सोमवार, 30 मई 2022

पुरानी दिल्ली की यादें (5): गोटू और क्रिकेट की गेंद


उस समय मेरी उम्र 12-13 साल की थी। थोडा बडा हो गया था। अपने दोस्तों के साथ छूटियों में क्रिकेट खेलने जाने लगा था। गर्मी की छूटियों में  जहां हम सुबह घूमने जाते थे। वहीं दशहरे और क्रिसमस की छूटियों  क्रिकेट खेलने। पुरानी दिल्ली में मोरीगेट के बाहर क्रिकेट खेलने के लिए एक बड़ा मैदान था। मैदान का एक हिस्सा स्टीफन कॉलेज का था।  इसलिए लोग उस मैदान को स्टीफन ग्राउंड के रूप में जानते थे। छुट्टियों के दौरान, 25-30 क्रिकेट टीमें मैदान पर खेलती थीं। खेलते समय सावधानी बरतनी पड़ती थी। कहीं से भी गेंद आके सर  पर लग सकती थी।  हमारी टीम में 5-6 मराठी लड़के, आस पास के गली मोहल्ले के हिन्दू और मुस्लिम लड़के हमारी टीम में आते-जाते खेलते थे।आखिर 11 लड़कों की टीम जो पूरी करनी होती थी। हम सभी सभी गरीब या निम्न मध्यम वर्ग के थे। उस समय एक कॉर्क बॉल 2-3 रुपये में आता था। हम सब दस पैसे से चवन्नी मिलाकर बॉल खरीदते थे।  मैदान में अमीर लड़के सफेद कपड़े, अच्छी क्वालिटी के बल्ले हाथ में लिए, क्रिकेट की गेंद से क्रिकेट खेलते थे। उस समय भी क्रिकेट बॉल की कीमत 10-15 रुपये हुआ करती थी। हमारा उनसे ईर्ष्या होना स्वाभाविक था। हमने कभी सोचा नहीं था की कभी हम भी क्रिकेट की गेंद से क्रिकेट खेल सकेंगे। 

वह शायद दशहरे की छुट्टी का पहला ही दिन था। हमें मैदान में गोटू मिला। उसके पास क्रिकेट की 2-3 गेंदें थीं। वह नई गेंद चार से पाँच और कुछ ओवर पुरानी दो से तीन रुपए में बेच रहा था। हमने भी उससे एक गेंद खरीद ली। परंतु मेरे एक दोस्त को शक हुआ, उसने गोटू से पूछा, इतनी सस्ती गेंदें कहां से लाते हो। गोटू ने रौब से कहा, उसकी जान पहचान डीडीसीए (दिल्ली जिला क्रिकेट संघ) में है। मैच खत्म होने पर डीडीसीए वाले पुरानी गेंदों को अपने जान पहचान वोलों को  सस्ते में बेच देते हैं। कुछ गेंदें एक-दो ओवर भी पुरानी भी होती है। वह ऐसी गेंदों को एक दर्जन के भाव पर खरीदता है। 2-4 रुपए में पुरानी, ​​नई गेंद 3 से 5 रुपये में। हमने उससे क्रिकेट गेंदें खरीदना शुरू किया। कभी 2 रुपए में तो, कभी 3 रुपए में।  गोटू भी क्रिकेट अच्छा खेलता था। कभी-कभी सुबह हमारे साथ खेलने आ जाता था। हमने कभी भी उससे उसका असली नाम नहीं पूछा।  

स्कूल को क्रिसमस की छुट्टियाँ लगी थी। हमने गोटू को क्रिकेट की गेंद के लिए कहा था। लेकिन हमारे मैदान में पहुँचने से पहले ही उसने दूसरी टीम को गेंद बेच दी थी। हमारा उससे काफी झगड़ा हुआ। काफी कहा सुनी हुई। आखिर हार कर गोटू ने  कहा कि वह आज सुबह 11 बजे फिरोजशाह कोटला  जाएगा। यदि गेंद मिलती है तो कल सुबह हमें लाकर देगा। जाहीर था, हमें उस पर विश्वास नहीं हुआ। मैंने और मेरे दोस्त ने उसके पीछे जाने फैसला किया।  हमारा मकसद था, यह जानना की वह किससे गेंद खरीदता है। एक बार जब यह पता लग जाएगा तो हम भी उस आदमी से थोक में  गेंद खरीद सकते हैं। हम भी उसकी तरह  गेंद को बेचकर पैसा कमा सकते है। बड़ा नायाब आइडिया था। सुबह करीब 11 बजे मैं और मेरा दोस्त पैदल चलते हुए दिल्ली गेट पहुंचे। पहले फिरोजशाह कोटला स्टेडियम उतना बड़ा नहीं था, जितना आज है। एक सड़क दिल्ली गेट से राजघाट की ओर जाती है। एक तरफ पुरानी दिल्ली की दीवार। दीवार के पीछे दरियागंज और सामने बगीचा। सड़क के दूसरी ओर फुटबॉल स्टेडियम, बस स्टैंड और एक गली है जो सीधे फिरोजशाह कोटला स्टेडियम की ओर जाती है। स्टेडियम  की दीवार और गली के बीच  एक छोटा सा मैदान था। मैदान के एक हिस्से में प्रक्टिस के लिए नेट बने हुए थे। और  बीचोबीच क्रिकेट की पिच थी। डीडीसीए के ज्यादातर लीग मैच वहीं होते थे। हम वहां पहुंचे, तो हमने देखा कि गोटू मैदान के बाहर सड़क के किनारे बैठा हुआ था। मैदान में क्रिकेट मैच चल रहा था। हमें देखकर वह चौंक गया। उसने हमसे कहा, " धंधे का राज को जानने आए हो? मुझ पर विश्वास नहीं है, क्या?"  मैंने कहा, विश्वास होता तो यहां क्यों आते। बाकी हम तेरे काम में दखल नहीं देंगे।  हमें सिर्फ क्रिकेट की गेंद चाहिए। (बचपन से ही हम स्वार्थी हो  जातें है,  12 साल की उम्र में भी सफ़ेद झूठ बोलना सीख लिया था।) उसने कहा कि अभी मैच चल रहा है, हमें यहां कुछ देर धूप में बैठना होगा। मैंने उससे कहा, इतनी दूर से बैठकर खेल देखने से अच्छा थोड़ा आगे पेड़ के नीचे छांव में बैठते है। वहाँ से खेल देखने का मजा भी ज्यादा आयेगा। वो बस मुस्कुराया और कहा, अब तुम आ ही गए हो तो चुपचाप यहीं बैठो और तमाशा देखो। झकमार कर हम दोनों उसके साथ तेज धूप में चुपचाप बैठे रहे। कुछ ही देर बाद बल्लेबाज ने गेंद को जोर से मारा और गेंद हमारी दिशा में उछलकर आई। ऐसा लग रहा था कि गोटू इसी पल का इंतजार कर रहा था। उसने गेंद को उठाया और चिल्लाया, भागो भागो। एक पल के लिए हमें कुछ समझ नहीं आया, लेकिन हमने उसे दौड़ते हुए तेजी से सड़क पार करते हुए देखा, डर के मारे  बिना कुछ विचार किए हम दोनों उसके पीछे भाग लिए।  तेज भागतेट्राफिक को नजरंदाज करके हमने रोड क्रॉस किया। भगवान का शुक्र है, हमारा आक्सीडेंट नहीं हुआ। दरियागंज दीवार में बने एक छेद से अंदर घुसने के बाद ही चैन की सांस ली। गोटू ने हमारी तरफ देखकर  हँसते  हुए कहा, क्यों आया न मजा। अबे बेवकूफों की तरह क्यों बैठे रहे। थोड़ी और देर हो जाती तो, पकडे जाते। बहुत मार पड़ती है। कभी कभी तो पुलिस को भी सौंप देते हैं। जान हथेली पर रख कर गेंद जुटता हूँ तुम्हारे लिए, फिर भी भरोसा नहीं करते हो।

मेरे मन में ख्याल आया कि अगर मैं पकड़ा गया होता तो....  शायद बहुत पिटाई होती। घर वालों को पता लगता तो, कल्पना करना भी असंभव था। क्रिकेट खेलना तो बंद हो ही जाता। और तो और,गली-मोहल्ले में लोग चोट्टा कहकर पुकारते। मैंने हिम्मत करके उससे पूछ ही लिया की वह यह सब क्यों करता है। एक पल के लिए  उसकी आँखों में पानी आ गया, उसने कहा कि उसके दो छोटे भाई और एक बहन है। उसकी मां का दो साल पहले निधन हो गया था, उसके पिता ने दूसरी शादी की। उसके पिता साप्ताहिक बाजारों में शाम को सब्जी की रेडी लगाते हैं। वह इस काम में अपने पिता की मदद करता है। लेकिन पिताजी उसे जेब खर्ची के लिए छदाम भी नहीं देते। सौतेली मां उनके लिए कुछ नहीं लाती। अगर वह अपने पिता से उसकी शिकायत करता है, तो वे उल्टे उसे ही पीट देते हैं। अपनी जान जोखिम में डालकर कमाए पैसों से  वह छोटे भाई-बहनों के लिए  मिठाई, कपड़े आदि खरीदता है। उस उम्र में मुझे नहीं पता था कि आगे क्या कहूं। मैं चुप ही रहा। कुछ लोगों के लिए जिंदगी की डगर बहुत ही  मुश्किल होती है। यही सच है। उसने हमसे वादा किया कि वह आज की घटना के बारे में हमारे टीम में किसी को नहीं बताएगा। उसने अपना वादा निभाया। मैं और मेरे दोस्त ने भी इस घटना का जिक्र किसी से न करने की कसमें खाई। कई सालों तक इस राज को हमने किसी पर जाहीर नहीं किया। सच जानने के बावजूद भी अगले दो-तीन साल हम उससे गेंद खरीदते रहे। बाद में वह मुझे दिखाई नहीं दिया। आज सोचता हूँ सारे चोर बाजार हमारे जैसे स्वार्थी, मतलबी लोगों की वजह से ही चलते है।  परंतु जब खुद के घर में चोरी होती है, तब हम पुलिस और सरकार को गालियां देते हैं। जब की इसके दोषी हम खुद होते हैं। 

  पुरानी दिल्ली की यादें (6): जमुना किनारा

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