गुरुवार, 30 मार्च 2023

वार्तालाप (4): मन में उठने वाले सकारात्मक और नकारात्मक विचार

 

मानव मन एक अथाङ्ग सागर है। हर क्षण करोड़ों विचार तरंगे हमारे मन मे क्षण भर के लिए उठती है और नष्ट हो जाती है। परंतु कुछ विचार तरंगे सदा के लिए हमारी स्मृति मे दर्ज हो जाती है। हमारे धर्मग्रंथ कहते हैं, विधाता के मन में विचार आया और सृष्टि का निर्माण हुआ। हमारे प्राचीन ऋषियोंका कहना है की "इस ब्रह्मांड में जो कुछ भी है वह हमारे शरीर में भी है।" अरबों खरबों सूष्म कोषों से हमारे शरीर की निर्मिति हुई है। प्रत्येक सूष्म कोष का स्वतंत्र अस्तित्व होता है ऐसा विज्ञान मानता है। प्रत्येक सूष्म कोष में दर्ज विचार एक ब्रह्मांड की निर्मिति करने में सक्षम है। मन में उठने वाले विचार ही कोषों में स्मृति का निर्माण करते हैं।  ब्रह्मांड के निर्माण के साथ ही इन कोषों की स्मृति भी बढ़ती रहती है और उसी स्मृति के अनुसार पृथ्वी पर मानव समेत सभी जीव-जन्तु, वनस्पतियोंका निर्माण हुआ है। मनुष्य के  समस्त जीवन, धर्म अर्थ काम और मोक्ष तक का प्रवास, कोषों में दर्ज स्मृतियाँ ही तय करती है। मनुष्य कोषों में दर्ज स्मृति अपनी भविष्य की पीढ़ी को भी देता है। इसीलिए हमारी शारीरिक और मानसिक बनावट हमारे पूर्वजों की तरह होती है। पूर्वजों की बीमारियाँ भी हमे इसी वजह से मिलती है। 

मन में उठने वाले सकारात्मक विचारों से  सकारात्मक स्मृतियों बनती है जो मनष्य को धर्म मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती है। मनुष्य को ज्ञानवान, कर्मशील और पुरुषार्थी बनाती है। सभी प्राणियोंके जीवन के अधिकार का सम्मान करना सिखाती है। दूसरी ओर नकारात्मक विचार नकारात्मक स्मृतियाँ बनाते हैं जो हमारे शरीर में स्थित सूष्म कोषों को भ्रमित करती हैं। भ्रमित कोष शरीर को ही  शारीरिक और मानसिक हानी पहुंचाने लगते हैं। मनुष्य ज्ञानहीन, कर्महीन, अधर्मी और हिंसक बन जाता है। युद्ध, रोग आत्महत्या इत्यादि का मुख्य कारण मन में उठने वाले नकारात्मक विचार ही है।   

मनुष्य जाती का अस्तित्व ही सकारात्मक विचारों पर टिका है। नकारात्मक विचार हिंसा को जन्म देते हैं और धरती के समस्त जीवन को नष्ट कर सकते हैं। इसलिए सकारात्मक सोचो इस से हमारे सूष्म कोष सृजन कार्य में व्यस्त रहे और पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व बना रहे। 


मंगलवार, 21 मार्च 2023

अप त्यम्  परिपन्थिनम् मुषीवाणम् हुरःचितम् । 
दूरम् अधि  स्रुतेः अज॥
(ऋ.१/४२/३)

ऋषि परमेश्वर से चित्त में उठने वाली मूषक प्रवृति से रक्षा की प्रार्थना कर रहा है। मूषक प्रवृति का अर्थ बिना मेहनत किए दूसरों की वस्तुएँ हड़पने की कभी न समाप्त होने वाली इच्छा, जैसे चूहा हमेशा दूसरोंकी वस्तुएँ कुतरता रहता है। वह दूसरों के खेत से, घर से वस्तुएँ चुरा-चुरा कर अपने बिल में इकठ्ठा करता रहता है। उसकी भूक कभी शांत नहीं होती। मूषक प्रवृति का शिकार मनुष्य भी स्वार्थ में अंधा होकर दूसरों की संपत्ति, धन, दौलत, स्त्री हड़पने के लिए नाना षड्यंत्र रचता है। वह चोरी करता है, डकैती डालता है, रिश्वत लेता है, इत्यादि। समर्थ रामदास कहते हैं, ऐसा करने से पाप इकठ्ठा होता है और एक दिन उसके दुष्परिणाम भुगतने पड़ते है। चूहा भी पिंजरे में पकड़ा जाता है अथवा जहर खाकर मरता है। वैसे ही मनुष्य को भी मूषक प्रवृति के बुरे नतीजे भुगतने पड़ते हैं। आज हम देखते है, समाज के कई शक्तिशाली व्यक्ति भी इसी मूषक प्रवृति के शिकार होकर जेल की सजा काट रहे है। 

आजकल पूरा समाज ही इस मूषक प्रवृति का शिकार हो रहा है। उसे बिजली, पानी, राशन, शिक्षा, इलाज, बैंक में पैसा, जो जो सरकार दे सके  बिना कष्ट किए मुफ्त में चाहिए। कई राजनेता भी वोट बैंक के लिए समाज में मूषक प्रवृति को बढ़ावा दे रहे है। जिसका परिणाम मुफ्त की आदत पड़ने पर अधिकांश लोग मेहनत करना छोड़ देंगे। खेती-बाड़ी उद्योग धंधे समाप्त होने लगेंगे। पाप इकठ्ठा होने से जनता भूक, अराजकता और हिंसा से पीड़ित होने लगेगी। अभी भी समय हाथ से नहीं गया है। समाज में फैली इस दुष्प्रवृति पर लगाम लगाना आवश्यक है। 

 

रविवार, 19 मार्च 2023

वार्तालाप: (3) जीभ और सर्वनाश

जीभ हमारे शरीर का महत्वपूर्ण अंग है। जीभ न हो तो हम भोजन का स्वाद नहीं लेते। जीभ न हो तो हम बोल भी नहीं सकते। लेकिन अगर हम नहीं जानते कि जीभ कि मदत से क्या कहना है और कैसे कहना है तो हमारी जीभ हमारे सर्वनाश का कारण भी बन सकती है।

महाभारत में राजसूय यज्ञ का प्रसंग आता है। महाराज युधिष्ठिर ने कौरवों को राजसूय यज्ञ में आने का यह निमंत्रण दिया था। इस न्योते का एक उद्देश्य कौरवों के साथ मित्रता को मजबूत करना भी था। लेकिन मय दानव द्वारा बनाए गए माया महल में दुर्योधन सहित सभी कौरव पानी से भरे एक कुंड में गिर जाते हैं। उन्हें इस तरह पानी में गिरते देख, द्रौपदी कौरवों का उपहास उड़ाते हुए अपनी सखियों से कहती है, “देखो-देखो, अंधे के पुत्र अंधे, कैसे सब जल में जा गिरे। हा! हा! हा!"। द्रोपदी के कटु वचनों ने दुर्योधन के दिल में गहरा घाव किया। बदले की भावना से वह जल उठा। उसी समय उसने पांडवों का सर्वनाश करने की प्रतिज्ञा की। दुर्योधन ने पांडवों के विनाश के लिए कई षड्यंत्र रचे। आखिरकार महाभारत के युद्ध में पूरे कुरु वंश का विनाश हो ही गया। यदि द्रौपदी ने मूर्खतापूर्ण कटु वचन न बोले होते, तो पांडव इंद्रप्रस्थ में चैन से राज करते और कौरव हस्तिनापुर में सत्ता का सुखपूर्वक आनंद उठाते। समर्थ रामदास स्वामी कहते हैं, मूर्ख व्यक्ति कटु वचन बोलता है और उसका परिणाम भुगतता है। अत: जीभ का उपयोग गलती से भी कटु वचन बोलने के लिए नहीं किया जाना चाहिए।