शायद आज आप गूगल मैप पर पुरानी दिल्ली के कंपनी बाग को न देख पाएँ। क्योंकि अब उसका अस्तित्व ही नहीं बचा है। परंतु यह ब्रिटिश कालीन बहुत बड़ा बगीचा था। फतेहपुरी से पुरानी दिल्ली स्टेशन की तरफ जाने वाली सड़क और चांदनी चौक स्थित टाउन हॉल से पुरानी दिल्ली जाने वाली सड़क के बीच में था। कंपनी बाग मुख्य तौर पर दो हिस्सों में बंटा था। कंपनी बाग के मध्ये से गुजारने वाली एक रास्ता बग़ीचे को दो हिस्सों में बांटता था। बाग दीवार की तरफ से एक खुला मैदान फतेहपुरी से टाउन हॉल की सड़क तक था। दूसरी तरफ छोटे-छोटे बगीचे नेशनल क्लब तक फैले हुए थे। जहां तक मुझे याद है, बगीचे के खुले मैदान में शाम के समय आरएसएस के दो-तीन शाखाएं लगती थी और कुछ लड़के फुटबॉल खेलते थे।मैंने फुटबाल खेलनेवालों, जिसमे ज़्यादातर बंगाली और मुस्लिम लड़के होते थे, आरआरएस की शाखावालोंके के साथ कभी झगड़ा होते नहीं देखा। गर्मियोंके दिनों में यहाँ आकार ठंडक का अहसास होता था। शाम के समय अंधेरा होने पर भी इतनी रोशनी रहती थी कि सब कुछ दिखाई देता था।इसलिए अधिकांश लोग परिवार के साथ शाम के समय यहाँ समय बिताने के लिए आते थे। जब परिवार साथ हो तो खाना-पीना भी होगा ही। पानी-पूरी, चाट, दहीभल्ले, कुल्फी बेचने वालोंकी काफी कमाई हो जाती थी। उस समय प्लास्टिक नहीं था, पत्तों के बने दोनो-पत्तल में ही सभी खाने की वस्तुएँ मिलती थी। प्लास्टिक और कागज का इस्तेमाल न होने से बगीचे में गंदगी भी नहीं होती थी। हमारे मोहल्ले के बच्चे भी अक्सर शाम को ही खेलने कंपनी बाग आते थे। छोटे-छोटे बगीचों के चारों तरफ मेहंदी की झाड़ियों की बाड़ और फूलोंको क्यारियां भी होती थी इसलिए छुपन -छुपाई खेलने में बड़ा मजा आता था। ज़्यादातर हम बच्चे लंगड़ी टांग, रुमाल उठाने का खेल आदि खेलते थे। कंपनी बाग में देर रात तक यहाँ रौनक लगी रहती थी। परंतु बढ़ती इंसानी जरूरतोंकी नजर इस सुंदर बगीचे को लग ही गई।
1980 में जब पुरानी दिल्ली छोड़ दी थी। लगभगा 42 साल बाद तीन महीने पूर्व पुरानी दिल्ली के खोये बगीचों को देखने निकला था। तब कंपनी बाग के अवशेष देख आँख में आँसू भर आए थे। फतेहपुरी और बाग दीवार की तरफ के बगीचे के हिस्से पर एक मार्केट बन गई है। फतेहपुरी के सामने के बगीचे के आधे से ज्यादा हिस्से पर कार पार्क बन चुकी है। अब एक गोलाकार छोटासा बगीचा बचा है जिसका प्रवेशद्वार बाग दीवार की तरफ से है। बगीचे में पुरानी दिल्ली की स्वतन्त्रता सेनानी सुशीला मोहन की एक मूर्ति लगी है। देर आए दुरुस्त आए आखिरकार पुरानी दिल्ली ने अपने शहर के स्वतन्त्रता सेनानी का कुछ तो सम्मान किया। इस छोटे गोलाकार पार्क का नाम भी सुशीला मोहन के नाम पर रख दिया है। इस मूर्ति के साथ सेलफ़ी लेते हुए इस नए बगीचे का अस्तित्व बना रहे ऐसी ईश्वर से प्रार्थना की और बगीचे से विदा ली।
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