रविवार, 5 जून 2022

पुरानी दिल्ली की यादें (6): जमुना किनारा

सन 1980 में हमने पुरानी दिल्ली छोड़ दी थी। तीस साल बाद मैं यमुना के किनारे खड़ा था। घाटों पर बने अधिकांश मंदिरों पर ताला लगा हुआ था। घाट सुनसान नजर आ रहे थे।  यमुना भी घाटों से दूर चली गई थी। रेत और गंदगी से होते हुए मैं यमुना के तट पर पहुंचा। नाले की तरह दिखने वाले यमुना के काले प्रदूषित पानी से दुर्गंधि आ रही थी। ऐसे पानी में नहाने की बात छोड़िए, पैर गीले करने की भी हिम्मत नहीं हुई। आज यमुना में केवल एक गंदी नाली से ज्यादा नहीं है। ऐसी यमुना के किनारे घूमने कौन आयेगा और कौन स्नान करने का साहस करेगा, ऐसे अनेक विचार मन में उठे। यमुना की यह हालत देखकर आंखों में आंसू आ गए, पुरानी यादें जाग उठीं।

सत्तर और अस्सी का दशक - गर्मी की छुट्टियों में हमारे मोहल्ले के सभी लड़के-लड़कियां, जब बड़े भी साथ हो, सुबह पांच बजे यमुना की सैर करने निकल जाते थे। कुदसिया गार्डन की तरफ से  वर्तमान 'रिंग रोड' को पार करके हम फूल घड़ी वाले पार्क पहुँच जाते थे। यहाँ पर पिट्ठू, लंगड़ी टांग आदि खेल खेलने के बाद, थक जाने पर स्नान के लिए यमुना के घाट पर पहुँच जाते थे। उस समय गर्मीयों में भी यमुना का पात्र काफी चौड़ा होता था। इसलिए बड़ोंकी देखरेख में ही हम स्नान करते थे। पानी में उछलती कूदती मछलियाँ भी दिखती थी। स्नान करने के बाद हम फूल घड़ी के दूसरी तरफ बने बौद्ध मंदिर जाते थे। मंदिर में भगवान बुद्ध मूर्ति के पीछे रंग बिरंगी शीशे लगे हुए थे। वहाँ से उगते सूरज और यमुना जल का अद्भुत रंग बिरंगी नजारा दिखता था। वापसी में  बगीचोंसे फूल इकठ्ठा करते हुए घर लौटते थे। 

मुझे याद है, 1967 में  स्वर्गीय केदारनाथ साहनी दिल्ली के मेयर बने थे। उन्होने यमुना के घाटों का सौंदर्यीकारण का बीड़ा उठाया था। यमुना को खोद कर पानी घाटों तक पहुंचाया। किनारे पर फूल घड़ी और कई पार्क विकसित किए थे। एक पार्क में यमुना की मूर्ति भी थी। उस पार्क में जगह- जगह साउंड सिस्टम भी लगा था। जिसमे दिन भर मधुर संगीत बजता था।  छुट्टी के दिन  लोग परिवार सहित  पिकनिक मनाने उस पार्क में आते थे।  

यमुना के घाट भी दिनभर लोगोंसे गुलजार रहते थे। मंदिरों के घण्टों की आवाज दिनभर गूँजती रहती थी। शाम को लोग यमुना के किनारे टहलने आते और नदी में नाव यात्रा का आनंद लेते। बहुत कम लोग जानते हैं कि शाम के समय यमुना की आरती भी होती थी। हर पुर्णिमा, अमावस और त्योहारों के दिनों में स्नान करने के लिए हजारों लोग यमुना के घाटों पर जुटते थे। साधू-सन्यासी, भिखारी, फूल और प्रसाद बेचने वाले, मिठाई, पूड़ी-सब्जी, कचौड़ी और खिलौने बेचने वालों का भी जमघट बना रहता था। 

उन दिनों यमुना किनारे पर कुछ बड़े कुश्ती के मैदान भी थे। घाटों में तैरना सिखाने वाले कई क्लब थे। उन क्लबों में से एक  'जुगलकिशोर तैराकी संघ' बहुत मशहूर था। उस समय के कुछ प्रसिद्ध तैराक इसी क्लब से निकले थे। कभी-कभी जब मन उदास होता था, तो मैं यमुना किनारे चले आता था। घंटो पानी में पैर डालकर यमुना को निहारता रहता था। मन को बड़ा सकून मिलता था। यमुना मुझे सदा ही जीने की प्रेरणा देती रही है। 

दुर्भाग्य से दिल्ली की यमुना को मानव की बुरी नजर लग गयी। नब्बे के दशक में शहर की तेजी से बढ़ती आबादी और विकास के नाम बाग बगीचोंकी अधिकांश जमीन नए बस अड्डे, बस स्टैंड, चौड़ी सड़कें, फ्लाई ओवर और मेट्रो ने छिन ली। दूसरी तरफ किसानों को और दिल्ली की बढ़ती आबादी को पानी मुहैया  कराने  के लिए यमुना नदी पर कई बांध बने और नहरे निकली गयी। इससे बड़ी मात्रा में नदी का प्रवाह अवरुद्ध हो गया। आज वजीराबाद के बाद यमुना बहुत कम पानी के साथ दिल्ली में प्रवेश करती है। किसी जमाने की दक्षिण-पश्चिम दिल्ली के सिरे पर नजफगढ़ झील से बहने वाली एक बार बरसाती नदी 20-25 किमी की यात्रा करके यमुना तक पहुँचती थी। आज इसे नजफगढ़ नाला कहा जाता है। नजफगढ़ नाला पूरे उत्तर और पश्चिमी दिल्ली से सीवेज और कारखानों से प्रदूषित पानी को नदी में उंडेलता है। कहने की जरूरत नहीं है, आज  दिल्ली में  यमुना का 99% पानी नालों से बहकर आने वाला है। 

उस दिन मैं भारी मन से घर लौटा। कालियानाग की कहानी याद आ गई। कालियानाग यमुना में रहता था। यमुना का पानी जहरीला हो गया था। ग्वालों के गाय-भैंस विषाक्त यमुना जल पीकर मर रहे थे। भगवान कृष्ण ने  कलियानाग को हराकर यमुना से दूर भगा दिया था। तब कृष्ण थे, लेकिन आज कलयुग में यमुना की रक्षा कौन करेगा?  प्रदूषण रूपी जहरीले सांपों को कौन यमुना से भगाएगा ? इसी यक्ष प्रश्न का उत्तर फिलहाल तो किसी के पास नहीं है।  

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