएमएस का दूध लेने के लिए टोकन जरूरी होता था। जो अलुमिनियम बना होता था। जिस पर नाम, पता और दूध की मात्रा लिखी होती थी। दूध के डिपो पर दूध डिलिवरी करने वाली महिलाओंका ही कब्जा था। एक महिला हमारे मोहल्ले में डीएमएस का दूध लेकर घरों तक पहुँचती थी। हम अपनी बोतलें उसे सौंप, देते थे। हमारे परिवार में हम पाँच भाई बहन। मिलकर सात सदस्य थे, फिर भी केवल एक लीटर टोंड दूध घर आता था। जो शायद बहुत कम था। हमारी माँ दूध गरम करते समय दूध में पानी मिला देती थी। ताकि सभी बच्चोंकों कम से कम एक-एक कप दूध पीने को मिल जाए। उसके बाद हमारी टोली आगे निकाल पड़ती थी। नोवेल्टी सिनेमा के सामने रेलवे लाइन के ऊपर बने पुल से चलते हुए हम मोरी गेट पहुँच जाते थे। मोरीगेट से एक गली कश्मीरी गेट की तरफ जाती थी। जिसके एक तरफ दिल्ली की दीवारोंके पुराने अवशेष और दूसरी तरफ क्रिकेट का मैदान और उसके बाद तिकोना पार्क था। आज इस पार्क का बहुत बड़ा हिस्सा मोरी गेट के डीटीसी स्टैंड ने खा लिया है और नाम भी बदलकर महाराजा अग्रसेन पार्क हो गया है। तिकोने पार्क में फूलोंके पौधे बहुत कम थे। इसलिए हम सड़क को पार कर कुदसिया बाग पहुँच जाते थे। यह तरह-तरह के फूलोंसे भरा बहुत बड़ा पार्क था। आज इसका भी काफी बड़ा हिस्सा सड़कों ने लील लिया है। कुदसिया बाग मोगरे के फूलोंकी भी कई बेलें थी। हमारा परिवार महराष्ट्रियन था। घर में एक छोटासा मंदिर भी था। माँ रोज सुबह स्नान करने के बाद पूजा करती थी। पूजा के लिए भी फूल चाहिए होते थे। खेलने के बाद बहुत सारे फूल हम इक्कठा कर लेते थे। माँ को मोगरे की वेणी पहनना भी अच्छा लगता था। गर्मीयोंकि छुट्टियों में उनका यह शौक पूरा हो जाता था। एक पुरानी मस्जिदनुमा इमारत भी बाग थी। जो शायद कुदसिया बेगम ने बनवाई थी या उनकी याद में बनी थी। इस पार्क में घण्टेभर खेलने के बाद हम पुन घर की लौट पड़ते थे। रस्ते में रेलवे पुल पर रुक कर थोड़ी देर रेल के डिब्बोंकी शंटिंग होते हुए देखते थे। इंजन के छोड़ने पर डिब्बे अपने आप सौ मीटर का फासला तय करके दूसरे डिब्बों से जुड़ जाते थे। यह सब देखने में बड़ा मजा आता था।
पुरानी दिल्ली में मुगल शहजादियोंकि आशिक़ी के कई किस्से मशहूर थे। एक जैसे किस्से कई शहजादियोंके नाम पर सुनने के बाद इनपर विश्वास करना कठिन होता था। पर यह किस्से भी पुरानी दिल्ली की आत्मा है। ज़्यादातर किस्सो में बादशाह औरंगजेब को खलनायक के रूप में पेश किया जाता था।
एक ऐसा ही एक किस्सा। कहा जाता है, दूसरों के सामने गर्दन न झुकानी पड़े इसलिए बादशाह शहजादियोंकि शादी नहीं करते थे। पर दिल तो मोहब्बत के आगे मजबूर हो ही जाता है। एक शहजादी को मोहब्बत हो गयी। आशिक उससे रोज मिलने आने लगा। बादशाह को यह बात पता लगी। शहजादी और उसके आशिक को रंगेहाथ पकड़ने के लिए जासूसों से सूचना मिलते ही बादशाह औरंगजेब शहजादी के महल पहुंचा। बादशाह को आते देख शहजादी ने अपने आशिक को पानी भरे एक बड़े देग में छिपा दिया। औरंगजेब को वहाँ कोई गैर मर्द नजर नहीं आया। उसने शहजादी से इस बारे में पूछा तो उसने भी मना कर दिया। औरंगजेब की नजर देग पर पड़ी। वह स्वभाव से ही क्रूरकर्मा था। उसने सिपाहियों कों देग के नीचे लकड़ियाँ जलाने को कहा। उसे लगा जब देग में भरा पानी उबलने लगेगा तब आशिक खुद ही चीखते-चिल्लाते बाहर निकलेगा। पर औरंगजेब को क्या मालूम, सच्चे आशिक मोहब्बत पर हँसते-हँसते कुर्बान हो जाते है। अपनी महबूबा की इज्जत पर आंच न आए, इसलिए उबलते-तड़पते हुए मरते समय भी आशिक के मुंह से आह तक नहीं निकली। औरंगजेब मुंह लटकाकर वहाँ से चला गया। एक अदने से आशिक ने बादशाह को परास्त कर दिया था। यही है मोहब्बत की ताकत।
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