बुधवार, 21 दिसंबर 2022

पुरानी दिल्ली की यादें (14): अजादी की लड़ाई के नेता और भ्रष्टाचार के बीज

हमारे पिताजी की उम्र 75 साल से ऊपर हो गयी थी। बुढ़ापे में पुरानी यादें ताजी होने लगती है। उनका दिन का अधिकांश समय  टीवी पर समाचार देखते कटता था। टीवी के समाचारों नेताओंके भ्रष्ट आचरण की चर्चा आम बात है। एक दिन ऐसे ही समाचार देखने के बाद, पिताजीने मुझसे  कहा नेताओंके दिल में भ्रष्टाचार के बीज तो स्वतन्त्रता मिलने से पूर्व ही पड़ चुके थे। अब तो बस वह बीज एक बड़ा वटवृक्ष बन गया है।  उन्होने एक नेता का किस्सा सुनाया। नेताजी खुद को गांधीवादी कहते थे। नेताजी सार्वजनिक मंचों पर सदा सत्य, अहिंसा, ईमानदारी की बातें करते थे।  

आज से लगभग 100 साल पूर्व हमारे दादाजी नौकरी के सिलसिले में दिल्ली आए थे। रंग-रसायन का धंधा करनेवाली एक जर्मन कंपनी में उन्हे नौकरी मिली थी। कंपनी का  कार्यालय तिलक बाज़ार में था। उन्होने नया बाज़ार में किराए का मकान लिया। वह इमारत आज भी है। उस समय  ग्राउंड फ्लोर पर ट्रांसपोर्ट कंपनी का कार्यालय था। पहिले माले पर दादाजी परिवार सहित रहते थे। द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने पर जर्मन कंपनी देश से बाहर चली गयी। दादाजीने खुद का धंधा शुरू किया और कोई दूसरा चारा भी नहीं था। उन्हे ज़्यादातर कस्टमर जर्मन कंपनी से विरासत में मिल गए थे।   पहिले माले पर  घर के सामने बड़ासा आँगन जिसके एक तरफ दो छोटे कमरे और एक बाथरूम भी था जिसका स्नान इत्यादि के लिए उपयोग होता था।  इन कमरो में काम के सिलसिले में आने वाले व्यापारी इत्यादि रुकते थे। उस समय के रिवाज के अनुसार बाहर से आने वाले ज़्यादातर व्यापारी, दिल्ली के व्यापारियों के घरोंमे ही रुकते थे। दादाजी का ज़्यादातर धंधा आज के पंजाब और पाकिस्तान के व्यापारियोंके साथ था। जो अधिकांश मुस्लिम समाज से ही होते थे। वैसे भी आज भी रंगाई के धंधे में मुस्लिम समाज ही ज्यादा है। घर में एक मुस्लिम नौकर था। जो घर के छोटे-मोटे काम जैसे किराना, सब्जी लाना, हमारे पिताजी, चाचाओं इत्यादि को सड़कपार काबुली गेट स्कूल तक छोड़ने जाना और लाना, घर के बच्चोंकों बगीचे, मेले में घूमने ले जाना इत्यादि। बाहर से आए व्यापारियों को खाना देना भी उसका काम था। व्यापारी खाना बाहर के कमरो में ही खाते थे। हमारी दादी पंजाबी खाना भी बढ़िया बनाती थी। पंजाबी खाने के तरीका अर्थात एक बड़े थाल में बड़ी-बड़ी कटोरियों में सब्जी और दाल पहले ही परोस दी जाती थी और गरमा-गरम ताजी रोटियां रसोई से लाकर परोसी जाती थी। बाजार के अधिकांश व्यापारी हमारे दादाजी को बापूजी के नाम से पुकारते थे। बाद में घर में सभी बापूजी के नाम से ही पुकारने लगे थे। 

स्वतन्त्रता से पूर्व देश के सभी भागों से काँग्रेस के नेता राजनीतिक कामकाज के लिए भी दिल्ली आते थे। जाहीर है कई नेता अपने समुदाय के लोगों के घर में ठहरना पसंद करते थे। एक मराठी नेता हमेशा हमारे घर आकर ठहरते थे। कॉंग्रेस हमेशा हिन्दू मुसलमान की एकता की बात करती हो, परंतु यह नेता छुआछूत मानने वाला था। नेताजी किसी मुस्लिम के हाथ का खाना तो दूर पानी भी नहीं पीते थे। हमारी दादी को उनके लिए अलग से खाना बनाना पड़ता था। उस काल के लोगोंकी सोच के हिसाब से उनका यह व्यवहार सामान्य ही था। हमारे दादाजी के मन में उनके लिए बहुत इज्जत थी। हमारे दादाजी उनके दिल्ली आने पर उनके आने-जाने का रेल का किराया और दिल्ली में घूमने का इन्तजाम करते थे। इसी तरह दादाजी को देश की आजादी के लिए थोड़ा सा योगदान देने की तसल्ली मिल जाती थी। देश को आजादी मिली। परंतु समय का चक्र कभी एक जैसा नहीं रहता। देश विभाजन का नतीजा हमारे दादाजी को भी भुगतना पड़ा। उनका धंधा चौपट हो गया। सर पर भारी कर्ज भी हो गया। ऐसी हालत में भी हमेशा की तरह वह नेता हमारे घर आकार ठहरा।  उस दिन दादाजी ने हमारे पिताजी को नेता के वापसी  का तिकीट निकालने रेलवे स्टेशन भेजा था। पर उन्होने सोचा ऐसे ज्यादा दिन नहीं चल सकता। वह अपने परिचित दिल्ली के एक कांग्रेसी नेता जिनका नाम शायद गुप्ता था मिलने गए। दादाजी ने उन्हे कहा, अब उनकी  आर्थिक हालत खस्ता है। ऐसे में दिल्ली आने वाले कांग्रेसी नेता का खर्चा उठाना उनके बस में नहीं है। आज भी दूसरों से पैसा उधार  लेकर नेता का वापसी का तिकीट निकाला है। अब तो देश आजाद हो चुका है। कांग्रेस पार्टी को अपने नेताओंके आने जाने का खर्च उठाना चाहिए। दादाजी  की  बात सुन गुप्ताजी हैरान रह गए। उन्होने कहा बापूजी, कांग्रेस पार्टी तो शुरू से ही बाहर से आने वाले नेताओंका खर्च उठाती रही है। उनके आने जाने का किराया और रहने का खर्च देती रही है।मेरी बातों पर विश्वास न हो तो मेरे साथ पार्टी कार्यालय चलो आपको भुगतान की रसीदे दिखा सकता हूँ। गुप्ताजी की बात सुन दादाजी स्तब्ध रह गए। गुप्ताजीने दादाजी को तसल्ली देते हुए कहा, बापूजी आप बहुत सीधे आदमी हो, वह नेता आपके सीधेपन का फायदा उठा रहा है। दुर्भाग्य से पार्टी ऐसे नेताओंसे भरी पड़ी है। गुप्ताजीने बापूजी को ऐसे भ्रष्ट नेताओंके कई किस्से सुनाये। गुप्ताजी के बातें सुन दादाजी को बड़ा सदमा पहुंचा, जिसे वह एक आदर्श नेता समझते थे, वह तो खोटा निकला। उस दिन दादाजी ने खाना नहीं खाया। शाम को जब वह नेता घर आए तो दादाजी ने उन्हे हाथ जोड़कर कहा। अब हमारी आर्थिक स्थिति खराब है, आगे से आपका घर में स्वागत नहीं कर पाएंगे। इस घटना के कई सालों बाद दादाजी ने यह किस्सा पिताजी को बताया था। पिताजी ने यह बात उनके बुढ़ापे में मुझे बताई। मैंने पिताजी से कई बार उस नेता का नाम पूछा परंतु गड़े मुर्दे उखाड़कर किसी गुजर चुके इंसान को बदनाम करना उचित नहीं होगा यह कहते हुए पिताजी ने उस नेता का नाम मुझे कभी नहीं बताया। किस्सा सुनाते समय भी नेता की प्रतिष्ठा का खयाल उन्होने रखा। उस नेता के कई कार्योंकी तारीफ भी की थी।    

स्वतन्त्रता मिलने के पूर्व ब्रिटिश शासन के अधीन 1937 में हुए चुनावों में  देश के कई राज्यों में कांग्रेस सत्ता का स्वाद चख चुकी थी। अंग्रेज़ जाने के बाद सत्ता की डोर कांग्रेस के पास ही आएगी ऐसा सोचकर अनेक मौका परस्त भ्रष्ट नेता कांग्रेस से जुड़ गए थे। उसी का परिणाम हमारे देश आज भुगत रहा है। अब तो हालत यह है की चाहे किसी दल का नेता भ्रष्टाचार कर जेलकी सजा काट आए, या नेता जेल में हो तब भी जनता उस दल को वोट देती है। नेताओंका भ्रष्ट आचरण अब कोई मुद्दा ही नहीं है। 

सोमवार, 14 नवंबर 2022

पुरानी दिल्ली की यादें (13): कंपनी बाग की यादें



शायद आज आप गूगल मैप पर पुरानी दिल्ली के कंपनी बाग को न देख पाएँ। क्योंकि अब उसका अस्तित्व ही नहीं बचा है। परंतु यह ब्रिटिश कालीन बहुत बड़ा बगीचा था। फतेहपुरी से पुरानी दिल्ली स्टेशन की तरफ जाने वाली  सड़क और चांदनी चौक स्थित टाउन हॉल से पुरानी दिल्ली जाने वाली सड़क के बीच में था। कंपनी बाग मुख्य तौर पर दो हिस्सों में बंटा था। कंपनी बाग के मध्ये से गुजारने वाली एक रास्ता बग़ीचे को दो हिस्सों में बांटता था। बाग दीवार  की तरफ से एक खुला मैदान फतेहपुरी से टाउन हॉल की सड़क तक था।  दूसरी तरफ छोटे-छोटे बगीचे नेशनल क्लब तक फैले हुए थे। जहां तक मुझे याद है, बगीचे के खुले मैदान में शाम के समय आरएसएस के दो-तीन शाखाएं लगती थी और कुछ लड़के फुटबॉल खेलते थे।मैंने फुटबाल खेलनेवालों, जिसमे ज़्यादातर बंगाली और मुस्लिम लड़के होते थे, आरआरएस की शाखावालोंके के साथ कभी झगड़ा होते नहीं देखा। गर्मियोंके दिनों में यहाँ आकार ठंडक का अहसास होता था। शाम के समय अंधेरा होने पर भी इतनी रोशनी रहती थी कि सब कुछ दिखाई देता था।इसलिए अधिकांश लोग परिवार के साथ शाम के समय यहाँ समय बिताने के लिए आते थे। जब परिवार साथ हो तो खाना-पीना भी होगा ही। पानी-पूरी, चाट, दहीभल्ले, कुल्फी बेचने वालोंकी काफी कमाई हो जाती थी। उस समय प्लास्टिक नहीं था, पत्तों के बने दोनो-पत्तल में ही सभी खाने की वस्तुएँ मिलती थी। प्लास्टिक और कागज का इस्तेमाल न होने से बगीचे में गंदगी भी नहीं होती थी। हमारे मोहल्ले के बच्चे भी अक्सर शाम को ही खेलने कंपनी बाग आते थे। छोटे-छोटे बगीचों के चारों तरफ मेहंदी की झाड़ियों की बाड़ और फूलोंको क्यारियां भी होती थी इसलिए छुपन -छुपाई खेलने में बड़ा मजा आता था। ज़्यादातर हम बच्चे  लंगड़ी टांग, रुमाल उठाने का खेल आदि खेलते थे। कंपनी बाग में देर रात तक यहाँ रौनक लगी रहती थी। परंतु बढ़ती इंसानी जरूरतोंकी नजर इस सुंदर बगीचे को लग ही गई। 
 
1980 में जब पुरानी दिल्ली छोड़ दी थी। लगभगा 42 साल बाद तीन महीने पूर्व पुरानी दिल्ली के खोये बगीचों को देखने निकला था। तब कंपनी बाग के अवशेष देख आँख में आँसू भर आए थे। फतेहपुरी और बाग दीवार की तरफ के बगीचे के हिस्से पर एक मार्केट बन गई है। फतेहपुरी के सामने के बगीचे के आधे से ज्यादा हिस्से पर कार पार्क बन चुकी है। अब एक  गोलाकार छोटासा बगीचा बचा है जिसका प्रवेशद्वार बाग दीवार की तरफ से है। बगीचे में पुरानी दिल्ली की स्वतन्त्रता सेनानी सुशीला मोहन की एक मूर्ति लगी है। देर आए दुरुस्त आए आखिरकार  पुरानी दिल्ली ने अपने शहर के स्वतन्त्रता सेनानी का कुछ तो सम्मान किया। इस छोटे गोलाकार पार्क का नाम भी सुशीला मोहन के नाम पर रख दिया है। इस मूर्ति के साथ सेलफ़ी लेते हुए इस नए बगीचे का अस्तित्व बना रहे ऐसी ईश्वर से प्रार्थना की और बगीचे से विदा ली।

सोमवार, 12 सितंबर 2022

पुरानी दिल्ली की यादें (12): खोये बाग बगीचोंकी यादें -गांधी मैदान

कुछ दिन पहले मन में ख़्याल आया जाकर देखते हैं, पुरानी दिल्ली में इतना सार्वजनिक निर्माण हो रहा है, क्या कुछ बाग बगीचे मैदान बचे हैं की नहीं। मेट्रो का तिकीट लेकर चाँदनी चौक स्टेशन उतर गया। स्टेशन से बाहर निकाला तो देखा एक ऊंची इमारत का निर्माण चल रहा था। शायद इसी जगह गांधी मैदान था। गांधी मैदान की पुरानी तस्वीर आंखोंके सामने आ गई। गांधी मैदान फव्वारे से हरदयाल लाइब्रेरी तक फैला हुआ था। रामलीला मैदान की तरह ही एक स्टेज यहाँ बना हुआ था। उस समय जनता राजनेताओं के भाषण बड़े चाव से सुनती थी। आंखोंके सामने वही पुराना नजारा छा गया। मुझे पुरानी दिल्ली के शहर के ही उपनाम वाले एक छुटभैये राजनेता की याद आ गई। भाषण चाहे वह गांधी मैदान में दे रहे हो, या खारी बाउली के चौक पर। उनका भाषण हमेशा एक सा ही होता था। उनके कुछ जुमले तो मुझे याद हो गए थे "हिन्दू का खून और मुसलमान का खून लाल ही होता है। हमें इस चुनाव में फ़ूट डालने वाली ताकतों को सबक सीखना है।" वैसे उन्होने जनसंघ, जनता पार्टी से कॉंग्रेस पार्टी तक सभी का चुनाव प्रचार किया था। मुझे याद एक दिन इलाके के कुछ बच्चोने उन्हे चिढ़ाते हुए पूछा, चचाजान, हिन्दू और मुसलमान का खून लाल होता है, यह बात तो हमारे समझ में आ गई, लेकिन आपके खून का रंग कौनसा है। वे उन्हे डंडा  लेकर मारने को दौड़े। मेरे हिसाब से शायद वह देश के पहले प्रोफेशनल चुनाव प्रचारक थे। गांधी मैदान की रामलीला भी बड़ी प्रसिध्द थी। मैदान के बीच में बना घूमता हुआ स्टेज इस रामलीला की खासियत थी। दूर-दूर से लोग गांधी मैदान की रामलीला देखने आते थे। रामलीला के बाद इस मैदान पर अक्सर दिवाली मेला या नए साल पर मेला लगता था। उन दिनों मेलोमें झूले, मौत का कुआं इत्यादि के अलावा सरकारी जादूगर खेल दिखते हुए तांत्रिकोंकी पोल खोलते थे। समाज प्रबोधन के कार्यक्रम भी होते थे। उन दिनों लोग पुस्तके खरीदकर पढ़ते थे। हिन्द पॉकेट बुक्स, देहाती पुस्तक भंडार की अँग्रेजी सिखानेकी पुस्तकें और गीता प्रेस के स्टॉल हर मेले में दिखाई देते थे। मेलों मे बच्चों की किताबोंके स्टॉल भी होते थे, जहां चन्दामामा, अमर चित्रकथा, भूतनाथ, चाचा चौधरी इत्यादि कॉमिक लोग अपने बच्चों के लिए बड़े चाव से खरीदते थे। आज के मेलों में पुस्तकें दिखाई नहीं देती। शायद आज के बच्चोंपर स्कूली किताबों का इतना बोछ है की वह चाह कर भी दूसरी पुस्तकें पढ़ नहीं सकते। हर साल  एक या दो महीने सर्कस भी इसी मैदान में आती थी। बाकी समय भी मैदान में रौनक लगी ही रहती थी। बंदर का खेल, साँप नेवले की लड़ाई और भालू का नाच दिखाकर लोगोंसे पैसा मांगने वाले मदारी भी दिनभर नजर आते थे। अब मैदान की जगह इमारत ने लेली है। गांधी मैदान अब इतिहास की गर्त में खो गया है। 

क्रमश: 

सोमवार, 5 सितंबर 2022

पुरानी दिल्ली की यादें (11): मराठी लोगोंके के बसने उजड़ने की यादें

वैसे तो दिल्ली का मराठी लोगों से पेशवा के जमाने से है। परंतु वे दिल्ली में बसने के लिए नहीं आए थे। आज से सौ साल से कुछ पहले पहले रेलवे का एक दफ्तर मुंबई से दिल्ली स्थानांतरित हुआ और उसके साथ ही कई मराठी परिवार भी दिल्ली आ गए। उनमें से पच्चीस तीस परिवार पुरानी दिल्ली के नया बाजार, नई बस्ती इलाके में किराए के मकानों में आकर रहने लगे। इसके अलावा फिल्म उद्योग से जुड़े कुछ परिवार भी दिल्ली आकार रहने लगे थे। शुरू के कुछ सिनेमा हाल जैसे नोवेल्टी, न्यू अमर, एक्ससेलसियर, वेस्टेंड इत्यादि (बाकी नाम में भूल चुका हूँ)  मराठी लोगों के थे।  हमारे दादाजी भी  जर्मन कंपनी में नौकरी के सिलसिले में दिल्ली आए और नया बाजार में किराए के मकान में रहने लगे। वे स्वतन्त्रता आंदोलन के दिन थे। इस सिलसिले में मराठी लोगोंका दिल्ली आना होता था। जाहीर है उन्हे ठहरने के लिए स्थान की जरूरत थी जहां अपनापन मिल सके। नया बाजार में एक इमारत के प्रथम और द्वितीय तल किराए पर लेकर सन 1919 में महाराष्ट्र स्नेह संवर्धक समाज की स्थापना हुई। जहां नाममात्र किराया देकर महाराष्ट्र से आने वाले लोग ठहर सकते थे। इसी के अलावा परिवारों में बच्चे बड़े होने लगे थे। तब हमारे दादाजी ने समाज के लोगों के साथ  मिलकर इसी जगह नूतन मराठी विद्यालय की स्थापना की जहां मराठी भाषा के साथ पाँचवी कक्षा तक की पढ़ाई की व्यवस्था की गई। हमारे पिताजी, चाचा, बुआएँ सभी पाँचवी तक समाज में स्थित स्कूल में पढ़ी थी। स्वतन्त्रता मिलने के बाद काका साहब गाड़गिल के प्रयास से स्कूल पहाडगंज शिफ्ट हो गया तथा बृहन महाराष्ट्र भवन का निर्माण भी पहाडगंज में हुआ जहां 50 से ज्यादा लोगों के ठहरने की व्यवस्था की गई थी। आज भी महाराष्ट्र से आकर लोग यहाँ ठहरते  हैं। यह तो हुई इतिहास की बात। 

अब हमारे परिवार की बात। विश्व युद्ध शुरू हुआ और जर्मन कंपनियों को देश निकाला दे दिया। हमारे दादाजी ने तब केमिकल मार्केट में हाथ आजमाया। सब कुछ अच्छा चलता रहा। दादाजी का अधिकांश काम पंजाब में था। 1947 के  विभाजन और दंगों की वजह से उनको भारी नुकसान हुआ।  उनका दिल्ली से मोह भंग हो गया और वह परिवार के साथ नागपुर वापस चले गए। परंतु विधाता को कुछ और ही मंजूर था। हमारे पिताजी नौकरी के सिलसिले में वापस दिल्ली आ गए और नई बस्ती में काबुली गेट स्कूल के पीछे स्वर्गीय स्वतन्त्रता सेनानी सुशीला मोहन के मकान में उन्होने दो कमरे  किराए पर लिए। पुरानी दिल्ली में मराठी परिवार कम थे,परंतु उस जमाने में सभी की चार-पाँच बच्चे तो होते ही थे। हम सभी मराठी बच्चे पहाडगंज स्थित नूतन मराठी स्कूल में ही पढ़ते थे। साथ-साथ पैदल चलते हुए पहाडगंज तक जाते थे और साथ-साथ ही पैदल वापस घर आते थे। इसी वजह से सभी में अच्छी दोस्ती थी। महाराष्ट्र समाज के प्रथम तल तो हमेशा आने वाले मेहमानो से भरा रहता था। पर ऊपर का हाल अक्सर खाली ही रहता था। इसी हाल में एक मराठी पुस्तकालय, एक टेबल टेनिस का टेबल और कैरम बोर्ड  भी। उस जमाने में होमवर्क इत्यादि का ज्यादा बोझ नहीं होता था। जाहीर था, हम सभी  बच्चोंका  रविवार का दिन समाज में ही खेलते हुए गुजरता था।  समाज  दोनों खेलों की प्रतियोगिताएं भी करता था, जिसमें  सभी भाग ले सकते थे। इन्ही प्रतियोगिताओंकी वजह से दोनों ही खेलोंमे कई राज्य स्तरीय खिलाड़ी निकले। उस जमाने में सभी त्योहार समाज में ही मनाए जाते थे। विशेषकर श्रीगणेश उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जाता था। गणपती विसर्जन का जलूस  शाम को चार  बजे नया बाजार से  शुरू होकर  चाँदनी चौक, कौड़ियापुल, जमुना बाज़ार होते हुए जमुना घाट रात आठ बजे पहुंचता था। मराठी भजन, लेझिम के साथ परेड, ढ़ोल-ताशे के साथ बढ्ने वाली गणेशजी की सवारी का दर्शन हजारो लोग करते थे। लोग जगह जगह गणेशजी को माला पहनकर उनका स्वागत भी करते थे। 

परंतु समय कभी एकसा नहीं रहता। किराए पर रहने वाले मराठी लोग अब दिल्ली में एक तरह से स्थायी हो गए थे। उनके बच्चों को भी दिल्ली में नौकरियाँ मिलने लगी थी। अपने मकान का सपना भी उनके मन में पलने लगा था। दिल्ली में डीडीए की घरोंकी योजनाएं निकली, हाउसिंग सोसाइटियाँ बनने लगी। 1977 के बाद परिवार पुरानी दिल्ली के बाहर अपने खुद के डीडीए फ़्लेटों में शिफ्ट होने लगे। लगभग दस साल में सभी पुरानी दिल्ली छोड़ कर चले गए। दिल्ली के बढ़ते ट्रेफिक की वजह से महाराष्ट्र से आने वाले मेहमान भी अब समाज में रुकने से कतराने लगे थे। शायद इसी मजबूरी से किराए की जगह चलने वाला महाराष्ट्र समाज भी पहाड़गंज के बृहन महाराष्ट्र समाज की इमारत में शिफ्ट हो गया। जहां समाज की सौंवी जयंती 2019 में मनाई गयी। 

अब बात हमारे परिवार की। मुंबई में होने वाली हड्तालों का प्रभाव हमारे पिताजी की नौकरी पर भी पड़ा। पगार अनियमित और कम मिलने लगा। किराया देना भी मुश्किल हुआ। मकान मालिक ने मौके का फायदा उठाया। शायद पाँच या छह हजार रुपए देकर 1980 में मकान खाली करा लिया। यह रकम हरीनगर में लिए छोटेसे के फ्लेट के एक साल के किराए के लिए काफी थी।  शायद पिताजी ने उस समय सोचा हो, बच्चे बड़े हो गए है। दो- चार साल में पैरों पर खड़े हो जाएंगे। हरी नगर आते ही हमारा भाग्योदय  हुआ। यहाँ डीडीए के फ्लेटों में ज़्यादातर सरकारी बाबू रहते थे। उनके बच्चे भी सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहे थे और हम भी इसी भेड़चाल में शामिल होकर सरकारी बाबू बन गए। 

केवल सत्तर साल के भीतर पुरानी दिल्ली से मराठी समाज उजड़ गया। नौकरीपेशा वाला समाज अपनी जड़ों से अलग हो चुका होता है। नौकरी के लिए इधर उधर भटकना ही उसकी नियति होती है। वह कहीं स्थायी टिक नहीं सकता। 

सोमवार, 8 अगस्त 2022

जानिए आर्य शब्द का अर्थ अपने ग्रन्थों से


मैकाले  शिक्षा के माध्यम से हमें पढ़ाया गया आर्य विदेशी थे। भारत के मूल निवासियों पर सदा विदेशियों ने राज किया है। इस सब का आधार क्या, यह हमें कभी बताया नहीं गया।  इसका मुख्य उद्देश्य फूट डालो राज करो की नीति से सदा के लिए ब्रिटिश  शासन भारत पर थोपना था।  आजादी के बाद भी समाज में फूट डाल राज करने के लिए इस झूठ को और बढ़ावा दिया। आर्य, द्रविड़, मूल निवासी भांति-भांति के कृत्रिम भेद समाज में फैलाये गए।    

आर्य शब्द का अर्थ क्या है, यह जानने के लिए गूगल की सहायता ली।  मैंने जाना सभी भारतीय धर्म ग्रंथोंमे  पढे लिखे सत्य और धर्म मार्ग पर चलाने वाले सभ्य व्यक्ति को ही आर्य कहा है।  किसी जाती या क्षेत्र के लोगोंके लिए नहीं। उसी का सार: 

मनुस्मृति में कहा है,

मद्य मांसा पराधेषु गाम्या पौराः न लिप्तकाः।
आर्या ते च निमद्यन्ते सदार्यावर्त्त वासिनः।

वे ग्राम व नगरवासी, जो मद्य, मांस और अपराधों में लिप्त न हों तथा सदा से आर्यावर्त्त के निवासी हैं, वे ‘आर्य’ कहे जाते हैं।

वाल्मीकि रामायण में कहा है,

सर्वदा मिगतः सदिशः समुद्र इव सिन्धुभिः।
आर्य सर्व समश्चैव व सदैवः प्रिय दर्शनः। (बालकांड)
 
जिस तरह नदियाँ समुद्र के पास जाती है, उसी तरह जो सज्जनों के लिए 
सुलभ है, वे ‘आर्य’ हैं, जो सब पर समदृष्टि रखते हैं, हमेशा प्रसन्नचित्त रहते हैं।

महाभारत में कहा है,

न वैर मुद्दीपयति प्रशान्त,न दर्पयासे हति नास्तिमेति।
न दुगेतोपीति करोव्य कार्य,तमार्य शीलं परमाहुरार्या।(उद्योग पर्व)

जो अकारण किसी से वैर नहीं करते तथा गरीब होने पर भी कुकर्म नहीं करते उन शील पुरुषों को ‘आर्य’ कहते हैं।

वशिष्ठ स्मृति में कहा है ,

कर्त्तव्यमाचरन काम कर्त्तव्यमाचरन।
तिष्ठति प्रकृताचारे यः स आर्य स्मृतः।
 
जो करने योग्य उत्तम कर्म को करता है और न करने योग्य दुष्टकर्म को नहीं करता है और जो श्रेष्ठ आचरण मेन स्थिर रहता है, वही आर्य है। 

 
गीता में कहा है ,
अनार्य जुष्टम स्वर्गम् कीर्ति करमर्जुन।
(अध्याय २ श्लोक २)

हे अर्जुन ! तुझे इस असमय में यह अनार्यों का सा मोह किस हेतु प्राप्त हुआ क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है और न स्वर्ग को देने वाला है तथा न कीर्ति की और ही ले जाने वाला है | (यहां पर अर्जुन के अनार्यता के लक्षण दर्शाये हैं)


चाणक्य नीति में कहा है,

अभ्यासाद धार्यते विद्या कुले शीलेन धार्यते।
गुणेन जायते त्वार्य,कोपो नेत्रेण गम्यते।
(अध्याय ५ श्लोक ८)
सतत् अभ्यास से विद्या प्राप्त की जाती है, कुल-उत्तम गुण, कर्म, स्वभाव से स्थिर होता है, आर्य-श्रेष्ठ मनुष्य गुणों के द्वारा जाना जाता है

नीतिकार के शब्दों में,
प्रायः कन्दुकपातेनोत्पतत्यार्यः पतन्नपि।
तथा त्वनार्ष पतति मृत्पिण्ड पतनं यथा।

आर्य पाप से च्युत होने पर भी गेन्द के गिरने के समान शीघ्र ऊपर उठ जाता है, अर्थात् पतन से अपने आपको बचा लेता है, अनार्य पतित होता है,
तो मिट्टी के ढेले के गिरने के समान फिर कभी नहीं उठता।

अमरकोष में कहा है,
महाकुलीनार्य सभ्य सज्जन साधवः।
(अध्याय२ श्लोक६ भाग३)

जो आकृति, प्रकृति, सभ्यता, शिष्टता, धर्म, कर्म, विज्ञान, आचार, विचार तथा स्वभाव में सर्वश्रेष्ठ हो, उसे ‘आर्य’ कहते हैं ।


बौद्धों के धम्म पद में कहा है,

अरियत्पेवेदिते धम्मे सदा रमति पण्डितो।

पण्डित जन सदा आर्यों के बतलाये धर्म में ही रमण करता है।


पाणिनि सूत्र में कहा है ,
आर्यो ब्राह्मण कुमारयोः।

ब्राह्मणों में ‘आर्य’ ही श्रेष्ठ है। इसका अर्थ है जो ब्राह्मण धर्म  मार्ग  पर नहीं चलता वह आर्य नहीं है
 
हमारा कम पढ़ा लिखा पंडित भी पूजा पाठ के समय हमसे निम्न शब्दोंके साथ संकल्प कारवाता है। 

जम्बू दीपे भरतखण्डे आर्यावर्ते अमुक देशान्तर्गते ....
 
 और अंत में पं. प्रकाशचन्द कविरत्न के शब्दों में,

आर्य बाहर से आये नहीं,
देश है इनका भारतवर्ष।
विदेशों में भी बसे सगर्व,
किया था परम प्राप्त उत्कर्ष।
आर्य और द्रविड जाति हैं,
भिन्नचलें यह विदेशियों की चाल।
खेद है कुछ भारतीय भी,
व्यर्थ बजाते विदेशियों सम गाल।

आज भी सत्ता के लिए तथाकथित मूल  निवासी राजनीति हो रही है। देश में भ्रम  फैलाया जा रहा है। हमें ऐसे लोगोंसे सावधान रहना चाहिए। देश के सभी जाती और धर्म के निवासी जो सत्य मार्ग पर चलते  हैं आर्य ही है। 

बुधवार, 3 अगस्त 2022

पुरानी दिल्ली की यादें (10): गली की धर्मशाला और भगवती जागरण


कुएंवाली गली जहां नई बस्ती की बड़ी गली से मिलती थी। उसी जगह एक  धर्मशाला थी। शायद आज भी होती ऐसी आशा है। धर्मशाला काफी बड़ी थी। धर्मशाला में सामने एक बड़ा सा वरांडा और एक बड़ा हाल  था । ऊपरी मंजिल पर भी कुछ कमरे और एक हाल था। जहां शादी ब्याह की दावतें होती थी। उस समय ज़्यादातर शादियोंमे देसी घी में बने व्यंजन ही होते थे। धर्मशाला का उपयोग इलैक्शन के समय पोलिंग बूथ के रूप में भी होता था। इसी धर्मशाला में समय-समय पर भागवत कथाएँ और भगवती जागरण होते थे। माँ अपने साथ मुझे भी अक्सर कथा सुनने ले जाया करती थी। कथाकार अक्सर सन्यासी अथवा बुजुर्ग होते थे। भजन भी वह खुद ही गाते थे। कभी-कभी साथ में भजन गायक भी साथ देने के लिए होते थे। जो लोक गीत अथवा अर्धशास्त्रीय भजन अपनी सुमधुर आवाज में गाते थे। पेटी-तबला, ढ़ोल-मंजीरा, घंटी, शंख, करताल आदि वाद्यों का उपयोग भजन के साथ होता था।  किसी तरह का शोर-शराबा नहीं होता था। भगवती जागरण पूरी रात होता था। अत: कथाकार  रामायण, महाभारत, कृष्ण-सुदामा और  कई पौराणिक कहानियाँ बहुत ही भक्ति भाव से ओतप्रोत होकर तल्लीनता से कहते थे। वातावरण भक्तिमय हो जाता था। सुबह कथा के बाद,स्वादिष्ट देसी घी में बना हलवा और काले चने प्रसाद में मिलते थे। दुपहर के भंडारे में ही देसी घी में बनी पूरियाँ और सब्जी होती थी। जिसका स्वाद आज भी भूल नहीं पाया हूँ। इन कथाओंकों प्रभाव स्वाभाविक रूपसे मुझ पर भी हुआ। जीवन भर गलत आदतों और संगतों से दूर ही रहा। 

1980 में पुरानी दिल्ली मजबूरी में छोडनी पड़ी और हमारा परिवार हरी नगर इलाके में किराए के फ्लेट में आकार रहने लगा। नून, तेल लकड़ी के चक्कर में कई साल भगवती जागरण से दूर ही रहा। जितना की मुझे याद है शायद 1986 का साल था। मेरे एक मित्र ने कहा आज भगवती जागरण है, बॉलीवूड के एक बड़े गायक आ रहे हैं। रात को खाना खाकर करीब 11 बजे मित्र के साथ भगवती जागरण के पंडाल पर पहुंचा। वहाँ डीजे लगा हुआ था। बहुत शोर शराबे वाला संगीत बज रहा था। कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था। मंच के सामने दे दे प्यार दे (अम्बे तार दे) गाने पर कुछ नौजवान अभिताभ बच्चन की तरह नाच रहे थे। जैसे वे किमी काटकर को लुभा रहे हो। रात को बारह बजे के आसपास बॉलीवूड के भजन गायक पधारे। मुझे भी हात मिलने का सौभाग्य मिला। उनके मुख से भयानक खुशबू आ रही थी। मंच पर आते ही बेसुरी आवाज में चिल्लाते हुए वह भजन गाने लगे। बीच-बीच में जनता भी ज़ोर ज़ोर से जयकारे लगा रही थी। कुछ समय बाद कुछ युवक भगवान का भेस धर मंच पर आकार ऊलजलूल हरकते करने लगे।वातावरण कहीं से भी भक्तिमय नहीं लग रहा था। सभी कुछ अटपटा लग रहा था। सोचने लगा क्या इससे माँ भगवती प्रसन्न होती या क्रोधित होकर श्राप देगी। आखिर भोर होने पर कथा शुरू हुई। तब जाकर थोड़ी शांति हुई। इसी तरह के जागरण/कथाओंसे  से ना तो भगवान खुश होने वाले है और न ही पीढ़ी पर कोई संस्कार होगा। यदि ऐसा ही  चलता रहा और जागरण और कथा के नाम पर फैल रही विकृतियोंकों दूर नहीं किया तो आनेवाली  पीढ़ियाँ अपनी परंपरा और इतिहास और धर्म से वंचित हो जाएंगी। आज जब भी  कभी जागरण का पंडाल देखता हूँ तो मुझे पुरानी दिल्ली कि धर्मशाला में होने वाली भगवती जागरण याद आ जाता है।  काश, समय फिर लौटआए फिर से भक्ति से ओतप्रोत भगवती जागरण कि कथा सुनने को मिले  बस यही भगवान से प्रार्थना करता हूँ। 

 

मंगलवार, 2 अगस्त 2022

परमात्मा को कैसे जाने

 

अन्ति सन्तं न जहात्यन्ति सन्तं न पश्यति ।
देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति ॥अथर्ववेदः १०।८।३२॥
(ऋषि कुत्स: देवता: आत्मा)

सरल अर्थ: अत्यंत समीप होने के कारण हम (जीवात्मा) परमात्मा (आत्मा) को छोड़ नहीं सकते। अत्यंत निकट होते हुए भी, हम (जीवात्मा)  परमात्मा(आत्मा)  को देख नहीं पाते हैं।  ऋषि कहता है, हे जीव ! तू आत्मा के  काव्य देख,  जो न कभी मृत्यू को प्राप्त होती है, न जीर्ण होती है। 

वेद कहते हैं "अहम ब्रह्मास्मि"। मैं ही ब्रह्म हूँ। इस नश्वर देह में  ही परमात्मा का  निवास है। परमात्मा हमारे भीतर ही स्थित है फिर भी हम इसे न आँख से देख सकते हैं, न कान से सुन सकते हैं। क्योंकि आत्मा  शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध से परे है। हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों से आत्मा को अनुभव नहीं कर सकते। इसलिए कुछ लोग भगवान पर विश्वास ही नहीं करते हैं। उनका विश्वास है, देह के साथ सब कुछ नष्ट  हो जाता है। इसलिए ऋषि कहते हैं, अपने हृदय में स्थित आत्मा को जानना है तो उसका काव्य देखो। हम सभी जानते है, कवि सृजन करता है। परमात्मा तो सबसे बड़ा कवि है। उसने ब्रह्मांड का सृजन  किया है जिसमें अब्जावधि आकाशगंगाएँ समाहित है। हर आकाशगंगा में अब्जावधि तारें होंगे। ब्रह्मांड में हमारी  पृथ्वी की तरह  अनगिनत पृथ्वीयाँ होंगी, जिनपर जीवन फलफूल रहा होगा। लाखों हर रोज सृजित होती होगी और नष्ट भी होती होगी। यह सब कल्पना से परे है।  हमारी पृथ्वी को ही लें बर्फ से ढके पर्वत, कल कल बहती नदियां, जंगल, रेगिस्तान, महासागर, फल-फूल पेड़-पौधे, नानाविध जीव जन्तु सभी उस परमात्मा की रचनाएँ है। सभी जड़ और चेतन जीव पाँच ही तत्व मिट्टी, पानी, वायु, अग्नि और आकाश से बने है। जिन तत्वों से हमारा शरीर बना है, उन्ही तत्वों से सारा ब्रह्मांड बना है। परमात्मा की इसी लीला को जब  हम जान लेते हैं की जड़ और चेतन में कोई अंतर नहीं है। सृष्टि के  निरंतर चलने वाले चक्र का हम बस एक अंश भर है तब हमारे मन से राग द्वेष घृणा की सभी भावनाएं नष्ट हो जाती है। भगवान कृष्ण ने अर्जुन को अपना यही विराट स्वरूप दिखाया था। अर्जुन का मोह नष्ट हो गया, सभी शंकाएँ मिट गयी। उसे अपने कर्तव्यपथ का ज्ञान हो गया। जब हम जान जाते हैं, सभी कुछ परमेश्वर की इच्छा से होता है तब हम उसकी शरण में चले जाते है और अपने कर्तव्यपथ से किसी भी परिस्थिति में विमुख नहीं होते। क्योंकि हम अपने हृदय में स्थित परमेश्वर को जान चुके होते हैं। 

सोमवार, 25 जुलाई 2022

कूट कथा: साँप को दूध पिलाने का नतीजा


प्राचीनकाल में इंद्रप्रस्थ शहर में एक न्यायप्रिय राजा राज्य करता था। एक दिन दरबार में सेनापति ने राजा से निवेदन किया महाराज, जिस जहरीले साँप ने शहर के नागरिकों की जान ली थी, उसे सैनिकों ने उसे पकड़ लिया है। महाराज, यदि आज्ञा हो, तो इस साँप को मार देते हैं। 

राजा ने निर्णय लेने से पहले मंत्रियों से सलाह मांगी। 

पहला मंत्री: महाराज, बिना ज्यादा सोचे समझे, इस जहरीले साँप को तत्काल मार दिया जाना चाहिए। यदि इसे जिंदा छोड़ दिया जाता है तो यह  लोगोंकों डँसेगा, उनकी जान लेगा।  

दूसरा मंत्री: महाराज, हम सभ्य इंसान हैं। 'खून का बदला खून' हमारी नीति नहीं है। अपने लोग हों या सांप, दोनों को समान न्याय मिलना चाहिए। बिना सोचे समझे उसकी जान लेना ठीक नहीं है। साँप को दंड देने से पहले, हमें सांप के पक्ष को भी जानना चाहिए। राजा दूसरे मंत्री के विचारों से सहमत हो गया। साँप का पक्ष जानने के लिए राजा ने राज्य  के प्रमुख नागरिकों की एक समिति, जिसमे बुद्धिमान, प्रतिभाशाली, प्रगतिशील विचारक और बुद्धिजीवी शामिल थे, से परामर्श लेने का  फैसला किया।  

समिति ने राजा को सलाह दी। राजा, सांप जहरीला होता है, यह लोगों को डँसता है। डँसना साँप का स्वभाव है। उसने अपने स्वभाव के अनुसार लोगों को डँसा  है। लोग साँप के डँसने से नहीं बल्कि साँप का जहर शरीर में जाने की वजह से मारे जाते हैं। साँप का इसमे कोई दोष नहीं है। इसे छोड़ देना चाहिए। जंगल से नगर में आने वाले साँपो को यदि हम दूध पिलाते रहेंगे तो शायद वह हमे काटेंगे नहीं।    

राजा ने साँप को छोड़ दिया और आदेश दिया नगर में जगह-जगह साँपों के लिए दूध का इंतजाम किया जाए। नतीजा यह हुआ जंगल से निकल सैंकड़ों साँप शहर में आ गए। अब वे बेकौफ़ हो कर लोगोंकों डँसने लगे। लोग जान बचाने के लिए शहर छोड़ भागने लगे। एक दिन राजा महल में घुसे एक साँप को दूध पिला रहा था की साँप ने मौका देख राजा को डंस लिया। साँप के डँसने से राजा की मौत हो गयी। बिना राजा के शहर में अराजकता फ़ैल गयी। आखिरकार शहर  वीरान हो गया। अब वहाँ सांपोंका राज है। 



मंगलवार, 5 जुलाई 2022

पुरानी दिल्ली की यादें (9) दंगा कथा: छोटे शैतान

मुझे याद है वह अगस्त का महिना था। उस दिन रविवार था। दिल्ली में अगस्त का महिना पतंगबाजी का महिना होता है। एक सड़क चांदनी चौक बाजार के पीछे से हौजकाजी की ओर जाती है। उस इलाके को लालकुआं कहते हैं।  लालकुआं  बाजार पूरी दिल्ली में पतंग और मांजे के लिए मशहूर  है। इसलिए  रविवार होते हुए भी लालकुआं की पतंगो की दुकानें खुली हुई थी। गोटू चार-पाँच दर्जन पतंगे और कुछ चरखे माँजा खरीदना चाहता था। वह 15 अगस्त को घर के सामने दुकान सजाकर छुट्टा माँजा और पतंगे बेचकर कुछ पैसा कमाना चाहता था। मैं भी साथ चल दिया। उसकी मदत करने के बदले में कुछ माँजा और दो-तीन पतंगे मुफ्त में मिलने की उम्मीद के साथ। 

सुबह के11 बज रहे होंगे, हम दोनों लालकुआं के बाजार पहुंचे। काफी भीड़ थी। पता नहीं क्या हुआ, अचानक पत्थरबाजी शुरू हो गई। लोगोंकों पत्थर फेंकते देख  हम चौंक गए। वहां से भाग लिए। मेन रोड से निकल कर हम एक संकरी गली में दाखिल हुए। यह गली सीधे चांदनी चौक की ओर जाती है। गली के सभी मकान 50-60 फीट ऊंचे है। हम गली में कुछ कदम आगे बढ़े ही थे की अचानक दो-चार पत्थर हमारे दायें-बाएँ गिरे। गर्दन घुमाकर पीछे देखा की 10-11 साल के 2 बच्चे एक छत पर खड़े होकर नीचे गली में पत्थरों की बारिश कर रहे थे। उन्हे जैसे ही अहसास हुआ हम उन्हे देख रहे हैं, वे बच्चे छत के कठडे से दूर हो गए। गोटू ज़ोर से चिल्लाया, हरामखोर शैतानों तुम्हें अभी सबक सिखाता हूँ। मैंने उसका हाथ पकड़कर कहा, पहले अपनी जान तो बचालें। पता नहीं कहाँ-कहाँ से पत्थर बरस सकते हैं। हिसाब तो बाद में निपटा सकते हैं। बिना-दायें बाएँ या ऊपर-नीचे देख हम दौड़ते हुए तीन या चार मिनिटोंमें चांदनी चौक पहुंच गए। यहां सब कुछ शांत था, जैसे कुछ हुआ ही न हो। लाल कुएं के इलाके में क्या चल रहा है, यहाँ शायद  किसी को पता नहीं था। हालाँकि उस समय  मैं 12-13 साल का था, फिर भी मुझमें इतना सामान्य ज्ञान था की आज की घटना को किसीको न बताया जाए। अगर घर में बताता, तो पहले पिताजी पूछते इतनी दूर क्या करने गया था। सच्चाई बताने पर पिटाई अवश्य होती। लेकिन गोटू उन नन्हें शैतानोंको सबक सीखना चाहता था। कम से कम उनके माँ-बाप को उनके बच्चोंके कारनामे बताना चाहता था। 

2-3 हफ्ते बाद मैं गोटू फिर मिला। मैंने उससे पूछा, छोटे शैतानों का कुछ पता चला। गोटू ने कहा कि वह पिछले रविवार को उस गली में गया था। लेकिन किस घर की छत से पत्थरों की बौछार हुई थी, जान नहीं पाया।  आसपास के लोंगो से पता चला उसदिन, उस गली में किसी का सिर फट गया था। उस आदमी की किस्मत अच्छी थी की जान बच गयी। बाद में पुलिस गली के कुछ लड़कों को पकड़कर थाने ले गई थी। मैंने कहा यह तो गलत हुआ, हमे पुलिस को सच्चाई बतानी चाहिए। गोटू ने मुस्कराते हुए  कहा मूरख, पहले पुलिस पूछेगी कि तुम वहाँ क्या कर रहे थे। पुलिस की मार तो पड़ेगी ही और कोई बचाने नहीं आया तो चक्की भी पीसनी पड़ेगी, समझे? मैंने कहा लेकिन जो पकड़े गए उनका क्या हुआ। "क्या होना था, पूरा मोहल्ला थाने पहुंच गया था। पुलिस ने उन बदमाश लड़कों की अच्छी तरह धुलाई की और दक्सिना लेकर सबको छोड़ दिया।" 

सूखे के साथ अक्सर गीला जलता ही है। कोई कसूर न होते हुए भी उन लड़कों को पुलिस की मार खानी पड़ी थी। थाने उनके नाम हमेशा के लिए दर्ज हो गए होंगे।  लेकिन उस वक्त ज्यादातर मामले थाने में सुलझाए जाते थे। मुकदमे कम ही दर्ज होते थे। उस समय आज की तरह बात का बतंगड़ करनेवाला मीडिया भी नहीं था। छोटे-मोटे दंगों से राजनीतिक फायदा उठाने की प्रवृत्ति भी नहीं थी।

बाकी छत से फेंका पत्थर नीचे गली में किसी की जान ले सकता है इसका इल्म उन छोटे शैतानोंको शायद ही हो। लोगोंकों पत्थर फेंक देख उन्होंने भी पत्थर फेंके होंगे। सालों के बाद जब भी  आसमान में उड़ती पतंगे देखता हूँ,  मुझे उस दिन की याद आ जाती है, जब मैं मरते मरते बाल-बाल बचा था। 

बुधवार, 22 जून 2022

पुरानी दिल्ली के यादें (8) : दंगा कथा : छोटू


हमारा स्कूल पहाड़गंज में था। स्कूल सुबह का था। नई बस्ती, नया बाज़ार के हम 7-8  विद्यार्थी सुबह-सुबह स्कूल जाने के लिए पैदल ही घर से निकल पड़ते थे। कुतुब रोड, सदर बाजार, बारा टूटी और मोतियाखान होते हुए आधा पौना घंटे में स्कूल पहुँच जाते थे। रोज सुबह और दोपहर करीब लगभग चार  किमी पैदल चलने के कारण चप्पल जूतों के दो-तीन महीनों में ही बारा बज जाते थे। मोतियाखान में रास्ते के किनारे एक मोची बैठता था।  वह 10-20 पैसों में  जूते-चप्पल की मरम्मत कर देता था। सुबह उसका बेटा भी काम में हाथ बँटाता था। हम उसे छोटू कहकर पुकारते थे। उसकी उम्र हमारे जितनी ही थी। वह एक सरकारी स्कूल में पढ़ता था। उस समय दिल्ली के सरकारी स्कूलों में दुपहर की शिफ्ट लड़कों की होती थी। सुबह के वक्त चप्पल और जोड़ियों की छोटी-बड़ी मरम्मत वही करता था।

उस समय पुरानी दिल्ली में साल में दो से चार दंगे होते ही थे। ज़्यादातर दंगोंका मकसद व्यापारियों की दुकानों को जलाना और लूटना होता था। ऐसा ही एक दंगा सदर बाजार में हुआ। दंगे के दौरान कपड़ों की कई दुकानों को लूट लिया गया। बहती गंगा में कई गरीबों ने हाथ धो लिए। जिसमे हिन्दू मुसलमान दोनों ही थे। जो विद्यार्थी फटे कपड़ों में स्कूल में आते थे। दंगे के बाद नए कपड़ों में नजर आने लगे। उस साल कई बच्चों ने ईद और दिवाली नए कपड़ों में मनाई। लेकिन हर सिक्के के दो पहलू होते हैं।

दंगे के 15-20 दिन बाद की कहानी। स्कूल से निकलने के बाद हमारी चौकड़ी दोपहर 1 बजे घर जाने लगी। एक दोस्त का जूता सुबह स्कूल आते समय फट गया था। जूते की मरम्मत करने हम उसी मोची की फुटपाथी दुकान में पहुंचे। उस दिन छोटू अपनी स्कूल यूनिफॉर्म में जूते मरम्मत कर रहा था।  मैंने उससे पूछा वह इस समय स्कूल छोड़कर यहाँ क्यों बैठा है?  क्या उसके अब्बू की तबीयत खराब है? छोटू ने कहा, उसने स्कूल छोड़ दिया है। अब वह दुकान में ही बैठेगा। मैंने पूछा, क्यों? उसने   बिना किसी हिचकिचाहट के कहा अब्बू जेल में है।  क्यों ???

 उसने कहा, उस दिन अम्मी ने तड़के ही अब्बू को उठाया, कहा कि  सदर में दुकानों की लूट मची है। मोहल्ले के सभी मर्द वहीं गए हैं। नानके तो चार थान उठाकर भी ले आया है। पहले तो अब्बू ने मना कर दिया।  लेकिन जब पूरा मोहल्ला ही, चाहे हिंदू हो या मुसलमान, दुकानों को लूटने गया था, अब्बू से रहा नहीं गया। अपने बच्चोंके लिए हर साल नए कपड़े खरीदना अब्बू के लिए एक सपना ही था। अब्बू भी भीड़ का हिस्सा बन गए। एक जली हुई दुकान से लोग कपड़ोंके थान सिर पर लाद बाहर निकल रहे थे। अब्बू भी उस दुकान में घुस गया। लालच बुरी बला होती है, अब्बू भी सिर पर 3-4 कपड़े के थान लाद दुकान से जैसेही निकला, तभी शोर हुआ, पुलिस-पुलिस। अब्बू डर गया। बिना सामने देखे भागने लगा, डर के मारे अब्बूका संतुलन बिगड़ गया। वह सड़क पर गिर पड़ा। उसे बुरी तरह चोट लगी। लेकिन पुलिस ने उसे रंगे हाथ पकड़ लिया। हालाँकि मेरी उम्र इतनी भी नहीं थी कि ऐसे हालात में मैं छोटू से क्या कहूँ। फिर भी हिम्मत करके मैंने उससे पूछा, कोई वकील किया है क्या? हां, एक वकील ने किया है, लेकिन उसका कहना है, अब्बू को जेल से छूटने में कम से कम साल तो लग ही जाएगा।  छोटू ने आगे कहा कि अब्बू हमेशा नेकी और ईमानदारी की बात करते थे, पता नहीं कैसे उस दिन अब्बू से गलती हो गई। बोलते समय छोटू का गला भर्रा गया। हम सब चुप हो गए। कुछ भी सूझ नहीं रहा था। घर आकर माँ को यह बात बताई। माँ ने कहा अब तुम बड़े हो रहे हो। एक गलत कदम पूरे घर को बर्बाद कर देता है। सबकी जिंदगी तबाह हो जाती है। सदा याद रखो, भूल कर भी कभी गलत काम मत करना। माँ ने सच ही कहा था, किस्मत की मार छोटू पर पड़ी जिसने कोई गलत काम नहीं किया था। उस छोटी सी उम्र में ही घर की पूरी गाड़ी  चलाने की ज़िम्मेदारी उसके कंधों पर आ गयी थी। दंगाई हमेशा साफ बच निकलते हैं परंतु लालच में आकर आम गरीब आदमी जरूर पुलिस के हत्थे चढ़ जाता है। 

उस साल की ईद और दिवाली ने कई  बच्चोंके घरों में अंधेरा लेकर आई थी। यह भी सच है। 

शनिवार, 18 जून 2022

भ्रांतियाँ : अग्निवीर और रोजगार

अग्निवीर स्कीम को लेकर अनेक भ्रांतियाँ फैलाई जा रही है। पहली यह की इससे रोजगार छिन जाएगा। क्या सचमुच यह सही है। भ्रांति फैलाने वाले कहते हैं की  पहले साल 46000 नियुक्तियाँ अग्निवीर स्कीम के तहत होगी। जिसमें से 25 प्रतिशत अर्थात 11,500 सेना में स्थायी होंगे। बाकी  34,500 सैनिक 25 साल की उम्र में सेना की नौकरी से निवृत होंगे। वे भविष्य में क्या करेंगे। प्रश्न महत्वपूर्ण है।  

अब आइये, यदि अग्निवीर स्कीम नहीं हो तो इन पदों पर कितनी भर्ती होगी। 4 साल बाद स्थायी होने वाले सैनिक 11,500। इसके अलावा अस्थायी 34,500 को भी 4 से भाग देंगे। तो आंकड़ा आयेगा 8625। अर्थात केवल 20125 सैनिकोंकी स्थायी भर्ती होगी। बाकी 25875 को न सेना में नौकरी का अनुभव मिलेगा और उन्हे दूसरी जगह भी नौकरी मिलने की संभावना कम ही रहेगी। 

अब अग्निवीर स्कीम के लाभ: अग्निवीर  सेना की 4 साल की नौकरी के साथ पढ़ाई भी कर सकेगा, डिग्री भी प्राप्त कर सकेगा। उसका स्वास्थ्य भी अच्छा रहेगा। सेना का अनुभव भी उसके पास होगा। पगार भी मिलेगा और उसकी जेब में 11 लाख रुपए भी होंगे। जिससे वह चाहे अपना रोजगार भी शुरू कर सकेगा।  उसके घरवालोंका कुछ भी खर्च नहीं होगा। च कहूँ तो यदि सरकार कहती आपको चार साल आर्मी अनुभव मिलेगा और 25 प्रतिशत को नौकरी मिलेगी तो लाख रुपए साल के देकर भी युवा इस स्कीम में शामिल होने के लिए लालायित रहते। कोचिंग सेंटर तो यही गाजर दिखाकर बेरोजगारोसे लाखो रुपए लूटते है और शायद ही उनके  सबके मिलाकर 1 प्रतिशत विद्यार्थी पास  होते हो। बीस हजार की जगह 46000 को नौकरी मिलने से कोचिंग सेंटर का धंधा चौपट होने का खतरा निश्चित है। उनके विरोध का मुख्य कारण यही है।

अब सवाल है 34,500 निवृत सैनिक क्या करेंगे। सरकारी अर्ध सैनिक बलोंकी सेवा में उन्हे आरक्षण मिलेगा। सुरक्षा से जुड़ी  सरकारी या राज्य सरकार की संस्थाओं हो एक बात तो निश्चित है, सभी को पका पकाया माल मुफ्त में मिल रहा हो तो क्यों नहीं लपकेंगे  सैनिक अनुभव होने के कारण पुलिस, प्रशासन इत्यादि में भी उनको भविष्य में आरक्षण और  आरक्षण न भी हो तो भी नौकरी में वरीयता मिल ही जाएगी। कहने का तात्पर्य जहां केवल 20125 युवाओंको रोजगार मिलता इस स्कीम के बाद निवृत हुए 34500 में से कम से कम 15 से 20 हजार को भी सरकारी संस्थाओंमे नौकरी निश्चित मिल ही जाएगी। बाकी निजी क्षेत्र में भी सेना से निवृत युवाओंकों नौकरी की संभावनाएं अधिक ही रहेंगी। उदा. एक निजी बैंक भी, 25 वर्ष का निवृत सैनिक जिसके पास बीकॉम डिग्री हो, उसे दूसरोंके मुक़ाबले नौकरी में वरीयता देगा ही। सुरक्षा सभी क्षेत्रों की सहज प्रवृति होती है। एक अतिरिक्त योग्यता होने की वजह से अग्निवीरोंका भविष्य उज्ज्वल ही होगा।  

सारांश अग्निवीर स्कीम में शामिल युवाओंकों रोजगार का अधिक अवसर प्रदान करती है। दुर्भाग्य से सरकार इस स्कीम को लागू करने से पहले इसका महत्व युवाओंकों समझाने में  विफल रही है। दूसरी और मीडिया भी युवाओं का  सही मार्गदर्शन नहीं कर रहा है। शायद चटखारे लेते हुए आग में घी डालने से उन्हे ज्यादा टीआरपी मिलती है। बाकी हमारे देश में विरोधी दल हमेशासे ही सत्ता के लिए किसी भी स्तर पर जाते है। सरकारी संपत्ति का नुकसान पहुँचाने में भी चूकते नहीं है। बाकी जो युवा उनके चक्कर में आकर तोडफोड करेंगे उनका भविष्य तो चौपट होना निश्चित है। आज के जानकारी के युग में उन्हे सरकारी छोड़ो, निजी नौकरी भी भविष्य में उन्हे नहीं मिलेगी। 

 

रविवार, 5 जून 2022

पुरानी दिल्ली की यादें (6): जमुना किनारा

सन 1980 में हमने पुरानी दिल्ली छोड़ दी थी। तीस साल बाद मैं यमुना के किनारे खड़ा था। घाटों पर बने अधिकांश मंदिरों पर ताला लगा हुआ था। घाट सुनसान नजर आ रहे थे।  यमुना भी घाटों से दूर चली गई थी। रेत और गंदगी से होते हुए मैं यमुना के तट पर पहुंचा। नाले की तरह दिखने वाले यमुना के काले प्रदूषित पानी से दुर्गंधि आ रही थी। ऐसे पानी में नहाने की बात छोड़िए, पैर गीले करने की भी हिम्मत नहीं हुई। आज यमुना में केवल एक गंदी नाली से ज्यादा नहीं है। ऐसी यमुना के किनारे घूमने कौन आयेगा और कौन स्नान करने का साहस करेगा, ऐसे अनेक विचार मन में उठे। यमुना की यह हालत देखकर आंखों में आंसू आ गए, पुरानी यादें जाग उठीं।

सत्तर और अस्सी का दशक - गर्मी की छुट्टियों में हमारे मोहल्ले के सभी लड़के-लड़कियां, जब बड़े भी साथ हो, सुबह पांच बजे यमुना की सैर करने निकल जाते थे। कुदसिया गार्डन की तरफ से  वर्तमान 'रिंग रोड' को पार करके हम फूल घड़ी वाले पार्क पहुँच जाते थे। यहाँ पर पिट्ठू, लंगड़ी टांग आदि खेल खेलने के बाद, थक जाने पर स्नान के लिए यमुना के घाट पर पहुँच जाते थे। उस समय गर्मीयों में भी यमुना का पात्र काफी चौड़ा होता था। इसलिए बड़ोंकी देखरेख में ही हम स्नान करते थे। पानी में उछलती कूदती मछलियाँ भी दिखती थी। स्नान करने के बाद हम फूल घड़ी के दूसरी तरफ बने बौद्ध मंदिर जाते थे। मंदिर में भगवान बुद्ध मूर्ति के पीछे रंग बिरंगी शीशे लगे हुए थे। वहाँ से उगते सूरज और यमुना जल का अद्भुत रंग बिरंगी नजारा दिखता था। वापसी में  बगीचोंसे फूल इकठ्ठा करते हुए घर लौटते थे। 

मुझे याद है, 1967 में  स्वर्गीय केदारनाथ साहनी दिल्ली के मेयर बने थे। उन्होने यमुना के घाटों का सौंदर्यीकारण का बीड़ा उठाया था। यमुना को खोद कर पानी घाटों तक पहुंचाया। किनारे पर फूल घड़ी और कई पार्क विकसित किए थे। एक पार्क में यमुना की मूर्ति भी थी। उस पार्क में जगह- जगह साउंड सिस्टम भी लगा था। जिसमे दिन भर मधुर संगीत बजता था।  छुट्टी के दिन  लोग परिवार सहित  पिकनिक मनाने उस पार्क में आते थे।  

यमुना के घाट भी दिनभर लोगोंसे गुलजार रहते थे। मंदिरों के घण्टों की आवाज दिनभर गूँजती रहती थी। शाम को लोग यमुना के किनारे टहलने आते और नदी में नाव यात्रा का आनंद लेते। बहुत कम लोग जानते हैं कि शाम के समय यमुना की आरती भी होती थी। हर पुर्णिमा, अमावस और त्योहारों के दिनों में स्नान करने के लिए हजारों लोग यमुना के घाटों पर जुटते थे। साधू-सन्यासी, भिखारी, फूल और प्रसाद बेचने वाले, मिठाई, पूड़ी-सब्जी, कचौड़ी और खिलौने बेचने वालों का भी जमघट बना रहता था। 

उन दिनों यमुना किनारे पर कुछ बड़े कुश्ती के मैदान भी थे। घाटों में तैरना सिखाने वाले कई क्लब थे। उन क्लबों में से एक  'जुगलकिशोर तैराकी संघ' बहुत मशहूर था। उस समय के कुछ प्रसिद्ध तैराक इसी क्लब से निकले थे। कभी-कभी जब मन उदास होता था, तो मैं यमुना किनारे चले आता था। घंटो पानी में पैर डालकर यमुना को निहारता रहता था। मन को बड़ा सकून मिलता था। यमुना मुझे सदा ही जीने की प्रेरणा देती रही है। 

दुर्भाग्य से दिल्ली की यमुना को मानव की बुरी नजर लग गयी। नब्बे के दशक में शहर की तेजी से बढ़ती आबादी और विकास के नाम बाग बगीचोंकी अधिकांश जमीन नए बस अड्डे, बस स्टैंड, चौड़ी सड़कें, फ्लाई ओवर और मेट्रो ने छिन ली। दूसरी तरफ किसानों को और दिल्ली की बढ़ती आबादी को पानी मुहैया  कराने  के लिए यमुना नदी पर कई बांध बने और नहरे निकली गयी। इससे बड़ी मात्रा में नदी का प्रवाह अवरुद्ध हो गया। आज वजीराबाद के बाद यमुना बहुत कम पानी के साथ दिल्ली में प्रवेश करती है। किसी जमाने की दक्षिण-पश्चिम दिल्ली के सिरे पर नजफगढ़ झील से बहने वाली एक बार बरसाती नदी 20-25 किमी की यात्रा करके यमुना तक पहुँचती थी। आज इसे नजफगढ़ नाला कहा जाता है। नजफगढ़ नाला पूरे उत्तर और पश्चिमी दिल्ली से सीवेज और कारखानों से प्रदूषित पानी को नदी में उंडेलता है। कहने की जरूरत नहीं है, आज  दिल्ली में  यमुना का 99% पानी नालों से बहकर आने वाला है। 

उस दिन मैं भारी मन से घर लौटा। कालियानाग की कहानी याद आ गई। कालियानाग यमुना में रहता था। यमुना का पानी जहरीला हो गया था। ग्वालों के गाय-भैंस विषाक्त यमुना जल पीकर मर रहे थे। भगवान कृष्ण ने  कलियानाग को हराकर यमुना से दूर भगा दिया था। तब कृष्ण थे, लेकिन आज कलयुग में यमुना की रक्षा कौन करेगा?  प्रदूषण रूपी जहरीले सांपों को कौन यमुना से भगाएगा ? इसी यक्ष प्रश्न का उत्तर फिलहाल तो किसी के पास नहीं है।  

पुरानी दिल्ली की यादें (7): गर्मी की छुट्टियाँ : पुस्तके पढ़ने की चाहत जगी


शनिवार, 4 जून 2022

पुरानी दिल्ली की यादें (7) : गर्मी की छुट्टियाँ : पुस्तकें पढ़ने की चाहत और दिल्ली पब्लिक लायब्ररी

गर्मी की छुट्टियों में समय बिताना भी एक भारी कार्य होता था। सुबह की सैर से लौटने के बाद नहा धोकर हम खाना खाते थे। उस समय नाश्ते की परंपरा नहीं थी। एक बार अंगीठी सुलगाने और खाना बनाने के बाद, शाम को ही दुबारा अंगीठी सुलगायी जाती थी। पिताजी सुबह खाना खाकर ही दफ्तर जाते थे। जाहीर था, हम भी सुबह खाना खा लेते थे। खाने के बाद क्या करें। एक बड़ी समस्या थी। 15 मई को स्कूलों को छुट्टी लगती थी और सात जुलाई को दुबारा स्कूल खुलते थे। उस समय स्कूलोंमे होमवर्क देने का रिवाज़ भी नहीं था। पढ़ाई भी 7 जुलाई के बाद ही शुरू होती थी। छुट्टियोंमे खेलने कूदने के सिवा दूसरा और कोई काम नहीं होता था। 

उस समय शायद मैं तीसरी कक्षा में पढ़ता था। एक दिन सुबह अपने दोस्तोंके साथ पत्तेवाली गली में खेल रहा था। उसी गली में एक ख्यातनाम वकील स्वर्गीय जनार्दन गुप्ता का दफ्तर था। वह हमारे इलाके के निगम पार्षद भी थे। हम बच्चोंके शोर से शायद उन्हे परेशानी हुई होगी। उन्होने हम बच्चोंकों अपने ऑफिस में बुलाया। हमसे पूछा तुम दिन भर ऐसे ही खेलते रहते हो या कुछ पढ़ते भी हो। जवाब देने में मैं शुरू से ही तेज था। मैंने कहा, स्कूल की छुट्टियाँ है, पढ़ाई का क्या काम। उन्होने मुस्कराते हुए कहा, पढ़ाई के अलावा भी पढ़ने के लिए बहुत कुछ होता है। मैंने पलटकर कहा, पता है हमे, पर कहानियों की पुस्तके खरीदने के लिए पैसा किसके पास है। उन्होने हँसते हुए कहा, अच्छा तुम्हारा दिल्ली पब्लिक लाइब्ररी का कार्ड बना दूँ, तो रोज खेलने की जगह पुस्तके पढ़ने वहाँ जाओगे। चुनौती को स्वीकार करना मेरी आदत थी। मैंने कहा, जरूर जाऊंगा, पर आप बना कर दो हमारी तो वहाँ घुसने की भी हिम्मत नहीं होती। वैसे तो वे नया बाजार और  नई बस्ती के लगभग सभी लोगोंकों जानते थे। फिर भी उन्होने हम सबका नाम और पता पूछा। अगले दिन मुझे दिल्ली पब्लिक लाइब्ररी का कार्ड मिल गया।  

दिल्ली पब्लिक लाइब्ररी पुरानी दिल्ली में रेलवे स्टेशन के सामने है। सबसे पहले जिस चीज ने मुझे आकर्षित किया वह थे, लाइब्रेरी में लगे पंखे और पीने के लिए ठंडे पानी का इंतजाम। घर में गर्मी में झुलसने से अच्छा दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी जाकर ठंडी हवा का आनंद लेना। सुबह लाइब्रेरी खुलते ही लगभग दस बजे में वहाँ पहुँच जाता था। लाइब्रेरी में बच्चोंकी पुस्तकों का अलग से विभाग था। वहाँ पंचतंत्र की कहानियाँ, जातक कथाएँ, पौराणिक कथाएँ, नीति कथाओं और सरल भाषा में शेक्स्पीयर से लेकर प्रेमचंद इत्यादि लेखकोंकी कहानियोंकि किताबें थी।  इसके अलावा  दुनिया भर की लोक कथाओं की पुस्तकें भी बड़ी संख्या में थी। उन्हे पढ़कर मुझे पता चला जैसे भारतीय लोक कथाओं में राक्षस, अप्सराएँ, यक्ष, गंधर्व इत्यादि होते हैं। वैसे ही पश्चिम की लोक कथाओं में जिन्न, एंजल और परियाँ होती है। पुरानी दिल्ली छोड़ने तक में इस पुस्तकालय का सदस्य बना रहा। बाद में नौकरी भी कृषि भवन में लगी, जहां पास के शास्त्री भवन में एक विशाल सरकारी पुस्तकालय था। हर सप्ताह कम से कम चार पुस्तकें तो मैं पढ़ने के लिए घर ले ही जाता था। आज भी कुछ न कुछ रोज ही पढ़ता हूँ। 

टीव्ही, मोबाइल की वजह से आज की पीढ़ी पुस्तकों से दूर हो गयी है।अधिकांश लोग अपने प्रदेशोंकी लोक कथाएँ  भूल गए हैं। कुछ साल पहले प्रगति मैदान में लगे पुस्तक मेले में गया था। वहाँ एक स्टॉल पर भारतीय लोक कथाओं की एक पुस्तक दिखी। पुस्तक हाथ में लेकर पढ़ने लगा। एक लोक कथा में परियोंका जिक्र था। वह कथा मूल रूप से यूरोप के किसी देश की थी। पुस्तक में विदेशी कथाओं कों चुरा कर भारतीय लोक कथा के नाम से परोसा गया था। तभी स्टॉल में खड़े सेल्समैन ने मुझसे कहा, जो पुस्तक आपके हाथ में है, उस का लेखक/ लेखिका यहीं पर है। पुस्तक खरीदने पर आपको उनके दस्तखत भी मिल जाएंगे। उस पुस्तक को पढते समय वस्तुत: मुझे बड़ा गुस्सा आ रहा था। उसके इन शब्दोंसे मेरा गुस्सा फूट पड़ा, मैं बोला लेखक/लेखिका क्या पाठकों को मूर्ख समझती है, भारतीय लोक कथाओं में जिन्न और परियाँ नहीं होती उसे इतना भी नहीं मालूम। चोरी भी कम से कम दिमाग लगाकर करनी चाहिए। कुछ क्षण के लिए वहाँ सन्नाटा छा गया। बाद मे मैंने ही सन्नाटा तोड़ते हुए कहा, क्षमा करना, मुझे ऐसा कहना नहीं चाहिए था और मैं वहाँ से निकल गया। मन ही मन में सोचने लगा चंद रुपयों कि खातिर लोग साहित्य चोरी क्यों करते है। फिर भी उस समय ऐसा करने वालों को भी मेहनत तो करनी ही पड़ती थी। आज तो सोशल मीडिया का जमाना है। तुम्हारा लिखा हुआ कुछ ही मिनिटों में कोई भी अपने नाम से आगे बढ़ा देता है। जब तक तुम्हें पता लगे, दर्जनो लोग उसे उनके नाम से आगे बढ़ा चुके होते हैं। फिर भी सच यही है, स्वर्गीय जनार्दन गुप्ता और दिल्ली पब्लिक लाइब्ररी नहीं होती तो शायद मुझे भी पढ़ने का शौक नहीं लगता। आज जो थोडा बहुत लिख लेता हूँ, उसके बीज भी शायद उसी वक्त पडे हों।

दंगा कथा (8) छोटू



गुरुवार, 2 जून 2022

पुनर्जन्म और गिरगिट

 एक भारतीय नेता जिंदगीभर सत्ता का सुख  भोगकर, मरने के बाद  चित्रगुप्त के दरबार पहुंचा। चित्रगुप्त ने नेता से कहा तुम्हारे कर्मों के हिसाब के अनुसार तुम्हारी इच्छित पशु योनि में अगला जन्म मिलेगा। अब बताओ तुम क्या बनना चाहते हो, शेर, चीता या हाथी। नेता ने कहा, ऐसा है तो प्रभु मुझे गिरगिट के रूप में नया जन्म मिले। चित्रगुप्त ने कहा, तथास्तु। लेकिन एक बात बताओ शेर, चीता और हाथी जैसे बड़े शक्तिशाली जानवर छोड़ तुम गिरगिट ही क्यों बनाना चाहते हो। नेता ने मुस्कराते हुए कहा शेर, चीता और हाथी जैसे बड़े जीव जंगल का राजा बनने के लिए सदा लड़ते रहते हैं। सब कुछ होते हुए भी वे कभी चैन की नींद नहीं सोते। लेकिन जंगल का राजा कोई भी हो गिरगिट को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। जंगल में भी गिरगिट जिंदगी भर मौज करेगा। 

सोमवार, 30 मई 2022

पुरानी दिल्ली की यादें (5): गोटू और क्रिकेट की गेंद


उस समय मेरी उम्र 12-13 साल की थी। थोडा बडा हो गया था। अपने दोस्तों के साथ छूटियों में क्रिकेट खेलने जाने लगा था। गर्मी की छूटियों में  जहां हम सुबह घूमने जाते थे। वहीं दशहरे और क्रिसमस की छूटियों  क्रिकेट खेलने। पुरानी दिल्ली में मोरीगेट के बाहर क्रिकेट खेलने के लिए एक बड़ा मैदान था। मैदान का एक हिस्सा स्टीफन कॉलेज का था।  इसलिए लोग उस मैदान को स्टीफन ग्राउंड के रूप में जानते थे। छुट्टियों के दौरान, 25-30 क्रिकेट टीमें मैदान पर खेलती थीं। खेलते समय सावधानी बरतनी पड़ती थी। कहीं से भी गेंद आके सर  पर लग सकती थी।  हमारी टीम में 5-6 मराठी लड़के, आस पास के गली मोहल्ले के हिन्दू और मुस्लिम लड़के हमारी टीम में आते-जाते खेलते थे।आखिर 11 लड़कों की टीम जो पूरी करनी होती थी। हम सभी सभी गरीब या निम्न मध्यम वर्ग के थे। उस समय एक कॉर्क बॉल 2-3 रुपये में आता था। हम सब दस पैसे से चवन्नी मिलाकर बॉल खरीदते थे।  मैदान में अमीर लड़के सफेद कपड़े, अच्छी क्वालिटी के बल्ले हाथ में लिए, क्रिकेट की गेंद से क्रिकेट खेलते थे। उस समय भी क्रिकेट बॉल की कीमत 10-15 रुपये हुआ करती थी। हमारा उनसे ईर्ष्या होना स्वाभाविक था। हमने कभी सोचा नहीं था की कभी हम भी क्रिकेट की गेंद से क्रिकेट खेल सकेंगे। 

वह शायद दशहरे की छुट्टी का पहला ही दिन था। हमें मैदान में गोटू मिला। उसके पास क्रिकेट की 2-3 गेंदें थीं। वह नई गेंद चार से पाँच और कुछ ओवर पुरानी दो से तीन रुपए में बेच रहा था। हमने भी उससे एक गेंद खरीद ली। परंतु मेरे एक दोस्त को शक हुआ, उसने गोटू से पूछा, इतनी सस्ती गेंदें कहां से लाते हो। गोटू ने रौब से कहा, उसकी जान पहचान डीडीसीए (दिल्ली जिला क्रिकेट संघ) में है। मैच खत्म होने पर डीडीसीए वाले पुरानी गेंदों को अपने जान पहचान वोलों को  सस्ते में बेच देते हैं। कुछ गेंदें एक-दो ओवर भी पुरानी भी होती है। वह ऐसी गेंदों को एक दर्जन के भाव पर खरीदता है। 2-4 रुपए में पुरानी, ​​नई गेंद 3 से 5 रुपये में। हमने उससे क्रिकेट गेंदें खरीदना शुरू किया। कभी 2 रुपए में तो, कभी 3 रुपए में।  गोटू भी क्रिकेट अच्छा खेलता था। कभी-कभी सुबह हमारे साथ खेलने आ जाता था। हमने कभी भी उससे उसका असली नाम नहीं पूछा।  

स्कूल को क्रिसमस की छुट्टियाँ लगी थी। हमने गोटू को क्रिकेट की गेंद के लिए कहा था। लेकिन हमारे मैदान में पहुँचने से पहले ही उसने दूसरी टीम को गेंद बेच दी थी। हमारा उससे काफी झगड़ा हुआ। काफी कहा सुनी हुई। आखिर हार कर गोटू ने  कहा कि वह आज सुबह 11 बजे फिरोजशाह कोटला  जाएगा। यदि गेंद मिलती है तो कल सुबह हमें लाकर देगा। जाहीर था, हमें उस पर विश्वास नहीं हुआ। मैंने और मेरे दोस्त ने उसके पीछे जाने फैसला किया।  हमारा मकसद था, यह जानना की वह किससे गेंद खरीदता है। एक बार जब यह पता लग जाएगा तो हम भी उस आदमी से थोक में  गेंद खरीद सकते हैं। हम भी उसकी तरह  गेंद को बेचकर पैसा कमा सकते है। बड़ा नायाब आइडिया था। सुबह करीब 11 बजे मैं और मेरा दोस्त पैदल चलते हुए दिल्ली गेट पहुंचे। पहले फिरोजशाह कोटला स्टेडियम उतना बड़ा नहीं था, जितना आज है। एक सड़क दिल्ली गेट से राजघाट की ओर जाती है। एक तरफ पुरानी दिल्ली की दीवार। दीवार के पीछे दरियागंज और सामने बगीचा। सड़क के दूसरी ओर फुटबॉल स्टेडियम, बस स्टैंड और एक गली है जो सीधे फिरोजशाह कोटला स्टेडियम की ओर जाती है। स्टेडियम  की दीवार और गली के बीच  एक छोटा सा मैदान था। मैदान के एक हिस्से में प्रक्टिस के लिए नेट बने हुए थे। और  बीचोबीच क्रिकेट की पिच थी। डीडीसीए के ज्यादातर लीग मैच वहीं होते थे। हम वहां पहुंचे, तो हमने देखा कि गोटू मैदान के बाहर सड़क के किनारे बैठा हुआ था। मैदान में क्रिकेट मैच चल रहा था। हमें देखकर वह चौंक गया। उसने हमसे कहा, " धंधे का राज को जानने आए हो? मुझ पर विश्वास नहीं है, क्या?"  मैंने कहा, विश्वास होता तो यहां क्यों आते। बाकी हम तेरे काम में दखल नहीं देंगे।  हमें सिर्फ क्रिकेट की गेंद चाहिए। (बचपन से ही हम स्वार्थी हो  जातें है,  12 साल की उम्र में भी सफ़ेद झूठ बोलना सीख लिया था।) उसने कहा कि अभी मैच चल रहा है, हमें यहां कुछ देर धूप में बैठना होगा। मैंने उससे कहा, इतनी दूर से बैठकर खेल देखने से अच्छा थोड़ा आगे पेड़ के नीचे छांव में बैठते है। वहाँ से खेल देखने का मजा भी ज्यादा आयेगा। वो बस मुस्कुराया और कहा, अब तुम आ ही गए हो तो चुपचाप यहीं बैठो और तमाशा देखो। झकमार कर हम दोनों उसके साथ तेज धूप में चुपचाप बैठे रहे। कुछ ही देर बाद बल्लेबाज ने गेंद को जोर से मारा और गेंद हमारी दिशा में उछलकर आई। ऐसा लग रहा था कि गोटू इसी पल का इंतजार कर रहा था। उसने गेंद को उठाया और चिल्लाया, भागो भागो। एक पल के लिए हमें कुछ समझ नहीं आया, लेकिन हमने उसे दौड़ते हुए तेजी से सड़क पार करते हुए देखा, डर के मारे  बिना कुछ विचार किए हम दोनों उसके पीछे भाग लिए।  तेज भागतेट्राफिक को नजरंदाज करके हमने रोड क्रॉस किया। भगवान का शुक्र है, हमारा आक्सीडेंट नहीं हुआ। दरियागंज दीवार में बने एक छेद से अंदर घुसने के बाद ही चैन की सांस ली। गोटू ने हमारी तरफ देखकर  हँसते  हुए कहा, क्यों आया न मजा। अबे बेवकूफों की तरह क्यों बैठे रहे। थोड़ी और देर हो जाती तो, पकडे जाते। बहुत मार पड़ती है। कभी कभी तो पुलिस को भी सौंप देते हैं। जान हथेली पर रख कर गेंद जुटता हूँ तुम्हारे लिए, फिर भी भरोसा नहीं करते हो।

मेरे मन में ख्याल आया कि अगर मैं पकड़ा गया होता तो....  शायद बहुत पिटाई होती। घर वालों को पता लगता तो, कल्पना करना भी असंभव था। क्रिकेट खेलना तो बंद हो ही जाता। और तो और,गली-मोहल्ले में लोग चोट्टा कहकर पुकारते। मैंने हिम्मत करके उससे पूछ ही लिया की वह यह सब क्यों करता है। एक पल के लिए  उसकी आँखों में पानी आ गया, उसने कहा कि उसके दो छोटे भाई और एक बहन है। उसकी मां का दो साल पहले निधन हो गया था, उसके पिता ने दूसरी शादी की। उसके पिता साप्ताहिक बाजारों में शाम को सब्जी की रेडी लगाते हैं। वह इस काम में अपने पिता की मदद करता है। लेकिन पिताजी उसे जेब खर्ची के लिए छदाम भी नहीं देते। सौतेली मां उनके लिए कुछ नहीं लाती। अगर वह अपने पिता से उसकी शिकायत करता है, तो वे उल्टे उसे ही पीट देते हैं। अपनी जान जोखिम में डालकर कमाए पैसों से  वह छोटे भाई-बहनों के लिए  मिठाई, कपड़े आदि खरीदता है। उस उम्र में मुझे नहीं पता था कि आगे क्या कहूं। मैं चुप ही रहा। कुछ लोगों के लिए जिंदगी की डगर बहुत ही  मुश्किल होती है। यही सच है। उसने हमसे वादा किया कि वह आज की घटना के बारे में हमारे टीम में किसी को नहीं बताएगा। उसने अपना वादा निभाया। मैं और मेरे दोस्त ने भी इस घटना का जिक्र किसी से न करने की कसमें खाई। कई सालों तक इस राज को हमने किसी पर जाहीर नहीं किया। सच जानने के बावजूद भी अगले दो-तीन साल हम उससे गेंद खरीदते रहे। बाद में वह मुझे दिखाई नहीं दिया। आज सोचता हूँ सारे चोर बाजार हमारे जैसे स्वार्थी, मतलबी लोगों की वजह से ही चलते है।  परंतु जब खुद के घर में चोरी होती है, तब हम पुलिस और सरकार को गालियां देते हैं। जब की इसके दोषी हम खुद होते हैं। 

  पुरानी दिल्ली की यादें (6): जमुना किनारा

मंगलवार, 24 मई 2022

पुरानी दिल्ली के यादें (4) गर्मीकी छुट्टियाँ : सुबह की सैर और आशिक़ी का किस्सा

उन दिनों तीस अप्रैल को स्कूलों का परीक्षा परिणाम आता था और  पंधरा मई से  छुट्टियाँ लगती थी। घरोंमें पंखे नहीं थे। मोहल्ले के सब लोग छत पर ही सोते थे। स्कूल जाते समय बेशक माँ को हमे उठाना पड़ता हो, पर छुट्टियों में हम सुबह पाँच बजे से पहले उठ जाते थे। सैर को जो जाना होता था। दस बारह साल के हम बच्चोंकी टोली, थैली  में  दूध की बोतलें लेकर मोहल्ले से सुबह पाँच बजे तक निकल पड़ती थी। नई बस्ती से बाहर एक चौक था। एक तरफ फायर स्टेशन जो आज भी है और दूसरी तरफ टीबी हॉस्पिटल। उसके बाजू में डीएमएस का दूध का डिपो था। जिसे शायद चित्रा गांगल नाम की एक मराठी लड़की उसे लड़की चलाती थी। उस समय  डीएमएस का दूध लेने के लिए टोकन जरूरी होता था। जो अलुमिनियम बना होता था। जिस पर नाम, पता और दूध की मात्रा लिखी होती थी। दूध के डिपो पर दूध डिलिवरी करने वाली महिलाओंका ही कब्जा था। एक महिला हमारे मोहल्ले में डीएमएस का दूध लेकर घरों तक पहुँचती थी।  हम अपनी बोतलें उसे सौंप, देते थे।  हमारे परिवार में हम पाँच भाई बहन। मिलकर सात सदस्य थे, फिर भी केवल एक लीटर टोंड दूध घर आता था। जो शायद बहुत कम था। हमारी माँ दूध गरम करते समय दूध में पानी मिला देती थी। ताकि सभी बच्चोंकों कम से कम एक-एक कप दूध पीने को मिल जाए। उसके बाद हमारी टोली आगे निकाल पड़ती थी। नोवेल्टी सिनेमा के सामने रेलवे लाइन के ऊपर बने पुल से चलते हुए  हम मोरी गेट पहुँच जाते थे। मोरीगेट से एक गली कश्मीरी गेट की तरफ जाती थी। जिसके एक तरफ दिल्ली की दीवारोंके पुराने अवशेष और दूसरी तरफ क्रिकेट का मैदान और उसके बाद तिकोना पार्क था। आज इस पार्क का बहुत बड़ा हिस्सा मोरी गेट के डीटीसी स्टैंड ने खा लिया है और नाम भी बदलकर महाराजा अग्रसेन पार्क हो गया है।  तिकोने पार्क में फूलोंके पौधे बहुत कम थे। इसलिए हम सड़क को पार कर कुदसिया बाग पहुँच जाते थे। यह  तरह-तरह के फूलोंसे भरा बहुत बड़ा पार्क था। आज इसका भी काफी बड़ा हिस्सा सड़कों ने लील लिया है। कुदसिया बाग  मोगरे के फूलोंकी भी कई बेलें थी। हमारा परिवार महराष्ट्रियन था। घर में एक छोटासा मंदिर भी था। माँ रोज सुबह स्नान करने के बाद पूजा करती थी। पूजा के लिए भी फूल चाहिए होते थे।  खेलने के बाद बहुत सारे फूल हम इक्कठा कर लेते थे। माँ को मोगरे की वेणी पहनना भी अच्छा लगता था। गर्मीयोंकि छुट्टियों में उनका यह शौक पूरा हो जाता था। एक पुरानी मस्जिदनुमा इमारत भी बाग थी। जो शायद कुदसिया बेगम ने बनवाई थी या उनकी याद में बनी थी।  इस पार्क में  घण्टेभर खेलने के बाद हम पुन घर की लौट पड़ते थे। रस्ते में रेलवे पुल पर रुक कर थोड़ी देर रेल के डिब्बोंकी शंटिंग होते हुए देखते थे। इंजन के छोड़ने पर डिब्बे अपने आप सौ मीटर का फासला तय करके दूसरे डिब्बों से जुड़ जाते थे। यह सब देखने में बड़ा मजा आता था। 

पुरानी दिल्ली में मुगल शहजादियोंकि आशिक़ी के कई किस्से मशहूर थे। एक जैसे किस्से कई शहजादियोंके नाम पर सुनने के बाद इनपर विश्वास करना कठिन होता था। पर यह किस्से भी पुरानी दिल्ली की आत्मा है।  ज़्यादातर किस्सो में बादशाह औरंगजेब को खलनायक के रूप में पेश किया जाता था।  

एक ऐसा ही एक किस्सा। कहा जाता है, दूसरों के सामने गर्दन न झुकानी पड़े इसलिए बादशाह शहजादियोंकि शादी नहीं करते थे। पर दिल तो मोहब्बत के आगे मजबूर हो ही जाता है। एक शहजादी को मोहब्बत हो गयी। आशिक उससे रोज मिलने आने लगा। बादशाह को यह बात पता लगी। शहजादी और उसके आशिक को रंगेहाथ पकड़ने के लिए जासूसों से सूचना मिलते ही बादशाह औरंगजेब शहजादी के महल पहुंचा। बादशाह को आते देख शहजादी ने अपने आशिक को पानी भरे एक बड़े देग में छिपा दिया। औरंगजेब को वहाँ कोई गैर मर्द नजर नहीं आया। उसने शहजादी से इस बारे में पूछा तो उसने भी मना कर दिया। औरंगजेब की नजर देग पर पड़ी। वह स्वभाव से ही क्रूरकर्मा था। उसने सिपाहियों कों देग के नीचे लकड़ियाँ जलाने को कहा। उसे लगा जब देग में भरा पानी उबलने लगेगा तब आशिक खुद ही चीखते-चिल्लाते बाहर निकलेगा। पर औरंगजेब को क्या मालूम, सच्चे आशिक मोहब्बत पर हँसते-हँसते कुर्बान हो जाते है। अपनी महबूबा की इज्जत पर आंच न आए, इसलिए उबलते-तड़पते हुए मरते समय भी आशिक के मुंह से आह तक नहीं निकली। औरंगजेब मुंह लटकाकर वहाँ से चला गया। एक अदने से आशिक ने बादशाह को परास्त कर दिया था। यही है मोहब्बत की ताकत। 

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पुरानी दिल्ली की यादें (5): गोटू और क्रिकेट की गेंद 

मंगलवार, 10 मई 2022

पुरानी दिल्ली के यादें (3): चुन्नी मियां और बकरा

नई बस्ती से तिलक बाजार की ओर जाने वाली गली में  एक कमरे में चुन्नी मियां रहते थे।  उनकी उम्र उस समय कम से कम साठ साल तो होगी ही। सफ़ेद दाढ़ी, मैलासा सफ़ेद कुर्ता-पाजामा, एक पुरानी मेज और उतनी ही पुरानी उषा सिलाई मशीन। यही चुन्नी मियां की पहचान थी। उसी गली में अमजद कसाई की दुकान भी थी। (शोले  फिल्म के बाद मोहल्ले के  बच्चे उन्हें गब्बर सिंह के नाम से पुकारने लगे। उनकी दुकान के सामने से गुजरते समय बच्चे ज़ोर-ज़ोर से शोले का डाइलाग बोलते थे, "पचास कोस दूर के बकरे अमजद कसाई का नाम सुनकर ...)  


उस समय दशहरे पर दिल्ली में स्कूलोंको 10 दिन की छुट्टियाँ होती थी। छुट्टियाँ शुरू होते ही हम चुन्नी मियां का घर आने का इंतजार करते थे। जब चुन्नी मियां इंच-टेप और माप लिखने के लिए एक पुरानी फटी हुई नोटबुक लेकर घर आते थे। तो हमारी खुशी का ठिकाना ही नहीं रहता था। क्योंकि साल में एक बार दिवाली पर नए कपड़े जो पहनने को मिलते थे।  कपड़ा और सिलाई सब चुन्नी मियां का होता था।  चुन्नी मियां के सिले हुए शर्ट और निक्कर पहने हुए बच्चे दूर से ही पहचाने जाते थे। शायद एक ही थान से सबके कपड़े सिलते थे।  

उस समय चुन्नी मियां और अमजद कसाई के बीच बातचीत बंद थी। चुन्नी मियां का कहना था, अमजद कसाई ने कपड़े सिलवाने की सिलाई नहीं दी थी। उधर अमजद कसाई का कहना था, चुन्नी मियां ने उसके महंगे कपड़े बर्बाद कर दिये। इसलिए चुन्नी मियां को हर्जाना देना चाहिए।  चुन्नी मियां के लिए अमजद भाई जैसे दबंग आदमी से पैसे वसूल करना संभव नहीं था। परंतु हर आने जाने वाले से वे अमजद की शिकायत करते थे। कुछ ही दिनों में मौहल्ले में सबको मालूम हो गया अमजद कसाई ने चुन्नी मियांकों सिलाई के पैसे नहीं दिये। मेरा मुस्लिम दोस्त कालू (उसका असली नाम क्या था, यह मैंने उससे कभी नहीं पूछा), हमे चुन्नी मियां से पंगे लेने में बड़ा मजा आता था। उन दिनों जब भी चुन्नी मियां के दुकान के सामने से गुजरते थे, ज़ोर से आवाज देकर उनसे पूछते थे,  "मियांजी, अमजद ने आपके पैसे दिए या नहीं"। मियांजी  उतनी ज़ोर से चिल्लाते थे, नाम मतलो उस पाजी हरामखोर का?  वह क्या समझता है, चुन्नी  मियां के पैसे डुबायेगा, मेहनत की कमाई है.  पैसे नहीं चुकाए तो देखना कोई बकरा एक दिन उसकी मोटी गर्दन पकड़कर उसे हलाल करेगासुबह-सुबह आ जाते हो खामका परेशान करने. भागो शैतानो यहां से कहते हुए पास पड़ा हुआ डंडा उठा हमे मारने के लिए दौड़ते थे। हम हँसते हुए वहाँ से भाग निकलते थे। 

एक दिन हमने  मियांजी की दुकान के सामने एक बकरे को बंधा हुआ देखा।  मियांजी ने बकरे को अपने हाथों से बादाम खिला रहे थे। मैंने मियांजी से पूछा, मियांजी बकरा क्यों खरीदा है। मियांजी बोले "कुर्बानी के लिए खरीदा है।  कालू से नहीं रहा, वाह! मियांजी, यहाँ दो टैम रोटी के लाले पड़े हैं और बकरा बादाम पाड रिया है।  चुन्नी मियां ने उसकी ओर देखा और कहा, "यहाँ आजा बंध जा, तुझे भी बादाम खिलता हूँ " और गले पर चाकू फेरने का नाटक किया। कालू भी कहाँ कम था, वह ज़ोर से मियांजी पर चिल्लाया, बादाम की खातिर, बच्चे को मार डालोगे क्या, खुदा का कहर टूटेगा। जहन्नुम में जाओगे, मियांजी। चुन्नी मियां  हाथ में डंडा में लिए हमारी तरफ देखते हुए कहा, अभी बताता हूँ शैतानों खुदा का कहर क्या होता है। हमेशा की तरह हम वहाँ से भाग निकले।

बकरीद के दो-तीन दिन बाद हम फिर मियांजी की दुकान के सामने से गुजरे। देखा बकरा वहीं बंधा हुआ था। चुन्नी मियां भी उदास दिखे। मैंने मियांजी से पूछा,  मियांजी बकरे की कुर्बानी नहीं दी क्या? मियांजी ने धीमी उदास आवाज में कहा, बेटा क्या करूँ दिल लग गया..। मियांजी आगे कुछ बोलते, कालू ने  कहा, "क्या समय आ गया है, इस उम्र में मियांजी को बकरे से मोहब्बत हो गयी है। मुझे  चाचीजान को बताना ही पड़ेगा। मियांजी ने अपने पास रखे डंडे को उठाया और गुस्से से बोले, बत्तमीज, शैतानो, पहले बोलने की तमीज़ सीखकर आओ, भागो यहाँ से। उस समय वहां से भागना ही अच्छा था।

करीब एक हफ्ते बाद जब हम वापस मियांजी की दुकान पर गए तो वहां बकरा बंधा हुआ नहीं था। बकरे का आखिर क्या हुआ यह जानने के लिए मैंने मियांजी से पूछा, मियांजी बकरा कहाँ गया? मियांजी ने कहा, अमजद कसाई को बेच दिया। कई दिनों से उसकी बकरे पर नजर थी। मैंने बात काटते हुए पूछा, मियांजी अमजद ने पैसे दिये या मुफ्त में उड़ा ले गया। मियांजी ने कहा, पूरे नगद २०० रूपये में बेचा है। ये बात अलग है इतने के तो बादाम खा गया होगा वह  हरामखोर, पाजी बकरा. फिर भी सौदा घाटे का नहीं रहा. तभी कालू बीच में बोल पड़ा, मियांजी, आप तो उससे मोहब्बत करते थे। कसाई को बेच दिया उसे। अब तक तो कट भी चुका होगा. चंद चांदी के टुकड़ों की खातिर आपने मौहब्बत कुर्बान कर दी, लानत है आप पर. इस बार मियांजी को उसकी बात सुनकर गुस्सा नहीं आया। मियांजी बोले, अरे काहे की मोहब्बत, एक दिन रात के टैम उस कमीने को बादाम खिला रहा था, उसने इंसानी आवाज में कहा, मियांजी, ख़बरदार मुझे कुर्बान किया तो, अगले जन्म में कसाई बनकर तेरी गर्दन पर छुरी चलाऊंगा.  मैं तो घबरा गया। सोचने लगा इस हरामखोर बकरे का क्या करूँ, तभी मुझे अमजद कसाई का ख्याल आया. बेच दिया उसको. कालू ने हँसते हुए कहा, तो अगले जन्म में अमजद कसाई कि गर्दन पर छुरी चलेगी. एक तीर से दो शिकार कर दिये मियांजी आपने. चुन्नी मियांजी की एक उदास हंसी आसमान में गूंज उठी। 

बाकी  दबंग अमजद कसाई की नजर उस बकरे पर पड़ गयी थी। अमजद कसाई को सस्ते में बकरा बेचने के सिवा चुन्नी मियां के सामने और कोई रास्ता नहीं था।  


गुरुवार, 5 मई 2022

पुरानी दिल्ली के यादें (2): सुशीला मोहन, स्वतन्त्रता सेनानी और वकील साहब


मकान मालिक वकील साहब थे फिर भी पुरानी दिल्ली में मकान को सुशीला मोहन का मकान  के नाम से जाना जाता था। सुशीला मोहन एक क्रांतिकारी थी। भगत सिंह, दुर्गा भाभी इत्यादि के साथ उन्होने कार्य किया था।काकोरी षड्यंत्र में जब राम प्रसाद बिस्मिल और उनके साथियोंकों बचाने के लिए सुशीला दीदी ने दस तोला सोना दिया। भगत सिंह को बचाने के लिए भी उन्होने 12000 रुपया एकत्रित किया था।  उनकी ब्रिटिश विरोधी गतिविधियोंकि वजह से 1932 में उन्हे छह महीने की सजा भी हुई थी। जेल से छूटने के बाद सुशीला दीदी ने सन 1933 में अपने ही एक सहयोगी वकील श्याम मोहन से विवाह किया। पुरानी दिल्ली के लोग उन्हे वकील साहब और मोहल्ले के चाचाजी के नाम से पुकारते थे।1942 के आंदोलन में भी उन्होने भाग लिया था। पति-पत्नी दोनों को सजा भी हुई थी। 


सुशीला दीदी ने विवाह से पूर्व एक बालक को गोद लिया था। जिसका नाम उन्होने प्यार से सतीश रखा था। हम मोहल्ले के बच्चे उन्हे सतीश काका के नाम से पुकारते थे। (मराठी मे काका चाचा को कहते  है)। शायद  सबसे पहले मेरे बड़े भाई ने उन्हे काका करके बुलाया होगा। सुशीला दीदी को कोई संतान नहीं हुई। परंतु यह सुशीला दीदी का दुर्भाग्य था की निसन्तान होते हुए भी चाचाजीने सतीश काका को कभी अपना नहीं माना। मैं जब दो साल का था अर्थात 1963 में सुशीला दीदी का स्वर्गवास हो गया था। मेरी माँ ने दीदी बारे में जो कुछ बताया उसके अनुसार वह सभी किराएदारोंकों अपने परिवार का ही मानती थी। जरूरत पड़ने पर उनकी धन और तन से सहायता भी करती थी। उन्होने मरने से पहले चाचाजी से वचन लिया था की वे किसी किराएदार को निकलेंगे नहीं। चाचाजी ने मरते दम तक अपनी पत्नी को दिए वचन का पालन किया।  

चाचाजी बहुत ही कठोर स्वभाव के थे। वकीली चोगे, सर पर ब्रिटिश हैट और हाथ मे छड़ी लेकर जब वह निकलते थे, तब उनका रौब देखते ही बनता था। गली- मोहल्ले के किसी बालक को गाली देते देखते ही उनका पारा चढ़ जाता था। जब तक छड़ी से उस बालक की अच्छी तरह  धुलाई नहीं कर लेते, उन्हे चैन नहीं मिलता था। उनके सामने किसी की भी बोलने की हिम्मत नहीं होती थी। यही कारण था पुरानी दिल्ली में रहते हुए भी हमारे  मुख से कभी 'साला' शब्द भी नहीं निकला। एक बार मोहल्ले के किसी बच्चे ने जमीन पर पड़ा तीन पैसे का सिक्का उठा लिया था। उसकी चाकलेट खरीद कर वह घर आया। दुर्भाग्य से चाचाजी की नजर उस पर पड गयी। मैं उस समय पाँच साल का हूंगा। पर अभी भी उस बच्चे की धुलाई याद है।  जिंदगी में कभी भी जमीन पर गिरा पैसा उठाने की हिम्मत नहीं हुई। शायद यही कारण था किरायेदारोंका कोई भी बालक निकम्मा नहीं निकला। एक डॉक्टर, एक इंजीनियर बाकी सरकारी नौकरी में या खुद के काम- धंधे में सफल हुए। 

सुशीला दीदी के गोद लिए बालक सतीश काका का विवाह पंजाब से निर्वासित परिवार की सुमन नाम की स्त्री से हुआ था। हम बच्चे उन्हे सुमन आंटी नाम से बुलाते थे। एक कमरे मे वे रहते थे। सतीश काका चाय बेचकर अपना गुजारा करते थे। चाचाजी ने शायद ही कभी उनकी आर्थिक मदत की हो। इसपर भी सुमन आंटी ने चाचाजी की तन-मन से सेवा की। उनके नाश्ते, भोजन इत्यादि का वह खास खयाल रखती थी। उन्हे भी कोई संतान नहीं हुई। सतीश काका मिलनसार और मृदभाषी थे। बच्चों में खासे लोकप्रिय थे। सदा हंसी मज़ाक करते रहते थे। मैंने कभी उन्हे नाराज होते नहीं देखा। 

सुशीला दीदी के मरने के बाद वकील साहब अपनी वसीयत और मकान अपने भतीजे के नाम कर दिया। जो कभी कभार ही उनसे मिलने आता था। वैसे तो चाचाजी  पक्के कोंग्रेसी थे। कांग्रेस के स्थानीय नेता सदा उनका आशीर्वाद लेने आते थे। उन्हे स्वतन्त्रता सेनानी का खिताब भी मिला। सिद्धांतवादी चाचाजीने पेंशन लेने से इंकार कर दिया था। जीवन के आखिरी पड़ाव पर उनके विचारधारा में परिवर्तन दिखाई दिया। 1978 में जमुना में बाढ़ आयी थी, उन्होने और मोहल्ले की महिलाओं सुमन आंटी, मेरी माँ इत्यादि ने गली और मोहल्ले में घर-घर जाकर पैसा आटा-चावल इत्यादि इकठ्ठा किया था। बेड़े में हलवाई के साथ मोहल्ले की महिलाओंने पूरिया तली, आलू की सब्जी बनी। पूरी-सब्जी, कपड़े, आटा-चावल, दाल बाढ़ पीड़ितों तक पहुँचाने की ज़िम्मेदारी उन्होने आरएसएस के कार्यकर्ताओं को सौंपी। शायद आपातकाल इसका कारण रहा हो। 

1979 में उनकी तबीयत खराब हो गयी और उनका स्वर्गवास हो गया। उनके भतीजे ने तत्काल ही मकान बेचने की प्रक्रिया शुरू कर दी। 'गाजर, डंडा और कानून' के प्रयोग से सभी किराएदारों से मकान खाली करा लिए। उस समय हमारे घर की हालत भी खस्ता थी। मुंबई के दलाल मजदूर नेताओंकी वजह से वहाँ  हड़तालें चल रही थी। जिसकी लपेट मे हमारे पिताजी की भी कंपनी थी। तनखा आधी-अधूरी मिल रही थी। केवल पाँच हजार रुपए लेकर हमारे पिताजी ने वह मकान छोड़ दिया। हमारा परिवार पश्चिमी दिल्ली अर्थात हरी नगर आ गया। इसके साथी ही हमारा भाग्योदय भी हुआ। जिसकी चर्चा फिर कभी। 

आपके मन में भी खयाल आया होगा मकान बेचने के बाद सतीश काका का क्या हुआ। सुमन आंटी के एक भाई सरकारी नौकरी में थे। उन्होने अपना एक फ्लॅट सतीश काका को रहने के लिए दे दिया। जहां वे अंत समय तक रहे। अपनी बहन के लिए एक भाई ने किराए की आमदानी पर पानी छोड़ दिया। 

क्रमश: अब एक किस्सा: चुन्नी मियां और बकरा (एक गरीब दर्जी और एक दबंग कसाई और बेचारा बकरा)



सोमवार, 2 मई 2022

पुरानी दिल्ली की यादें:(1) १७५६, कुंए वाली गली नई बस्ती दिल्ली ६


सन 1980 तक हमारा परिवार इसी मकान में किराए पर रहता था। अपनी उम्र के 20 वर्ष मैंने यही बिताए। पुरानी दिल्ली में मकानों के नंबर होते थे परंतु नंबर के सहारे मकान ढूंढना बहुत ही मुश्किल कार्य था। अधिकांश मकान नाम से अथवा काम से जाने जाते थे। जैसे अचारवालों का मकान इत्यादि। हमारे मकान को भी सुशीला मोहन के मकान के नाम से जाना जाता था। स्वर्गीय  सुशीला दीदी एक स्वतंत्रता सेनानी थीl उन्होंने भगत सिंह, दुर्गा  भाभी, चंद्रशेखर आजाद इत्यादि स्वतंत्रता सेनानियों के साथ काम किया था।   



1756, यह एक आयताकार मकान था। मकान में प्रवेश करते ही शौचालय के दर्शन होते थे। पहले शौचालय नीचे ही होते थे। उसके बाद एक जीना दांई तरफ ऊपर जाता था यहां सामने एक वरांडा और दो कमरे जिनमें हमारा परिवार रहता था। बगल में एक वरांडा और एक कमरे में दीक्षितजी जो दिल्ली के एक प्रसिद्ध अंग्रेजी अखबार के संपादक मंडल में थे।  परिवार में वह और उनकी पत्नी जिन्हें हम भाभीजी कहते थे। उनकी कोई खुद की संतान नहीं थी। परंतु एक भतीजा और भतीजी पढ़ने के लिए साथ में रहते थे। उनके वरांडे में सामने की तरफ रसोई घर तथा एक बाथरूम जो दोनों परिवारों के  पानी भरने और स्नान के काम आता था। एक जीना ऊपर  छत पर जाता था। छत पर एक कमरा था। जहां बनर्जी नाम के एक चित्रकार रहते थे। उन्होंने शादी नहीं की थी।  मुझे याद है उनका एक-एक चित्र उस जमाने में भी दस-दस  हजार का बिकता था। कभी-कभी उनका एक भाई  हालचाल जानने आ जाता था।  वह सिगरेट बहुत  पीते थे। अकेले में रहना पसंद करते थे। परंतु बंदरों से उनकी अच्छी यारी दोस्ती थी। बंदरों नहीं कभी भी उनकी किसी भी चित्र को नहीं पहुंचाया। 

यह तो दाएं भाग में रहने वाले किरायेदारों की बात। आगे एक हैंडपंप था। हैंडपंप का पानी मीठा था। पहले यहां कुआं हुआ करता था। हैंडपंप के बाद एक जीना सीधा ऊपर की मंजिल पर जाता था। ऊपर पहली मंजिल पर एक जैन परिवार, दो पंजाबी परिवार और एक गुजराती परिवार रहते थे। नीचे सामने की तरफ एक बड़ा कमरा था। जो किताबों गोदाम था। उसका दूसरा  दरवाजा मंदिर वाली गली की ओर खुलता था। नीचे दाई तरफ एक काफी बड़ा बेड़ा था। एक मधुमलाती की बहुत बड़ी बेल थी जो खंबोंके सहारे फैली हुई थी। कई सौ चिड़ियोंका घर भी थी। एक जैन परिवार किराए पर रहता था। तथा बाकी बहुत बड़े इलाके में हमारे मकान मालिक श्याम मोहन जिन्हे लोक  वकील साहब कहते थे। हम उन्हे चाचाजी के नाम से बुलाते थे। मकान के पीछे एक पतली गली थी और काबूलीगेट का स्कूल का पिछला हिस्सा था। एक चोर दरवाजा इसी गली की ओर खुलता था।स्वतन्त्रता सेनानी इसी दरवाजे का उपयोग करते थे। 

काबुलीगेट स्कूल का प्रवेश द्वार नया बाजार की तरफ था। पहले यहां काबुली दरवाजा होता था। जो अठारह सौ सत्तावन की युद्ध मे नष्ट हो गया था। अट्ठारह सौ सत्तावन में इस दरवाजे के बाहर भयंकर युद्ध हुआ था। ब्रिटिश सेना के ब्रिगेडियर निकलसन यहां मारे गए थे। बाद में यहां स्कूल बना। कई किस्से कहानियां और अफ़वाएं इस युद्ध को लेकर लोगों में प्रचलित थी। कहते है,आज भी अमावस की रात घोड़ों के टापोंकी और सैनिकों के चीखने चिल्लाने की आवाज सुनाई देती है। कई लोगों को ब्रिगेडियर निकलसन का कटा दिखाई देने के किस्से भी प्रचलित थे। वैसे यह बात अलग है,  हमारे दोनो कमरोंकी  खिड़कियां भी काबुली गेट स्कूल की तरफ खुलती थी।  रात को बंदरों की उछल कूद की आवाजें आती थी। हमें कभी भी सैनिकों की चीखें सुनाई नहीं दी। ब्रिगेडियर निकलसन नहीं दिखाई दिया। हमारे पिताजी, चाचा और बुआएं भी काबुली गेट स्कूल में पढ़ी थी। हमारे दादाजी  आज से सौ वर्ष पूर्व दिल्ली आए थे। नया बाजार में किराए के मकान में रहते थे।उनका रंग-रसायन का काम था। १९४७ धंधा तबाह हो गया। वे वापस नागपुर चले गए। बाद ने हमारे पिताजी नौकरी के सिलसिले में दिल्ली आए और इसी मकान में किराए पर कमरा लिया। 

क्रमश: भाग दो: सुशीला मोहन और वकील साहब