गुरुवार, 25 सितंबर 2025

एक याद – गोटू और क्रिकेट की गेंद

 
सर्दियों की छुट्टियाँ थीं। उम्र बारह की रही होगी, लेकिन मन जैसे पहली बार दुनिया को समझने निकला था। पुरानी दिल्ली के मोरीगेट के बाहर फैले बागों में हम क्रिकेट खेलते थे. गरीब लड़कों की टीम, जिनके पास जुनून था, लेकिन गेंद नहीं। कॉर्क की गेंद के लिए हम पैसे जोड़ते थे — दस पैसे, बीस पैसे — और जब तीन रुपये इकट्ठा होते, तो लगता जैसे कोई खज़ाना मिल गया हो। असली क्रिकेट गेंदें तो अमीर लड़कों के पास होती थीं — सफेद कपड़े, चमकते बैट, और वो गेंद जो हमारे सपनों में थी।

एक दिन गोटू मिला.  मेरी ही उम्र का था वह.  उसके पास क्रिकेट की कई गेंदें थीं। उसने कहा, “DDCA से जान-पहचान है। मैच के बाद पुरानी गेंदें सस्ते में मिल जाती हैं।” हम उसके ग्राहक बन गए. क्रिकेट की असली गेंद , गेंद की कंडिशन के हिसाब से हम उससे  एक रुपये की, दो रुपये की, कभी तीन की भी खरीदते थे. 

गोटू अच्छा खेलता था। कभी-कभी हमारे साथ भी। कुछ दिनों बाद पता चला, उसका असली नाम असलम था। बल्लीमारान में रहता था। फिर एक दिन उसने वादा किया, लेकिन गेंद नहीं लाया। बाद में पता चला, वो गेंद किसी और को बेच दी थी।

मेरे दोस्त ने उसे डांटा, तो उसने कहा कि वह फिरोजशाह कोटला जा रहा है, अगर गेंद मिली तो अगली सुबह देगा। हमें उस पर भरोसा नहीं हुआ। मैंने और मेरे दोस्त ने तय किया कि हम भी वहाँ चलेंगे और देखेंगे कि वह गेंद कहाँ से लाता है। अगर पता चल गया तो हम भी सीधे थोक में खरीद सकते हैं और बेचकर पैसे कमा सकते हैं

हम पैदल दिल्ली गेट पहुँचे। तब फिरोजशाह कोटला स्टेडियम इतना बड़ा नहीं था। एक गली सीधे स्टेडियम की ओर जाती थी। स्टेडियम की दीवार और गली के बीच एक छोटा मैदान था, जहाँ DDCA की लीग मैचें होती थीं।हमने देखा कि गोटू गली के छोर पर बैठा था। मैच चल रहा था। हमें देखकर वह मुस्कराया और बोला, “धंधे का राज जानने आए हो क्या?” मैंने कहा, “अगर भरोसा होता तो यहाँ क्यों आते?” उसने कहा, “मैच चल रहा है, थोड़ी देर धूप में बैठना पड़ेगा।” मैंने कहा, “चलो थोड़ा आगे पेड़ के नीचे बैठते हैं।” वह हँसकर बोला, “अब आ ही गए हो तो चुपचाप बैठो और तमाशा देखो।”
हम वहीं बैठ गए। थोड़ी देर में बल्लेबाज़ ने जोरदार शॉट मारा और गेंद हमारी तरफ आई। गोटू जैसे इसी पल का इंतज़ार कर रहा था। वह दौड़कर गेंद उठाई और चिल्लाया, “भागो, भागो!” हमें कुछ समझ नहीं आया, लेकिन उसे भागते देख हम भी दौड़ पड़े।

हम एक दीवार की दरार से गली के अंदर घुसे और राहत की साँस ली। गोटू हँसते हुए बोला, “क्यों, मज़ा आया ना? थोड़ी देर और होती तो पकड़े जाते। बहुत मार पड़ती है, कभी-कभी पुलिस को भी सौंप देते हैं। जान हथेली पर रखकर तुम्हारे लिए गेंद लाता हूँ, फिर भी भरोसा नहीं करते।”

मन में एक ख्याल आया — अगर उस दिन हम पकड़े गए होते तो क्या होता... हमने कोई गलती नहीं की थी, फिर भी शायद हमें खूब मार पड़ती।
अगर यह बात घर तक पहुँच जाती, तो उसकी कल्पना भी करना मुश्किल है।क्रिकेट खेलना तो निश्चित ही बंद हो गया होता — हमेशा के लिए।

मैंने उससे पूछा, “इतना खतरा उठाकर तू ये सब क्यों करता है?” कुछ पल वह चुप रहा, फिर उसकी आँखें भर आईं। बोला, “घर पर मुझसे छोटे दो भाई और एक बहन है। माँ दो साल पहले गुजर गई, बाप ने दूसरी शादी कर ली। वह सब्ज़ी बेचता है, लेकिन मुझे एक पैसा नहीं देता। सौतेली माँ छोटे बच्चों को ठीक से खाना भी नहीं देती। मैं जो पैसे कमाता हूँ, उनसे उनके लिए खाना लाता हूँ।”

उसकी बात सुनकर मैं चुप हो गया। जाते समय मैंने वादा किया कि आज की घटना किसी को नहीं बताऊँगा। हमने वह वादा निभाया भी। अगली गर्मी की छुट्टियों में वह मैदान में नहीं दिखा।

इस साल IPL का मैच देखते हुए, न जाने क्यों, 42 साल बाद उसकी याद आ गई। सोचता हूँ, आज वह कहाँ होगा...
 
 

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