शनिवार, 4 जून 2022

पुरानी दिल्ली की यादें (7) : गर्मी की छुट्टियाँ : पुस्तकें पढ़ने की चाहत और दिल्ली पब्लिक लायब्ररी

गर्मी की छुट्टियों में समय बिताना भी एक भारी कार्य होता था। सुबह की सैर से लौटने के बाद नहा धोकर हम खाना खाते थे। उस समय नाश्ते की परंपरा नहीं थी। एक बार अंगीठी सुलगाने और खाना बनाने के बाद, शाम को ही दुबारा अंगीठी सुलगायी जाती थी। पिताजी सुबह खाना खाकर ही दफ्तर जाते थे। जाहीर था, हम भी सुबह खाना खा लेते थे। खाने के बाद क्या करें। एक बड़ी समस्या थी। 15 मई को स्कूलों को छुट्टी लगती थी और सात जुलाई को दुबारा स्कूल खुलते थे। उस समय स्कूलोंमे होमवर्क देने का रिवाज़ भी नहीं था। पढ़ाई भी 7 जुलाई के बाद ही शुरू होती थी। छुट्टियोंमे खेलने कूदने के सिवा दूसरा और कोई काम नहीं होता था। 

उस समय शायद मैं तीसरी कक्षा में पढ़ता था। एक दिन सुबह अपने दोस्तोंके साथ पत्तेवाली गली में खेल रहा था। उसी गली में एक ख्यातनाम वकील स्वर्गीय जनार्दन गुप्ता का दफ्तर था। वह हमारे इलाके के निगम पार्षद भी थे। हम बच्चोंके शोर से शायद उन्हे परेशानी हुई होगी। उन्होने हम बच्चोंकों अपने ऑफिस में बुलाया। हमसे पूछा तुम दिन भर ऐसे ही खेलते रहते हो या कुछ पढ़ते भी हो। जवाब देने में मैं शुरू से ही तेज था। मैंने कहा, स्कूल की छुट्टियाँ है, पढ़ाई का क्या काम। उन्होने मुस्कराते हुए कहा, पढ़ाई के अलावा भी पढ़ने के लिए बहुत कुछ होता है। मैंने पलटकर कहा, पता है हमे, पर कहानियों की पुस्तके खरीदने के लिए पैसा किसके पास है। उन्होने हँसते हुए कहा, अच्छा तुम्हारा दिल्ली पब्लिक लाइब्ररी का कार्ड बना दूँ, तो रोज खेलने की जगह पुस्तके पढ़ने वहाँ जाओगे। चुनौती को स्वीकार करना मेरी आदत थी। मैंने कहा, जरूर जाऊंगा, पर आप बना कर दो हमारी तो वहाँ घुसने की भी हिम्मत नहीं होती। वैसे तो वे नया बाजार और  नई बस्ती के लगभग सभी लोगोंकों जानते थे। फिर भी उन्होने हम सबका नाम और पता पूछा। अगले दिन मुझे दिल्ली पब्लिक लाइब्ररी का कार्ड मिल गया।  

दिल्ली पब्लिक लाइब्ररी पुरानी दिल्ली में रेलवे स्टेशन के सामने है। सबसे पहले जिस चीज ने मुझे आकर्षित किया वह थे, लाइब्रेरी में लगे पंखे और पीने के लिए ठंडे पानी का इंतजाम। घर में गर्मी में झुलसने से अच्छा दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी जाकर ठंडी हवा का आनंद लेना। सुबह लाइब्रेरी खुलते ही लगभग दस बजे में वहाँ पहुँच जाता था। लाइब्रेरी में बच्चोंकी पुस्तकों का अलग से विभाग था। वहाँ पंचतंत्र की कहानियाँ, जातक कथाएँ, पौराणिक कथाएँ, नीति कथाओं और सरल भाषा में शेक्स्पीयर से लेकर प्रेमचंद इत्यादि लेखकोंकी कहानियोंकि किताबें थी।  इसके अलावा  दुनिया भर की लोक कथाओं की पुस्तकें भी बड़ी संख्या में थी। उन्हे पढ़कर मुझे पता चला जैसे भारतीय लोक कथाओं में राक्षस, अप्सराएँ, यक्ष, गंधर्व इत्यादि होते हैं। वैसे ही पश्चिम की लोक कथाओं में जिन्न, एंजल और परियाँ होती है। पुरानी दिल्ली छोड़ने तक में इस पुस्तकालय का सदस्य बना रहा। बाद में नौकरी भी कृषि भवन में लगी, जहां पास के शास्त्री भवन में एक विशाल सरकारी पुस्तकालय था। हर सप्ताह कम से कम चार पुस्तकें तो मैं पढ़ने के लिए घर ले ही जाता था। आज भी कुछ न कुछ रोज ही पढ़ता हूँ। 

टीव्ही, मोबाइल की वजह से आज की पीढ़ी पुस्तकों से दूर हो गयी है।अधिकांश लोग अपने प्रदेशोंकी लोक कथाएँ  भूल गए हैं। कुछ साल पहले प्रगति मैदान में लगे पुस्तक मेले में गया था। वहाँ एक स्टॉल पर भारतीय लोक कथाओं की एक पुस्तक दिखी। पुस्तक हाथ में लेकर पढ़ने लगा। एक लोक कथा में परियोंका जिक्र था। वह कथा मूल रूप से यूरोप के किसी देश की थी। पुस्तक में विदेशी कथाओं कों चुरा कर भारतीय लोक कथा के नाम से परोसा गया था। तभी स्टॉल में खड़े सेल्समैन ने मुझसे कहा, जो पुस्तक आपके हाथ में है, उस का लेखक/ लेखिका यहीं पर है। पुस्तक खरीदने पर आपको उनके दस्तखत भी मिल जाएंगे। उस पुस्तक को पढते समय वस्तुत: मुझे बड़ा गुस्सा आ रहा था। उसके इन शब्दोंसे मेरा गुस्सा फूट पड़ा, मैं बोला लेखक/लेखिका क्या पाठकों को मूर्ख समझती है, भारतीय लोक कथाओं में जिन्न और परियाँ नहीं होती उसे इतना भी नहीं मालूम। चोरी भी कम से कम दिमाग लगाकर करनी चाहिए। कुछ क्षण के लिए वहाँ सन्नाटा छा गया। बाद मे मैंने ही सन्नाटा तोड़ते हुए कहा, क्षमा करना, मुझे ऐसा कहना नहीं चाहिए था और मैं वहाँ से निकल गया। मन ही मन में सोचने लगा चंद रुपयों कि खातिर लोग साहित्य चोरी क्यों करते है। फिर भी उस समय ऐसा करने वालों को भी मेहनत तो करनी ही पड़ती थी। आज तो सोशल मीडिया का जमाना है। तुम्हारा लिखा हुआ कुछ ही मिनिटों में कोई भी अपने नाम से आगे बढ़ा देता है। जब तक तुम्हें पता लगे, दर्जनो लोग उसे उनके नाम से आगे बढ़ा चुके होते हैं। फिर भी सच यही है, स्वर्गीय जनार्दन गुप्ता और दिल्ली पब्लिक लाइब्ररी नहीं होती तो शायद मुझे भी पढ़ने का शौक नहीं लगता। आज जो थोडा बहुत लिख लेता हूँ, उसके बीज भी शायद उसी वक्त पडे हों।

दंगा कथा (8) छोटू



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