बुधवार, 22 जून 2022

पुरानी दिल्ली के यादें (8) : दंगा कथा : छोटू


हमारा स्कूल पहाड़गंज में था। स्कूल सुबह का था। नई बस्ती, नया बाज़ार के हम 7-8  विद्यार्थी सुबह-सुबह स्कूल जाने के लिए पैदल ही घर से निकल पड़ते थे। कुतुब रोड, सदर बाजार, बारा टूटी और मोतियाखान होते हुए आधा पौना घंटे में स्कूल पहुँच जाते थे। रोज सुबह और दोपहर करीब लगभग चार  किमी पैदल चलने के कारण चप्पल जूतों के दो-तीन महीनों में ही बारा बज जाते थे। मोतियाखान में रास्ते के किनारे एक मोची बैठता था।  वह 10-20 पैसों में  जूते-चप्पल की मरम्मत कर देता था। सुबह उसका बेटा भी काम में हाथ बँटाता था। हम उसे छोटू कहकर पुकारते थे। उसकी उम्र हमारे जितनी ही थी। वह एक सरकारी स्कूल में पढ़ता था। उस समय दिल्ली के सरकारी स्कूलों में दुपहर की शिफ्ट लड़कों की होती थी। सुबह के वक्त चप्पल और जोड़ियों की छोटी-बड़ी मरम्मत वही करता था।

उस समय पुरानी दिल्ली में साल में दो से चार दंगे होते ही थे। ज़्यादातर दंगोंका मकसद व्यापारियों की दुकानों को जलाना और लूटना होता था। ऐसा ही एक दंगा सदर बाजार में हुआ। दंगे के दौरान कपड़ों की कई दुकानों को लूट लिया गया। बहती गंगा में कई गरीबों ने हाथ धो लिए। जिसमे हिन्दू मुसलमान दोनों ही थे। जो विद्यार्थी फटे कपड़ों में स्कूल में आते थे। दंगे के बाद नए कपड़ों में नजर आने लगे। उस साल कई बच्चों ने ईद और दिवाली नए कपड़ों में मनाई। लेकिन हर सिक्के के दो पहलू होते हैं।

दंगे के 15-20 दिन बाद की कहानी। स्कूल से निकलने के बाद हमारी चौकड़ी दोपहर 1 बजे घर जाने लगी। एक दोस्त का जूता सुबह स्कूल आते समय फट गया था। जूते की मरम्मत करने हम उसी मोची की फुटपाथी दुकान में पहुंचे। उस दिन छोटू अपनी स्कूल यूनिफॉर्म में जूते मरम्मत कर रहा था।  मैंने उससे पूछा वह इस समय स्कूल छोड़कर यहाँ क्यों बैठा है?  क्या उसके अब्बू की तबीयत खराब है? छोटू ने कहा, उसने स्कूल छोड़ दिया है। अब वह दुकान में ही बैठेगा। मैंने पूछा, क्यों? उसने   बिना किसी हिचकिचाहट के कहा अब्बू जेल में है।  क्यों ???

 उसने कहा, उस दिन अम्मी ने तड़के ही अब्बू को उठाया, कहा कि  सदर में दुकानों की लूट मची है। मोहल्ले के सभी मर्द वहीं गए हैं। नानके तो चार थान उठाकर भी ले आया है। पहले तो अब्बू ने मना कर दिया।  लेकिन जब पूरा मोहल्ला ही, चाहे हिंदू हो या मुसलमान, दुकानों को लूटने गया था, अब्बू से रहा नहीं गया। अपने बच्चोंके लिए हर साल नए कपड़े खरीदना अब्बू के लिए एक सपना ही था। अब्बू भी भीड़ का हिस्सा बन गए। एक जली हुई दुकान से लोग कपड़ोंके थान सिर पर लाद बाहर निकल रहे थे। अब्बू भी उस दुकान में घुस गया। लालच बुरी बला होती है, अब्बू भी सिर पर 3-4 कपड़े के थान लाद दुकान से जैसेही निकला, तभी शोर हुआ, पुलिस-पुलिस। अब्बू डर गया। बिना सामने देखे भागने लगा, डर के मारे अब्बूका संतुलन बिगड़ गया। वह सड़क पर गिर पड़ा। उसे बुरी तरह चोट लगी। लेकिन पुलिस ने उसे रंगे हाथ पकड़ लिया। हालाँकि मेरी उम्र इतनी भी नहीं थी कि ऐसे हालात में मैं छोटू से क्या कहूँ। फिर भी हिम्मत करके मैंने उससे पूछा, कोई वकील किया है क्या? हां, एक वकील ने किया है, लेकिन उसका कहना है, अब्बू को जेल से छूटने में कम से कम साल तो लग ही जाएगा।  छोटू ने आगे कहा कि अब्बू हमेशा नेकी और ईमानदारी की बात करते थे, पता नहीं कैसे उस दिन अब्बू से गलती हो गई। बोलते समय छोटू का गला भर्रा गया। हम सब चुप हो गए। कुछ भी सूझ नहीं रहा था। घर आकर माँ को यह बात बताई। माँ ने कहा अब तुम बड़े हो रहे हो। एक गलत कदम पूरे घर को बर्बाद कर देता है। सबकी जिंदगी तबाह हो जाती है। सदा याद रखो, भूल कर भी कभी गलत काम मत करना। माँ ने सच ही कहा था, किस्मत की मार छोटू पर पड़ी जिसने कोई गलत काम नहीं किया था। उस छोटी सी उम्र में ही घर की पूरी गाड़ी  चलाने की ज़िम्मेदारी उसके कंधों पर आ गयी थी। दंगाई हमेशा साफ बच निकलते हैं परंतु लालच में आकर आम गरीब आदमी जरूर पुलिस के हत्थे चढ़ जाता है। 

उस साल की ईद और दिवाली ने कई  बच्चोंके घरों में अंधेरा लेकर आई थी। यह भी सच है। 

शनिवार, 18 जून 2022

भ्रांतियाँ : अग्निवीर और रोजगार

अग्निवीर स्कीम को लेकर अनेक भ्रांतियाँ फैलाई जा रही है। पहली यह की इससे रोजगार छिन जाएगा। क्या सचमुच यह सही है। भ्रांति फैलाने वाले कहते हैं की  पहले साल 46000 नियुक्तियाँ अग्निवीर स्कीम के तहत होगी। जिसमें से 25 प्रतिशत अर्थात 11,500 सेना में स्थायी होंगे। बाकी  34,500 सैनिक 25 साल की उम्र में सेना की नौकरी से निवृत होंगे। वे भविष्य में क्या करेंगे। प्रश्न महत्वपूर्ण है।  

अब आइये, यदि अग्निवीर स्कीम नहीं हो तो इन पदों पर कितनी भर्ती होगी। 4 साल बाद स्थायी होने वाले सैनिक 11,500। इसके अलावा अस्थायी 34,500 को भी 4 से भाग देंगे। तो आंकड़ा आयेगा 8625। अर्थात केवल 20125 सैनिकोंकी स्थायी भर्ती होगी। बाकी 25875 को न सेना में नौकरी का अनुभव मिलेगा और उन्हे दूसरी जगह भी नौकरी मिलने की संभावना कम ही रहेगी। 

अब अग्निवीर स्कीम के लाभ: अग्निवीर  सेना की 4 साल की नौकरी के साथ पढ़ाई भी कर सकेगा, डिग्री भी प्राप्त कर सकेगा। उसका स्वास्थ्य भी अच्छा रहेगा। सेना का अनुभव भी उसके पास होगा। पगार भी मिलेगा और उसकी जेब में 11 लाख रुपए भी होंगे। जिससे वह चाहे अपना रोजगार भी शुरू कर सकेगा।  उसके घरवालोंका कुछ भी खर्च नहीं होगा। च कहूँ तो यदि सरकार कहती आपको चार साल आर्मी अनुभव मिलेगा और 25 प्रतिशत को नौकरी मिलेगी तो लाख रुपए साल के देकर भी युवा इस स्कीम में शामिल होने के लिए लालायित रहते। कोचिंग सेंटर तो यही गाजर दिखाकर बेरोजगारोसे लाखो रुपए लूटते है और शायद ही उनके  सबके मिलाकर 1 प्रतिशत विद्यार्थी पास  होते हो। बीस हजार की जगह 46000 को नौकरी मिलने से कोचिंग सेंटर का धंधा चौपट होने का खतरा निश्चित है। उनके विरोध का मुख्य कारण यही है।

अब सवाल है 34,500 निवृत सैनिक क्या करेंगे। सरकारी अर्ध सैनिक बलोंकी सेवा में उन्हे आरक्षण मिलेगा। सुरक्षा से जुड़ी  सरकारी या राज्य सरकार की संस्थाओं हो एक बात तो निश्चित है, सभी को पका पकाया माल मुफ्त में मिल रहा हो तो क्यों नहीं लपकेंगे  सैनिक अनुभव होने के कारण पुलिस, प्रशासन इत्यादि में भी उनको भविष्य में आरक्षण और  आरक्षण न भी हो तो भी नौकरी में वरीयता मिल ही जाएगी। कहने का तात्पर्य जहां केवल 20125 युवाओंको रोजगार मिलता इस स्कीम के बाद निवृत हुए 34500 में से कम से कम 15 से 20 हजार को भी सरकारी संस्थाओंमे नौकरी निश्चित मिल ही जाएगी। बाकी निजी क्षेत्र में भी सेना से निवृत युवाओंकों नौकरी की संभावनाएं अधिक ही रहेंगी। उदा. एक निजी बैंक भी, 25 वर्ष का निवृत सैनिक जिसके पास बीकॉम डिग्री हो, उसे दूसरोंके मुक़ाबले नौकरी में वरीयता देगा ही। सुरक्षा सभी क्षेत्रों की सहज प्रवृति होती है। एक अतिरिक्त योग्यता होने की वजह से अग्निवीरोंका भविष्य उज्ज्वल ही होगा।  

सारांश अग्निवीर स्कीम में शामिल युवाओंकों रोजगार का अधिक अवसर प्रदान करती है। दुर्भाग्य से सरकार इस स्कीम को लागू करने से पहले इसका महत्व युवाओंकों समझाने में  विफल रही है। दूसरी और मीडिया भी युवाओं का  सही मार्गदर्शन नहीं कर रहा है। शायद चटखारे लेते हुए आग में घी डालने से उन्हे ज्यादा टीआरपी मिलती है। बाकी हमारे देश में विरोधी दल हमेशासे ही सत्ता के लिए किसी भी स्तर पर जाते है। सरकारी संपत्ति का नुकसान पहुँचाने में भी चूकते नहीं है। बाकी जो युवा उनके चक्कर में आकर तोडफोड करेंगे उनका भविष्य तो चौपट होना निश्चित है। आज के जानकारी के युग में उन्हे सरकारी छोड़ो, निजी नौकरी भी भविष्य में उन्हे नहीं मिलेगी। 

 

रविवार, 5 जून 2022

पुरानी दिल्ली की यादें (6): जमुना किनारा

सन 1980 में हमने पुरानी दिल्ली छोड़ दी थी। तीस साल बाद मैं यमुना के किनारे खड़ा था। घाटों पर बने अधिकांश मंदिरों पर ताला लगा हुआ था। घाट सुनसान नजर आ रहे थे।  यमुना भी घाटों से दूर चली गई थी। रेत और गंदगी से होते हुए मैं यमुना के तट पर पहुंचा। नाले की तरह दिखने वाले यमुना के काले प्रदूषित पानी से दुर्गंधि आ रही थी। ऐसे पानी में नहाने की बात छोड़िए, पैर गीले करने की भी हिम्मत नहीं हुई। आज यमुना में केवल एक गंदी नाली से ज्यादा नहीं है। ऐसी यमुना के किनारे घूमने कौन आयेगा और कौन स्नान करने का साहस करेगा, ऐसे अनेक विचार मन में उठे। यमुना की यह हालत देखकर आंखों में आंसू आ गए, पुरानी यादें जाग उठीं।

सत्तर और अस्सी का दशक - गर्मी की छुट्टियों में हमारे मोहल्ले के सभी लड़के-लड़कियां, जब बड़े भी साथ हो, सुबह पांच बजे यमुना की सैर करने निकल जाते थे। कुदसिया गार्डन की तरफ से  वर्तमान 'रिंग रोड' को पार करके हम फूल घड़ी वाले पार्क पहुँच जाते थे। यहाँ पर पिट्ठू, लंगड़ी टांग आदि खेल खेलने के बाद, थक जाने पर स्नान के लिए यमुना के घाट पर पहुँच जाते थे। उस समय गर्मीयों में भी यमुना का पात्र काफी चौड़ा होता था। इसलिए बड़ोंकी देखरेख में ही हम स्नान करते थे। पानी में उछलती कूदती मछलियाँ भी दिखती थी। स्नान करने के बाद हम फूल घड़ी के दूसरी तरफ बने बौद्ध मंदिर जाते थे। मंदिर में भगवान बुद्ध मूर्ति के पीछे रंग बिरंगी शीशे लगे हुए थे। वहाँ से उगते सूरज और यमुना जल का अद्भुत रंग बिरंगी नजारा दिखता था। वापसी में  बगीचोंसे फूल इकठ्ठा करते हुए घर लौटते थे। 

मुझे याद है, 1967 में  स्वर्गीय केदारनाथ साहनी दिल्ली के मेयर बने थे। उन्होने यमुना के घाटों का सौंदर्यीकारण का बीड़ा उठाया था। यमुना को खोद कर पानी घाटों तक पहुंचाया। किनारे पर फूल घड़ी और कई पार्क विकसित किए थे। एक पार्क में यमुना की मूर्ति भी थी। उस पार्क में जगह- जगह साउंड सिस्टम भी लगा था। जिसमे दिन भर मधुर संगीत बजता था।  छुट्टी के दिन  लोग परिवार सहित  पिकनिक मनाने उस पार्क में आते थे।  

यमुना के घाट भी दिनभर लोगोंसे गुलजार रहते थे। मंदिरों के घण्टों की आवाज दिनभर गूँजती रहती थी। शाम को लोग यमुना के किनारे टहलने आते और नदी में नाव यात्रा का आनंद लेते। बहुत कम लोग जानते हैं कि शाम के समय यमुना की आरती भी होती थी। हर पुर्णिमा, अमावस और त्योहारों के दिनों में स्नान करने के लिए हजारों लोग यमुना के घाटों पर जुटते थे। साधू-सन्यासी, भिखारी, फूल और प्रसाद बेचने वाले, मिठाई, पूड़ी-सब्जी, कचौड़ी और खिलौने बेचने वालों का भी जमघट बना रहता था। 

उन दिनों यमुना किनारे पर कुछ बड़े कुश्ती के मैदान भी थे। घाटों में तैरना सिखाने वाले कई क्लब थे। उन क्लबों में से एक  'जुगलकिशोर तैराकी संघ' बहुत मशहूर था। उस समय के कुछ प्रसिद्ध तैराक इसी क्लब से निकले थे। कभी-कभी जब मन उदास होता था, तो मैं यमुना किनारे चले आता था। घंटो पानी में पैर डालकर यमुना को निहारता रहता था। मन को बड़ा सकून मिलता था। यमुना मुझे सदा ही जीने की प्रेरणा देती रही है। 

दुर्भाग्य से दिल्ली की यमुना को मानव की बुरी नजर लग गयी। नब्बे के दशक में शहर की तेजी से बढ़ती आबादी और विकास के नाम बाग बगीचोंकी अधिकांश जमीन नए बस अड्डे, बस स्टैंड, चौड़ी सड़कें, फ्लाई ओवर और मेट्रो ने छिन ली। दूसरी तरफ किसानों को और दिल्ली की बढ़ती आबादी को पानी मुहैया  कराने  के लिए यमुना नदी पर कई बांध बने और नहरे निकली गयी। इससे बड़ी मात्रा में नदी का प्रवाह अवरुद्ध हो गया। आज वजीराबाद के बाद यमुना बहुत कम पानी के साथ दिल्ली में प्रवेश करती है। किसी जमाने की दक्षिण-पश्चिम दिल्ली के सिरे पर नजफगढ़ झील से बहने वाली एक बार बरसाती नदी 20-25 किमी की यात्रा करके यमुना तक पहुँचती थी। आज इसे नजफगढ़ नाला कहा जाता है। नजफगढ़ नाला पूरे उत्तर और पश्चिमी दिल्ली से सीवेज और कारखानों से प्रदूषित पानी को नदी में उंडेलता है। कहने की जरूरत नहीं है, आज  दिल्ली में  यमुना का 99% पानी नालों से बहकर आने वाला है। 

उस दिन मैं भारी मन से घर लौटा। कालियानाग की कहानी याद आ गई। कालियानाग यमुना में रहता था। यमुना का पानी जहरीला हो गया था। ग्वालों के गाय-भैंस विषाक्त यमुना जल पीकर मर रहे थे। भगवान कृष्ण ने  कलियानाग को हराकर यमुना से दूर भगा दिया था। तब कृष्ण थे, लेकिन आज कलयुग में यमुना की रक्षा कौन करेगा?  प्रदूषण रूपी जहरीले सांपों को कौन यमुना से भगाएगा ? इसी यक्ष प्रश्न का उत्तर फिलहाल तो किसी के पास नहीं है।  

पुरानी दिल्ली की यादें (7): गर्मी की छुट्टियाँ : पुस्तके पढ़ने की चाहत जगी


शनिवार, 4 जून 2022

पुरानी दिल्ली की यादें (7) : गर्मी की छुट्टियाँ : पुस्तकें पढ़ने की चाहत और दिल्ली पब्लिक लायब्ररी

गर्मी की छुट्टियों में समय बिताना भी एक भारी कार्य होता था। सुबह की सैर से लौटने के बाद नहा धोकर हम खाना खाते थे। उस समय नाश्ते की परंपरा नहीं थी। एक बार अंगीठी सुलगाने और खाना बनाने के बाद, शाम को ही दुबारा अंगीठी सुलगायी जाती थी। पिताजी सुबह खाना खाकर ही दफ्तर जाते थे। जाहीर था, हम भी सुबह खाना खा लेते थे। खाने के बाद क्या करें। एक बड़ी समस्या थी। 15 मई को स्कूलों को छुट्टी लगती थी और सात जुलाई को दुबारा स्कूल खुलते थे। उस समय स्कूलोंमे होमवर्क देने का रिवाज़ भी नहीं था। पढ़ाई भी 7 जुलाई के बाद ही शुरू होती थी। छुट्टियोंमे खेलने कूदने के सिवा दूसरा और कोई काम नहीं होता था। 

उस समय शायद मैं तीसरी कक्षा में पढ़ता था। एक दिन सुबह अपने दोस्तोंके साथ पत्तेवाली गली में खेल रहा था। उसी गली में एक ख्यातनाम वकील स्वर्गीय जनार्दन गुप्ता का दफ्तर था। वह हमारे इलाके के निगम पार्षद भी थे। हम बच्चोंके शोर से शायद उन्हे परेशानी हुई होगी। उन्होने हम बच्चोंकों अपने ऑफिस में बुलाया। हमसे पूछा तुम दिन भर ऐसे ही खेलते रहते हो या कुछ पढ़ते भी हो। जवाब देने में मैं शुरू से ही तेज था। मैंने कहा, स्कूल की छुट्टियाँ है, पढ़ाई का क्या काम। उन्होने मुस्कराते हुए कहा, पढ़ाई के अलावा भी पढ़ने के लिए बहुत कुछ होता है। मैंने पलटकर कहा, पता है हमे, पर कहानियों की पुस्तके खरीदने के लिए पैसा किसके पास है। उन्होने हँसते हुए कहा, अच्छा तुम्हारा दिल्ली पब्लिक लाइब्ररी का कार्ड बना दूँ, तो रोज खेलने की जगह पुस्तके पढ़ने वहाँ जाओगे। चुनौती को स्वीकार करना मेरी आदत थी। मैंने कहा, जरूर जाऊंगा, पर आप बना कर दो हमारी तो वहाँ घुसने की भी हिम्मत नहीं होती। वैसे तो वे नया बाजार और  नई बस्ती के लगभग सभी लोगोंकों जानते थे। फिर भी उन्होने हम सबका नाम और पता पूछा। अगले दिन मुझे दिल्ली पब्लिक लाइब्ररी का कार्ड मिल गया।  

दिल्ली पब्लिक लाइब्ररी पुरानी दिल्ली में रेलवे स्टेशन के सामने है। सबसे पहले जिस चीज ने मुझे आकर्षित किया वह थे, लाइब्रेरी में लगे पंखे और पीने के लिए ठंडे पानी का इंतजाम। घर में गर्मी में झुलसने से अच्छा दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी जाकर ठंडी हवा का आनंद लेना। सुबह लाइब्रेरी खुलते ही लगभग दस बजे में वहाँ पहुँच जाता था। लाइब्रेरी में बच्चोंकी पुस्तकों का अलग से विभाग था। वहाँ पंचतंत्र की कहानियाँ, जातक कथाएँ, पौराणिक कथाएँ, नीति कथाओं और सरल भाषा में शेक्स्पीयर से लेकर प्रेमचंद इत्यादि लेखकोंकी कहानियोंकि किताबें थी।  इसके अलावा  दुनिया भर की लोक कथाओं की पुस्तकें भी बड़ी संख्या में थी। उन्हे पढ़कर मुझे पता चला जैसे भारतीय लोक कथाओं में राक्षस, अप्सराएँ, यक्ष, गंधर्व इत्यादि होते हैं। वैसे ही पश्चिम की लोक कथाओं में जिन्न, एंजल और परियाँ होती है। पुरानी दिल्ली छोड़ने तक में इस पुस्तकालय का सदस्य बना रहा। बाद में नौकरी भी कृषि भवन में लगी, जहां पास के शास्त्री भवन में एक विशाल सरकारी पुस्तकालय था। हर सप्ताह कम से कम चार पुस्तकें तो मैं पढ़ने के लिए घर ले ही जाता था। आज भी कुछ न कुछ रोज ही पढ़ता हूँ। 

टीव्ही, मोबाइल की वजह से आज की पीढ़ी पुस्तकों से दूर हो गयी है।अधिकांश लोग अपने प्रदेशोंकी लोक कथाएँ  भूल गए हैं। कुछ साल पहले प्रगति मैदान में लगे पुस्तक मेले में गया था। वहाँ एक स्टॉल पर भारतीय लोक कथाओं की एक पुस्तक दिखी। पुस्तक हाथ में लेकर पढ़ने लगा। एक लोक कथा में परियोंका जिक्र था। वह कथा मूल रूप से यूरोप के किसी देश की थी। पुस्तक में विदेशी कथाओं कों चुरा कर भारतीय लोक कथा के नाम से परोसा गया था। तभी स्टॉल में खड़े सेल्समैन ने मुझसे कहा, जो पुस्तक आपके हाथ में है, उस का लेखक/ लेखिका यहीं पर है। पुस्तक खरीदने पर आपको उनके दस्तखत भी मिल जाएंगे। उस पुस्तक को पढते समय वस्तुत: मुझे बड़ा गुस्सा आ रहा था। उसके इन शब्दोंसे मेरा गुस्सा फूट पड़ा, मैं बोला लेखक/लेखिका क्या पाठकों को मूर्ख समझती है, भारतीय लोक कथाओं में जिन्न और परियाँ नहीं होती उसे इतना भी नहीं मालूम। चोरी भी कम से कम दिमाग लगाकर करनी चाहिए। कुछ क्षण के लिए वहाँ सन्नाटा छा गया। बाद मे मैंने ही सन्नाटा तोड़ते हुए कहा, क्षमा करना, मुझे ऐसा कहना नहीं चाहिए था और मैं वहाँ से निकल गया। मन ही मन में सोचने लगा चंद रुपयों कि खातिर लोग साहित्य चोरी क्यों करते है। फिर भी उस समय ऐसा करने वालों को भी मेहनत तो करनी ही पड़ती थी। आज तो सोशल मीडिया का जमाना है। तुम्हारा लिखा हुआ कुछ ही मिनिटों में कोई भी अपने नाम से आगे बढ़ा देता है। जब तक तुम्हें पता लगे, दर्जनो लोग उसे उनके नाम से आगे बढ़ा चुके होते हैं। फिर भी सच यही है, स्वर्गीय जनार्दन गुप्ता और दिल्ली पब्लिक लाइब्ररी नहीं होती तो शायद मुझे भी पढ़ने का शौक नहीं लगता। आज जो थोडा बहुत लिख लेता हूँ, उसके बीज भी शायद उसी वक्त पडे हों।

दंगा कथा (8) छोटू



गुरुवार, 2 जून 2022

पुनर्जन्म और गिरगिट

 एक भारतीय नेता जिंदगीभर सत्ता का सुख  भोगकर, मरने के बाद  चित्रगुप्त के दरबार पहुंचा। चित्रगुप्त ने नेता से कहा तुम्हारे कर्मों के हिसाब के अनुसार तुम्हारी इच्छित पशु योनि में अगला जन्म मिलेगा। अब बताओ तुम क्या बनना चाहते हो, शेर, चीता या हाथी। नेता ने कहा, ऐसा है तो प्रभु मुझे गिरगिट के रूप में नया जन्म मिले। चित्रगुप्त ने कहा, तथास्तु। लेकिन एक बात बताओ शेर, चीता और हाथी जैसे बड़े शक्तिशाली जानवर छोड़ तुम गिरगिट ही क्यों बनाना चाहते हो। नेता ने मुस्कराते हुए कहा शेर, चीता और हाथी जैसे बड़े जीव जंगल का राजा बनने के लिए सदा लड़ते रहते हैं। सब कुछ होते हुए भी वे कभी चैन की नींद नहीं सोते। लेकिन जंगल का राजा कोई भी हो गिरगिट को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। जंगल में भी गिरगिट जिंदगी भर मौज करेगा।