कुछ दिन पहले मन में ख़्याल आया जाकर देखते हैं, पुरानी दिल्ली में इतना सार्वजनिक निर्माण हो रहा है, क्या कुछ बाग बगीचे मैदान बचे हैं की नहीं। मेट्रो का तिकीट लेकर चाँदनी चौक स्टेशन उतर गया। स्टेशन से बाहर निकाला तो देखा एक ऊंची इमारत का निर्माण चल रहा था। शायद इसी जगह गांधी मैदान था। गांधी मैदान की पुरानी तस्वीर आंखोंके सामने आ गई। गांधी मैदान फव्वारे से हरदयाल लाइब्रेरी तक फैला हुआ था। रामलीला मैदान की तरह ही एक स्टेज यहाँ बना हुआ था। उस समय जनता राजनेताओं के भाषण बड़े चाव से सुनती थी। आंखोंके सामने वही पुराना नजारा छा गया। मुझे पुरानी दिल्ली के शहर के ही उपनाम वाले एक छुटभैये राजनेता की याद आ गई। भाषण चाहे वह गांधी मैदान में दे रहे हो, या खारी बाउली के चौक पर। उनका भाषण हमेशा एक सा ही होता था। उनके कुछ जुमले तो मुझे याद हो गए थे "हिन्दू का खून और मुसलमान का खून लाल ही होता है। हमें इस चुनाव में फ़ूट डालने वाली ताकतों को सबक सीखना है।" वैसे उन्होने जनसंघ, जनता पार्टी से कॉंग्रेस पार्टी तक सभी का चुनाव प्रचार किया था। मुझे याद एक दिन इलाके के कुछ बच्चोने उन्हे चिढ़ाते हुए पूछा, चचाजान, हिन्दू और मुसलमान का खून लाल होता है, यह बात तो हमारे समझ में आ गई, लेकिन आपके खून का रंग कौनसा है। वे उन्हे डंडा लेकर मारने को दौड़े। मेरे हिसाब से शायद वह देश के पहले प्रोफेशनल चुनाव प्रचारक थे। गांधी मैदान की रामलीला भी बड़ी प्रसिध्द थी। मैदान के बीच में बना घूमता हुआ स्टेज इस रामलीला की खासियत थी। दूर-दूर से लोग गांधी मैदान की रामलीला देखने आते थे। रामलीला के बाद इस मैदान पर अक्सर दिवाली मेला या नए साल पर मेला लगता था। उन दिनों मेलोमें झूले, मौत का कुआं इत्यादि के अलावा सरकारी जादूगर खेल दिखते हुए तांत्रिकोंकी पोल खोलते थे। समाज प्रबोधन के कार्यक्रम भी होते थे। उन दिनों लोग पुस्तके खरीदकर पढ़ते थे। हिन्द पॉकेट बुक्स, देहाती पुस्तक भंडार की अँग्रेजी सिखानेकी पुस्तकें और गीता प्रेस के स्टॉल हर मेले में दिखाई देते थे। मेलों मे बच्चों की किताबोंके स्टॉल भी होते थे, जहां चन्दामामा, अमर चित्रकथा, भूतनाथ, चाचा चौधरी इत्यादि कॉमिक लोग अपने बच्चों के लिए बड़े चाव से खरीदते थे। आज के मेलों में पुस्तकें दिखाई नहीं देती। शायद आज के बच्चोंपर स्कूली किताबों का इतना बोछ है की वह चाह कर भी दूसरी पुस्तकें पढ़ नहीं सकते। हर साल एक या दो महीने सर्कस भी इसी मैदान में आती थी। बाकी समय भी मैदान में रौनक लगी ही रहती थी। बंदर का खेल, साँप नेवले की लड़ाई और भालू का नाच दिखाकर लोगोंसे पैसा मांगने वाले मदारी भी दिनभर नजर आते थे। अब मैदान की जगह इमारत ने लेली है। गांधी मैदान अब इतिहास की गर्त में खो गया है।
क्रमश:
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