सोमवार, 6 अक्टूबर 2025

ययाति का द्वंद: भोग का मार्ग या त्याग का मार्ग

 बुद्धिमान और शक्तिशाली ययाति को पृथ्वी का साम्राज्य दिया जाता है। ऋषि उसे उपदेश देते हैं: “तुझे पृथ्वी के सभी जीव-जंतु और जड़-चेतन सभी की रक्षा करनी है। क्षमा, दया और सहनशीलता मानवता के सच्चे आभूषण हैं। त्याग के साथ भोग करने से ही जीवन सार्थक होता है। यदि तू यह मार्ग अपनाएगा, तो प्रलय तक पृथ्वी का भोग कर सकेगा।

लेकिन ययाति अपने ज्ञान और शक्ति के नशे में चूर है। उसे लगता है कि "क्षमा और दया" दुर्बलों की भाषा है। वह कहता है कि पृथ्वी वीरों के भोग के लिए है, दुर्बलों को यहाँ जीने का अधिकार नहीं।

वह शूद्र जीवों को पैरों तले कुचलता है। बड़े वन्य प्राणी भी उसके मनोरंजन के साधन बन जाते हैं। वह चिरयौवना  पृथ्वी की सुंदरता से मोहित हो जाता है।  लेकिन उसकी राक्षसी लालसा उस सुंदरता को नष्ट कर देती है। वह उन्मादी और बलात्कारी बन जाता है, पृथ्वी के हरित वस्त्रों को फाड़ देता है। उसकी क्रूरता से पृथ्वी के शरीर पर गहरे घाव हो जाते हैं। इलाज न होने पर वे घाव सड़ने लगते हैं और वातावरण में विषैली दुर्गंध फैल जाती है। अब ययाति को श्वास लेने में भी तकलीफ होने लगती है। 

स्वर्ग के देवता उसे चेतावनी देते हैं: “तेरा जीवन पृथ्वी से जुड़ा है। भोग का मार्ग छोड़ और पृथ्वी को बचा—नहीं तो तू भी उसके साथ नष्ट हो जाएगा।

ययाति देवताओं को तुच्छ समझता है। वह ज्ञान के बल पर अंतरिक्ष में दूसरी पृथ्वी खोजने की सोचता है, या शक्ति के बल पर देवताओं को अपदस्थ कर स्वर्ग में अप्सराओं के साथ नित्य नए भोग का सपना देखता है। कभी-कभी उसे लगता है कि शायद स्वर्ग का अमृत उसकी प्यास ना बुझा सके।

लेकिन मनुष्य का भाग्य समय  के गर्भ में छिपा है। क्या ययाति भोग का नीच मार्ग छोड़कर त्याग और तपस्या का मार्ग अपनाएगा? या वह अंतरिक्ष के असीम अंधकार में खो जाएगा?

फिलहाल ययाति किंकर्तव्यविमूढ़ है।

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