शुक्रवार, 5 सितंबर 2025

“साहब, मुझे मत मारिए… मुझे जीना है।”

 

कॉंस्टेबल बलवान सिंह जोर से चिल्लाया, “साहब! हमारे जवानों पर हमला करने वाली, जवानों को मारने वाली नक्सली कमांडर यहीं गिरी पड़ी है। क्या करना है इसके साथ?”

कमांडेंट उसके पास गया। देखा—वह दर्द से तड़पती, खून से लथपथ ज़मीन पर पड़ी थी। उसने सोचा—इस घने जंगल में मदद आने में कई घंटे लगेंगे। तब तक इसका जीवित रहना संभव नहीं। इसे मृत्यु की पीड़ा से मुक्त करना ही उचित होगा।

उसने अपनी बंदूक उसकी छाती की ओर तानी।

कमांडेंट की नज़र एक पल को उसके चेहरे पर गई। उसे लगा, उसकी आँखें कह रही हैं—

“साहब, मुझे मत मारिए… मुझे जीना है।”

कमांडेंट ने आँखें बंद कीं और ट्रिगर दबा दिया।

धाँय-धाँय—गोली की आवाज जंगल में गूंज उठी।

एक पक्षी आकाश की ओर उड़ गया।

उस दिन की मुठभेड़ में बंदूक से निकली गोलियों ने कई परिवारों की ज़िंदगी उजाड़ दी। कई सपने टूट गए।

उस घटना को अब कई साल बीत चुके हैं। कमांडेंट अब रिटायर हो चुका है। हर रात वह नींद की गोली लेता है, फिर भी उसे नींद नहीं आती।

रातभर उसके कानों में वही आवाज गूंजती रहती है—

“साहब, मुझे मत मारिए… मुझे जीना है।”

युद्ध की कहानियाँ कभी सुंदर नहीं होतीं। वे बेहद पीड़ादायक होती हैं।

 

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