गुरुवार, 25 सितंबर 2025

एक याद – गोटू और क्रिकेट की गेंद

 
सर्दियों की छुट्टियाँ थीं। उम्र बारह की रही होगी, लेकिन मन जैसे पहली बार दुनिया को समझने निकला था। पुरानी दिल्ली के मोरीगेट के बाहर फैले बागों में हम क्रिकेट खेलते थे. गरीब लड़कों की टीम, जिनके पास जुनून था, लेकिन गेंद नहीं। कॉर्क की गेंद के लिए हम पैसे जोड़ते थे — दस पैसे, बीस पैसे — और जब तीन रुपये इकट्ठा होते, तो लगता जैसे कोई खज़ाना मिल गया हो। असली क्रिकेट गेंदें तो अमीर लड़कों के पास होती थीं — सफेद कपड़े, चमकते बैट, और वो गेंद जो हमारे सपनों में थी।

एक दिन गोटू मिला.  मेरी ही उम्र का था वह.  उसके पास क्रिकेट की कई गेंदें थीं। उसने कहा, “DDCA से जान-पहचान है। मैच के बाद पुरानी गेंदें सस्ते में मिल जाती हैं।” हम उसके ग्राहक बन गए. क्रिकेट की असली गेंद , गेंद की कंडिशन के हिसाब से हम उससे  एक रुपये की, दो रुपये की, कभी तीन की भी खरीदते थे. 

गोटू अच्छा खेलता था। कभी-कभी हमारे साथ भी। कुछ दिनों बाद पता चला, उसका असली नाम असलम था। बल्लीमारान में रहता था। फिर एक दिन उसने वादा किया, लेकिन गेंद नहीं लाया। बाद में पता चला, वो गेंद किसी और को बेच दी थी।

मेरे दोस्त ने उसे डांटा, तो उसने कहा कि वह फिरोजशाह कोटला जा रहा है, अगर गेंद मिली तो अगली सुबह देगा। हमें उस पर भरोसा नहीं हुआ। मैंने और मेरे दोस्त ने तय किया कि हम भी वहाँ चलेंगे और देखेंगे कि वह गेंद कहाँ से लाता है। अगर पता चल गया तो हम भी सीधे थोक में खरीद सकते हैं और बेचकर पैसे कमा सकते हैं

हम पैदल दिल्ली गेट पहुँचे। तब फिरोजशाह कोटला स्टेडियम इतना बड़ा नहीं था। एक गली सीधे स्टेडियम की ओर जाती थी। स्टेडियम की दीवार और गली के बीच एक छोटा मैदान था, जहाँ DDCA की लीग मैचें होती थीं।हमने देखा कि गोटू गली के छोर पर बैठा था। मैच चल रहा था। हमें देखकर वह मुस्कराया और बोला, “धंधे का राज जानने आए हो क्या?” मैंने कहा, “अगर भरोसा होता तो यहाँ क्यों आते?” उसने कहा, “मैच चल रहा है, थोड़ी देर धूप में बैठना पड़ेगा।” मैंने कहा, “चलो थोड़ा आगे पेड़ के नीचे बैठते हैं।” वह हँसकर बोला, “अब आ ही गए हो तो चुपचाप बैठो और तमाशा देखो।”
हम वहीं बैठ गए। थोड़ी देर में बल्लेबाज़ ने जोरदार शॉट मारा और गेंद हमारी तरफ आई। गोटू जैसे इसी पल का इंतज़ार कर रहा था। वह दौड़कर गेंद उठाई और चिल्लाया, “भागो, भागो!” हमें कुछ समझ नहीं आया, लेकिन उसे भागते देख हम भी दौड़ पड़े।

हम एक दीवार की दरार से गली के अंदर घुसे और राहत की साँस ली। गोटू हँसते हुए बोला, “क्यों, मज़ा आया ना? थोड़ी देर और होती तो पकड़े जाते। बहुत मार पड़ती है, कभी-कभी पुलिस को भी सौंप देते हैं। जान हथेली पर रखकर तुम्हारे लिए गेंद लाता हूँ, फिर भी भरोसा नहीं करते।”

मन में एक ख्याल आया — अगर उस दिन हम पकड़े गए होते तो क्या होता... हमने कोई गलती नहीं की थी, फिर भी शायद हमें खूब मार पड़ती।
अगर यह बात घर तक पहुँच जाती, तो उसकी कल्पना भी करना मुश्किल है।क्रिकेट खेलना तो निश्चित ही बंद हो गया होता — हमेशा के लिए।

मैंने उससे पूछा, “इतना खतरा उठाकर तू ये सब क्यों करता है?” कुछ पल वह चुप रहा, फिर उसकी आँखें भर आईं। बोला, “घर पर मुझसे छोटे दो भाई और एक बहन है। माँ दो साल पहले गुजर गई, बाप ने दूसरी शादी कर ली। वह सब्ज़ी बेचता है, लेकिन मुझे एक पैसा नहीं देता। सौतेली माँ छोटे बच्चों को ठीक से खाना भी नहीं देती। मैं जो पैसे कमाता हूँ, उनसे उनके लिए खाना लाता हूँ।”

उसकी बात सुनकर मैं चुप हो गया। जाते समय मैंने वादा किया कि आज की घटना किसी को नहीं बताऊँगा। हमने वह वादा निभाया भी। अगली गर्मी की छुट्टियों में वह मैदान में नहीं दिखा।

इस साल IPL का मैच देखते हुए, न जाने क्यों, 42 साल बाद उसकी याद आ गई। सोचता हूँ, आज वह कहाँ होगा...
 
 

शनिवार, 20 सितंबर 2025

दंगे की राख में बचपन

 

यह बचपन की कहानी है। मेरी उम्र लगभग 12-13 साल थी। हमारा स्कूल पहाड़गंज में थी। स्कूल सुबह की थी, इसलिए हम 7-8 दोस्त पैदल ही स्कूल जाते थे। नया बाजार, कुतुब रोड, सदर बाजार, बारा टूटी, मोतियाखान होते हुए स्कूल पहुंचते द.  स्कूल पहुँचने में लगभग आधा घंटा लगता था। रोज़ 3-4 किलोमीटर चलने से चप्पल और जूते जल्दी खराब हो जाते थे।

मोतियाखान में फुटपाथ पर एक मोची  बैठता था। 5-10 पैसे में जूते-चप्पल ठीक करता था। उसका बेटा छोटू, हमारी उम्र का ही था। वह सरकारी स्कूल में पढ़ता था, जो दोपहर की होती थी। सुबह वह अपने पिता की मदद करता था।

उन दिनों पुरानी दिल्ली में साल में 2-4 दंगे होते थे। हमारे लिए दंगे का  मतलब दुकानों की लूट और आगजनी। एक बार सदर बाजार में दंगा हुआ। कपड़ों की कई दुकानें लूटी गईं। गरीबों ने भी मौका देखकर कपड़े उठा लिए। स्कूल में फटे कपड़े पहनने वाले बच्चे नए कपड़ों में दिखने लगे।

दंगे के 15-20 दिन बाद की बात है। स्कूल के बाद हम घर जा रहे थे। एक दोस्त के जूते फट गए थे। छोटू उस दिन मैली-कुचैली स्कूल यूनिफॉर्म में दुकान पर बैठा था। 

मैंने पूछा, "अब्बू की तबियत खराब है क्या?"

छोटू बोला, "स्कूल छोड़ दिया है। अब दुकान पर ही बैठूंगा।"

मैंने पूछा, "क्यों?"

उसने कहा, "अब्बू जेल में हैं।"

छोटू ने कहा उस दिन सुबह उसकी अम्मी ने अब्बू को उठाया और कहा, "सदर में दुकानें लूटी जा रही हैं। पड़ोसी नानके कपड़े उठा लाया है। मोहल्ले के बाकी मर्द भी गए हैं। तुम सो रहे हो?" अब्बू उठे, मन में सोचा कि यह ठीक नहीं है। लेकिन उन्होंने कई सालों से बच्चों के लिए नए कपड़े नहीं खरीदे थे। वहाँ तो पूरा मोहल्ला—हिंदू हो या मुसलमान—दुकानों की लूट में शामिल था। अब्बू भी उस भीड़ का हिस्सा बन गए। सदर बाज़ार में एक दुकान से लोग कपड़ों के थान सिर पर उठाकर बाहर निकल रहे थे। अब्बू भी उस दुकान में घुसे।

"लालच बुरी बला होती है" यह कहावत यूँ ही नहीं बनी है। शरीर साथ नहीं दे रहा था, फिर भी अब्बू ने 3–4 कपड़ों के थान सिर पर लाद लिए और दुकान से बाहर निकले। तभी अचानक आवाजें आईं—"पुलिस! पुलिस!" अब्बू घबरा गए। उनका  संतुलन बिगड़ गया और वे सड़क पर गिर पड़े। चोट तो लगी ही, साथ ही पुलिस ने उन्हें रंगे हाथ पकड़ लिया। 

उस उम्र में यह समझना आसान नहीं था कि ऐसे समय में क्या कहना चाहिए। फिर भी मैंने हिम्मत करके पूछा, "कोई वकील किया है क्या?"

"हाँ, एक वकील किया है, लेकिन वह कहता है कि अब्बू के खिलाफ पक्के सबूत हैं। अब्बू को कुछ साल तो जेल में रहना ही पड़ेगा।"

छोटू बोला, "अब्बू से गलती हो गई। किस्मत खराब थी।"

अब छोटू की पढ़ाई छूट गई। घर की जिम्मेदारी उसके कंधों पर आ गई।

उस साल की ईद और दिवाली कई घरों में अंधेरा लेकर आई।

मोगरे की वेणी

 

करीब ३५ साल बाद वे दोनों फिर मिले। बाल सफेद हो चुके थे, चेहरे पर उम्र की लकीरें थीं, लेकिन आंखों में पहचान अब भी ताज़ा थी। उसे आखिरी मुलाकात याद आई—नेहरू पार्क। उसके बालों में मोगरे के फूलों की वेणी थी, वह उसके करीब बैठी थी। उसने वेणी को सूंघने का बहाना करते हुए उसके गाल पर हल्का सा चुंबन लिया।

“दूर हटो! क्या समझा तुमने? अभी तो हमारी शादी भी नहीं हुई,” वह नाराज़ होकर बोली।

“तो फिर कब पूछोगे अपने पिताजी से? मुझे नौकरी लगे एक साल हो गया है।”

“मेरे पापा एक किराए के मकान में रहने वाले लड़के से अपनी बेटी की शादी नहीं करेंगे।”

“तो क्या हम ऐसे ही रहेंगे?”

“मैं सरकारी नौकरी के लिए कोशिश कर रही हूं। एक बार नौकरी लग गई तो पापा से कहूंगी—एक स्मार्ट, थोड़े बेअक्ल, लेकिन कंजूस लड़के से शादी करनी है। हमारी दोनों की तनख्वाह में घर चल जाएगा। पापा मना नहीं करेंगे, मुझे यकीन है।”

“मैं कंजूस?”

“तो क्या! अपनी प्रेमिका को चाणक्य सिनेमा में ६५ पैसे की पहली पंक्ति की टिकट दिलाने वाला, एक रुपए का पॉपकॉर्न और एक कप कॉफी दोनों के लिए। क्या मजनू है मेरा! वैसे, तुम्हारे माता-पिता से पूछा क्या?”

“दूध देने वाली गाय को कौन मना करता है।”

उसने उसकी पीठ पर ज़ोर से थप्पड़ मारा।

“अरे! कितना ज़ोर से मारती हो!”

“अरे नहीं, अब ‘पत्नी जी’ कहना सीखो।”

“मतलब शादी के बाद भी मारोगी?”

“हां, लेकिन बेलन से।”

उसके बाद वह कभी नहीं मिली। बाद में पता चला कि उसने मुंबई में एक सरकारी दफ्तर में नौकरी जॉइन की थी। उसकी शादी भी हो गई थी। वह कोई देवदास नहीं था। उसने अपनी मां की पसंद की लड़की से शादी कर ली।

“कैसी हो?” उसने पूछा।

वह बोली, “नाराज़ तो नहीं हो मुझसे? मेरे पापा को हमारे रिश्ते के बारे में पता चल गया था। मुझे तुमसे दूर करने के लिए उन्होंने चाल चली। मां ने कसम दिलाई। तुम भी वहां नहीं थे। मजबूरी में पापा की इच्छा माननी पड़ी।”

“तुम्हारे पति क्या करते हैं?”

“अब वे जीवित नहीं हैं। एक बड़ी कंपनी में ऊंचे पद पर थे, लेकिन शराब और जुए की लत में डूब गए। नशे में वे शैतान बन जाते थे। सारा गुस्सा मुझ पर निकालते थे। कुछ ही सालों में वे चले गए। बेटा भी पिता की राह पर चला। शराब ने उसकी भी जान ले ली। अब शायद रिटायरमेंट के बाद वृद्धाश्रम जाना पड़े। किस्मत है सबकी अपनी। तुम्हारा क्या?”

“तुम्हारी शादी की खबर सुनकर मुझे गुस्सा आया था। लेकिन मां ने समझाया—जिंदगी ऐसी ही होती है। मैंने मां की पसंद से शादी की। शादी के बाद एक बार पत्नी के साथ ओडियन में बालकनी की टिकट लेकर ‘मैंने प्यार किया’ फिल्म देखी।" बोलते समय एक उदास मुस्कान उसके चेहरे पर तैर गयी। 

“वाह! किस्मत वाली है वो—प्रेमिका के लिए ६५ पैसे की टिकट और पत्नी के लिए बालकनी!” कहते हुए उसने जीभ काट ली।

उसकी नजर सड़क पर मोगरे की वेणी बेचने वाले दुकानदार पर गई। मन में ख्याल आया—उसके सफेद बालों पर भी मोगरे की वेणी खूब जचेगी। वह रुका, पूछा, “वेणी लोगी?”

“हां, ले लो! अपनी पत्नी के लिए। मुझे भी मोगरे की वेणी पसंद है।”

उसने दो वेणियां लीं। एक उसके हाथ में दी।

उसने कहा, “तुम्हें भूलने की बहुत कोशिश की, लेकिन नहीं भूल पाई। उनके जाने के बाद तो बस तुम्हारी ही याद आती थी। कभी लगता था शायद तुम अब भी मेरा इंतज़ार कर रहे हो, कभी लगता था तुम्हारा भी परिवार होगा। खुद को समझाने की बहुत कोशिश की। जब तुम्हारी याद बेकाबू हो जाती, तो बाजार जाकर मोगरे की वेणी खरीदती, कमरे का दरवाज़ा बंद करके बालों में वेणी सजाकर आईने के सामने खड़ी होकर रोती... आज भी रोऊंगी।” कुछ पल दोनों चुप रहे। तभी उसकी बस आई और वह चली गई।

कुछ देर बाद उसकी नजर हाथ में पकड़ी मोगरे की वेणी पर गई। उसने  पत्नी के कहने के बावजूद भी कभी भी अपनी पत्नी के लिए वेणी नहीं खरीदी थी। और आज... उसके मन में विचारों का तूफान उठा। शादी से पहले उसकी पत्नी ने भी सप्तरंगी संसार के सपने देख होंगे। लेकिन हकीकत में ज़िंदगी भर वह पति की कम तनख्वाह में घर चलाने की जद्दोजहद करती रही। उसने अपनी सारी इच्छाएं मार दीं। कभी कुछ मांगा नहीं, कभी ज़िद नहीं की। उसे याद आया—कई बार उसके और बच्चों के टिफिन भरने के बाद सब्ज़ी बचती ही नहीं थी। जब पूछता, “अरे! तुम्हारे लिए सब्ज़ी नहीं बची?” तो वह कहती, “मैं अपना देख लूंगी।” अक्सर अचार या तेल-नमक-मिर्च के साथ रोटी खाकर भूख मिटा लेती। उसने भी उसे तन और मन से प्यार किया था। बदले में उसने क्या दिया? क्या मैंने कभी दिल से उसे प्यार किया?

उसने ठान लिया—अब सब भूलकर फिर से जीवन की शुरुआत करनी है।घर जाकर उसने अपने हाथों से पत्नी के सफेद बालों में मोगरे की वेणी सजाई..

 

रविवार, 14 सितंबर 2025

सत्य का भार

 

एक बार छह ऋषि, जनकल्याण की दिव्य भावना से प्रेरित होकर, हिमालय के हृदय में पहुँचे। उनकी आँखों में जिज्ञासा थी, हृदय में तपस्या, और आत्मा में एक ही ध्येय—सत्य की खोज

उन्होंने एक हिमाच्छादित पर्वत पर कठोर तप आरंभ किया। समय थम गया, वायु स्थिर हो गई, और अंततः... सत्य प्रकट हुआ।

सत्य का तेज इतना प्रखर था कि प्रत्येक ऋषि ने उसे भिन्न रूप में देखा—किसी को वह करुणा का प्रतीक लगा, किसी को न्याय का, किसी को प्रेम का, और किसी को शून्यता का। सभी ने सत्य का वर्णन किया, और आश्चर्य की बात यह थी कि हर वर्णन अलग था। फिर भी कोई असत्य नहीं बोल रहा था।

अंततः वृद्ध ऋषि ने मौन तोड़ा। उन्होंने कहा: "सत्य एक ही होता है, पर उसका प्रतिबिंब हर हृदय में अलग रूप में उतरता है। जब उसका पालन किया जाए, वह अमृत बनता है। लेकिन जब उसे दूसरों पर थोपने का प्रयास किया जाए, वह विष बन जाता है—और विनाश का कारण बनता है।"

उन्होंने शिष्यों को पृथ्वी पर लौटने का आदेश दिया, एक ही उपदेश देकर—सत्य का प्रचार करो, पर उसे बंधन मत बनाओ।

ऋषि पृथ्वी पर लौटे। उन्होंने सत्य का प्रचार किया, पर समय के साथ वे वृद्ध ऋषि की चेतावनी भूल गए। उनके शिष्य अहंकार से अंधे हो गए और अपने अनुभव किए गए सत्य को दूसरों पर थोपने लगे। सत्य प्रचार का माध्यम नहीं रहा, वह शस्त्र बन गया। मठ-मंदिर जलने लगे, विचारों का युद्ध छिड़ गया, और अंततः...

आज सत्य ही मानवता के विनाश का कारण बनने को है।

सत्य एक तेज है जो संसार को प्रकाशित करता है, पर वह विनाश भी कर  सकता है। उसे आत्मसात करने के लिए अहंकार का त्याग करना पड़ता है और दूसरों के अनुभव किए सत्य का भी सम्मान करना पड़ता है। क्योंकि सत्य एक नहीं, अनेक रूपों में प्रकट होता है। यही अंतिम सत्य है। 

बुधवार, 10 सितंबर 2025

अकल का कीड़ा


कल दोपहर कार्यालय में एक विशेष भ्रष्टाचार की फाइल पढ़ते समय अचानक दाँत में दर्द शुरू हुआ। कुछ ही देर में वह दर्द बढ़ता गया और साथ ही सिर में भी पीड़ा होने लगी। आखिरकार तंग आकर मैंने वह फाइल पढ़ना बंद कर दिया।

घर पहुँचने पर मैंने गर्म पानी में नमक डालकर कुल्ला किया, एक लौंग भी मुँह में रखी। लेकिन कोई राहत नहीं मिली। पूरी रात दाँत के दर्द से तड़पते हुए बीती।

सुबह दंत चिकित्सक के पास गया। डॉक्टर ने मेरी ओर देखा, मुस्कराए और शरारत भरे अंदाज़ में बोले—"आपके दाँत को कोई मामूली कीड़ा नहीं लगा है, यह तो जानलेवा अक्ल का कीड़ा है। अगर इसे तुरंत नहीं निकाला गया, तो यह दिमाग तक पहुँच जाएगा। वहाँ जाकर अक्ल के तारे तोड़ देगा। इसके परिणाम आपको भुगतने पड़ेंगे। शायद समय से पहले सरकारी सेवा से निवृत्त होना पड़े। पेंशन भी नहीं मिलेगी। दर-दर भटकते हुए भीख माँगनी पड़ेगी।"

मेरी आँखों के सामने जुगनू चमकने लगे.  क्या वाकई ऐसा हो सकता है? डर के मारे मैं चिल्ला उठा—"डॉक्टर, निकाल दीजिए वह दाँत, उस अक्ल के कीड़े समेत!"

दाँत निकलते ही दर्द भी चला गया। तन और मन दोनों शांत हो गए।  कार्यालय पहुँचकर मैंने वह विशेष भ्रष्टाचार की फाइल लाल फीते में बाँधकर अलमारी में रख दी।

घर लौटकर मैंने सफेद शुभ्र वस्त्र पहना और आईने के सामने खड़ा हुआ।लेकिन आईने में मुझे अपना चेहरा काले धब्बे से ढका हुआ क्यों दिखाई दे रहा था—यह मैं समझ नहीं पाया।


मंगलवार, 9 सितंबर 2025

अलादीन और जिन्न का न्याय

 

अलादीन सुबह-सुबह लोधी गार्डन में टहल रहा था, जब अचानक एक तेज़ हवा के झोंके ने पेट्रोल की तीखी बदबू उसके नथुनों तक पहुँचा दी। नाक सिकोड़ते हुए वह बुदबुदाया, “प्रकृति की गोद में भी शुद्ध हवा नहीं! इस प्रदूषण का कुछ तो हल निकालना होगा।”

तभी उसका पैर किसी कठोर चीज़ से टकराया। वह लड़खड़ाया, पर गिरा नहीं। नीचे देखा तो एक पुराना, मैला सा चिराग पड़ा था। उत्सुकता से उसने उसे उठाया। “काफी पुराना लगता है… शायद अच्छा दाम मिल जाए,” उसने सोचा। रूमाल से उसे साफ़ करने लगा।

अचानक चिराग से धुआँ उठा—और एक जिन्न प्रकट हुआ।

“क्या आदेश है, मालिक?” जिन्न ने पूछा।

अलादीन चौंक गया, हड़बड़ाते हुए बोला  “कोई आदेश नहीं। वापस चिराग में चले जाओ।”

जिन्न ने हल्का सा सिर झुकाया और बोला “मालिक, मैं तब तक वापस नहीं जा सकता जब तक आपका दिया कोई आदेश पूरा न कर दूँ। आपको आदेश देना  ही होगा।”

अलादीन ने खुद को संभाला। “तो बताओ—तुम क्या कर सकते हो?”

“मेरे लिए कुछ भी असंभव नहीं,” जिन्न बोला। “मैं वह कर सकता हूँ जो कोई मनुष्य नहीं कर सकता।”

अलादीन मुस्कराया। “ठीक है। पृथ्वी से सारा प्रदूषण तुरंत और पूरी तरह समाप्त कर दो।”

जिन्न हात जोड़े चुपचाप खड़ा रहा।

अलादीन ने ताना मारा, “क्या हुआ? प्रदूषण ने तुम्हें भी हरा दिया? मैं जानता था—यह काम तुम्हारे बस का नहीं। वापस चिराग में जाओ और सो जाओ। जब कोई तुम्हारे लायक काम होगा, तब बुलाऊँगा।”

जिन्न की आवाज़ में एक थरथराहट थी—न डर की, न क्रोध की, बल्कि एक गहरे दुख की। “मालिक, मैं प्रदूषण को जड़ से मिटा सकता हूँ… लेकिन

“लेकिन, किन्तु, परंतु!” अलादीन झल्लाया। “तुमने तो इंसानों की बहानेबाज़ी भी सीख ली है। अपने मालिक की आज्ञा मानो—या स्वीकार करो कि तुम अक्षम हो।

जिन्न ने सिर झुकाया, जैसे किसी अंतिम निर्णय पर मुहर लगा रहा हो। “जैसी आज्ञा, मालिक। मैं प्रदूषण को जड़ सहित मिटा देता हूँ। उसने आँखें बंद करके एक मंत्र बोला और आकाश में एक अजीब सन्नाटा छा गया।अगले ही पल, मानवता की साँसें थम गईं। अलादीन सहित सभी इंसान—अपने-अपने पापों के भार के साथ—नरक की आग में समा गए। धरती ने चैन की  साँस ली…  धरती हरी भरी हो गयी। 

शुक्रवार, 5 सितंबर 2025

“साहब, मुझे मत मारिए… मुझे जीना है।”

 

कॉंस्टेबल बलवान सिंह जोर से चिल्लाया, “साहब! हमारे जवानों पर हमला करने वाली, जवानों को मारने वाली नक्सली कमांडर यहीं गिरी पड़ी है। क्या करना है इसके साथ?”

कमांडेंट उसके पास गया। देखा—वह दर्द से तड़पती, खून से लथपथ ज़मीन पर पड़ी थी। उसने सोचा—इस घने जंगल में मदद आने में कई घंटे लगेंगे। तब तक इसका जीवित रहना संभव नहीं। इसे मृत्यु की पीड़ा से मुक्त करना ही उचित होगा।

उसने अपनी बंदूक उसकी छाती की ओर तानी।

कमांडेंट की नज़र एक पल को उसके चेहरे पर गई। उसे लगा, उसकी आँखें कह रही हैं—

“साहब, मुझे मत मारिए… मुझे जीना है।”

कमांडेंट ने आँखें बंद कीं और ट्रिगर दबा दिया।

धाँय-धाँय—गोली की आवाज जंगल में गूंज उठी।

एक पक्षी आकाश की ओर उड़ गया।

उस दिन की मुठभेड़ में बंदूक से निकली गोलियों ने कई परिवारों की ज़िंदगी उजाड़ दी। कई सपने टूट गए।

उस घटना को अब कई साल बीत चुके हैं। कमांडेंट अब रिटायर हो चुका है। हर रात वह नींद की गोली लेता है, फिर भी उसे नींद नहीं आती।

रातभर उसके कानों में वही आवाज गूंजती रहती है—

“साहब, मुझे मत मारिए… मुझे जीना है।”

युद्ध की कहानियाँ कभी सुंदर नहीं होतीं। वे बेहद पीड़ादायक होती हैं।

 

सोमवार, 1 सितंबर 2025

बूढ़ा आदमी और सुनहरे फूलों की महक

 

एक बूढ़ा आदमी रोज़ सुबह बगीचे में टहलने आता था। बगीचे में पहुँचने के बाद वह घंटों तक सुनहरे फूलों से बातें करता। इस सुबह भी वह आया, लेकिन उसने क्या देखा—बगीचे में सुनहरे फूलों का पौधा किसी ने उखाड़ दिया था। 

"यह जरूर उन क्रिकेट खेलने वाले शरारती लड़कों की करतूत है," उसने मन ही मन सोचा और उन्हें कोसा। उसने एक मुरझाया हुआ सुनहरा फूल उठाया और उसे अपने सीने से कसकर लगा लिया। उसके दिल में एक टीस उठी, और वह वहीं ज़मीन पर लुढक गया।

"दादाजी, अब कैसा लग रहा है?"

बूढ़े आदमी ने आँखें खोलीं। सामने क्यारी में सुनहरे फूल हवा में झूम रहे थे। उनकी महक चारों ओर फैली हुई थी। उसने प्यार से फूलों को सहलाया।

दादाजी ने हमेशा की तरह पूछा, "कैसे हो मेरे बच्चों?"

"दादाजी, हम बहुत अच्छे हैं। यहाँ कोई चिंता नहीं है। अब कोई हमें तकलीफ़ नहीं दे सकता। आप थक गए होंगे—थोड़ा आराम कर लीजिए। हम आपकी पसंदीदा बाँसुरी की टेप चला देते हैं। अब हमारे पास भरपूर समय है—सिर्फ हमारे लिए।"

बूढ़े आदमी ने संतोष से आँखें बंद कर लीं। दूर आकाश में बाँसुरी की मधुर धुन गूंज रही थी।