अन्ति सन्तं न जहात्यन्ति सन्तं न पश्यति ।
देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति ॥अथर्ववेदः १०।८।३२॥
(ऋषि कुत्स: देवता: आत्मा)
सरल अर्थ: अत्यंत समीप होने के कारण हम (जीवात्मा) परमात्मा (आत्मा) को छोड़ नहीं सकते। अत्यंत निकट होते हुए भी, हम (जीवात्मा) परमात्मा(आत्मा) को देख नहीं पाते हैं। ऋषि कहता है, हे जीव ! तू आत्मा के काव्य देख, जो न कभी मृत्यू को प्राप्त होती है, न जीर्ण होती है।
वेद कहते हैं "अहम ब्रह्मास्मि"। मैं ही ब्रह्म हूँ। इस नश्वर देह में ही परमात्मा का निवास है। परमात्मा हमारे भीतर ही स्थित है फिर भी हम इसे न आँख से देख सकते हैं, न कान से सुन सकते हैं। क्योंकि आत्मा शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध से परे है। हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों से आत्मा को अनुभव नहीं कर सकते। इसलिए कुछ लोग भगवान पर विश्वास ही नहीं करते हैं। उनका विश्वास है, देह के साथ सब कुछ नष्ट हो जाता है। इसलिए ऋषि कहते हैं, अपने हृदय में स्थित आत्मा को जानना है तो उसका काव्य देखो। हम सभी जानते है, कवि सृजन करता है। परमात्मा तो सबसे बड़ा कवि है। उसने ब्रह्मांड का सृजन किया है जिसमें अब्जावधि आकाशगंगाएँ समाहित है। हर आकाशगंगा में अब्जावधि तारें होंगे। ब्रह्मांड में हमारी पृथ्वी की तरह अनगिनत पृथ्वीयाँ होंगी, जिनपर जीवन फलफूल रहा होगा। लाखों हर रोज सृजित होती होगी और नष्ट भी होती होगी। यह सब कल्पना से परे है। हमारी पृथ्वी को ही लें बर्फ से ढके पर्वत, कल कल बहती नदियां, जंगल, रेगिस्तान, महासागर, फल-फूल पेड़-पौधे, नानाविध जीव जन्तु सभी उस परमात्मा की रचनाएँ है। सभी जड़ और चेतन जीव पाँच ही तत्व मिट्टी, पानी, वायु, अग्नि और आकाश से बने है। जिन तत्वों से हमारा शरीर बना है, उन्ही तत्वों से सारा ब्रह्मांड बना है। परमात्मा की इसी लीला को जब हम जान लेते हैं की जड़ और चेतन में कोई अंतर नहीं है। सृष्टि के निरंतर चलने वाले चक्र का हम बस एक अंश भर है तब हमारे मन से राग द्वेष घृणा की सभी भावनाएं नष्ट हो जाती है। भगवान कृष्ण ने अर्जुन को अपना यही विराट स्वरूप दिखाया था। अर्जुन का मोह नष्ट हो गया, सभी शंकाएँ मिट गयी। उसे अपने कर्तव्यपथ का ज्ञान हो गया। जब हम जान जाते हैं, सभी कुछ परमेश्वर की इच्छा से होता है तब हम उसकी शरण में चले जाते है और अपने कर्तव्यपथ से किसी भी परिस्थिति में विमुख नहीं होते। क्योंकि हम अपने हृदय में स्थित परमेश्वर को जान चुके होते हैं।
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