उस दिन शनिवार था। कनॉट प्लेस के सरकारी दफ्तर से दोपहर ढाई बजे काम निपटाकर बाहर निकला। मेट्रो स्टेशन की ओर जाते हुए, वह सामने से आती दिखाई दी। उसने भी मुझे देखा।
“विवेक!” वह दौड़ती हुई मेरे पास आई। ऐसा लगा जैसे वह मुझे गले लगाना चाहती हो। लेकिन पास आते ही ठिठक गई। आज भी वह वैसी ही लग रही थी—दुबली-पतली, उजली पंजाबी रंगत, बस बालों में थोड़ी सफेदी आ गई थी। उसके चेहरे पर खुशी और डर का मिला-जुला भाव था।
मैं बोला, “तुम बिल्कुल नहीं बदली हो। वैसी ही लग रही हो जैसे 35 साल पहले लगती थी।” वह हँस पड़ी, “तुम भी वैसे ही हो—बस बाल सफेद हो गए हैं।” मैं मुस्कुराया, “उम्र हो गई है अब। कॉफी हाउस चलें? बातें भी हो जाएंगी।” अनायास ही मैंने उसका हाथ थाम लिया और हम कॉफी हाउस की ओर चल पड़े।
शायद अगस्त 1981 रहा होगा। मुझे राजेंद्र प्लेस की एक व्यापारिक संस्था में अस्थायी नौकरी मिली थी। वह भी पास की एक कंपनी में काम करती थी। उम्र हमारी बराबर थी। वह तिलक नगर में रहती थी। हमारी मुलाकात चार्टर्ड बस में हुई। वह बी.कॉम के अंतिम वर्ष में थी और अकाउंट्स में कमजोर थी। मैं उसमें अच्छा था। रविवार और समय मिलने पर वह पढ़ने मेरे घर आने लगी।
एक दिन पढ़ाई के बाद जब मैं उसे जेल रोड तक छोड़ने जा रहा था, कुछ आवारा लड़के अजीब नजरों से हमें घूरते हुए गुज़रे। मुझे असहजता हुई। मैंने महसूस किया, मेरा हाथ उसके कंधे पर था। मैंने झिझकते हुए हाथ हटा लिया और कहा, “सॉरी, गलती से रख दिया था।”
उसने मेरा हाथ फिर से अपने कंधे पर रखा और मुस्कराकर कहा, “तू मूर्ख है, तुझे कुछ समझ नहीं आता।” अब हमारी मित्रता प्रेम में बदल गयी थी। उस समय शनिवार को ऑफिस जल्दी बंद हो जाते थे। हम रचना सिनेमा हॉल में फिल्में देखते, बुद्ध गार्डन में बॉलीवुड प्रेमियों की तरह घूमते। लेकिन नियति को कुछ और ही मंज़ूर था। कुछ दिनों से वह मिलने नहीं आयी। एक दिन उसकी सहेली लंच टाइम में मेरे ऑफिस आई और बोली, “विवेक, उससे मिलने की कोशिश मत करना। हमारे ऑफिस भी मत आना।” मैंने पूछा, “क्या हुआ?” उसने बताया कि उसके पिता ने उसके बड़े भाई के दोस्त से उसकी शादी की बात की थी। उसने साफ़ मना कर दिया और कहा -“मैं उस शराबी से शादी करूंगी? आप यह कैसे सोच सकते हैं?”उसका भाई भड़क गया और पिता से बोला, "मैं तो पहले ही कह रहा था कि उसे नौकरी मत करने दो। बाहर इधर-उधर नजरें लड़ाती फिरती होगी"।'भाई की बात सुन वह भी तमतमा गई— “हाँ करती हूँ। क्या कर लोगे? वह तुम्हारे दोस्त जैसा शराबी नहीं है। वह साफ-सुथरे ब्राह्मण परिवार से है।”
उस समय दिल्ली में खालिस्तानी हवा बह रही थी। उसकी बात सुन उसके पिता को गुस्सा आया और बेल्ट निकालकर उसे पीटना शुरू कर दिया। वह उससे मेरा नाम बुलवाना चाहते थे। वह मार खाती रही लेकिन उसने मुंह नहीं खोला। उसकी माँ ने किसी तरह उसे बचाया। उसका भाई मुझे मारने की कसम खा चुका था। दो-तीन दिन बाद उसका भाई उसके ऑफिस आया और बोला, “उसका एक्सीडेंट हो गया है। अब वह ऑफिस नहीं आएगी।” फिर धीरे से उसने मुझसे कहा, “उसका एक बॉयफ्रेंड है। उसे उससे मिलना है। मुझे उसका संदेश देना है।” उसके चेहरे के भाव देखकर मेरी छठी इंद्रिय जाग गई। मैंने कहा, “हम सिर्फ ऑफिस के मित्र हैं। बाहर क्या करती है, मुझे नहीं पता।” वह बुदबुदाया, “न बताओ, मैं खुद देख लूंगा।” हमारे मैनेजर को भी शक हुआ। अगले दिन हम उसके घर गए। उसकी माँ चाय बनाने के लिए रसोई में गई। तब वह धीरे से बोली, “विवेक से कहना, कुछ महीनों तक उससे मिलने की कोशिश न करे। मेरा भाई कनाडा जाने की कोशिश कर रहा है। उसके जाने के बाद मैं खुद मिलूंगी।”
नवंबर में मुझे सरकारी नौकरी मिल गई। घर की आर्थिक स्थिति सुधरी। जनवरी 1983 में हम हरिनगर के एलआईजी फ्लैट में शिफ्ट हो गए। एक दिन मैं उसके ऑफिस गया। उसकी सहेली ने बताया, “वह फिर ऑफिस नहीं आयी। कुछ दिन पहले वह उसके घर गई थी—घर पर ताला लगा था। उसके पिता ने घर बेचकर बेटे को कनाडा भेज दिया था और बाकी पैसों से दिल्ली में ही कहीं फ्लैट खरीद लिया। उसकी सहेली की बात सुन मैं स्तब्ध रह गया। इतनी बड़ी दिल्ली में मैं उसे कहाँ खोजता? मेरी प्रेम कहानी यहीं समाप्त हो गयी थी।
कॉफी पीते हुए उसने पूछा, “विवेक, तुम्हारा परिवार कैसा है?” मैं बोला, “तुम्हारा कोई पता नहीं चला। पच्चीस की उम्र पार होते ही मैंने माँ ने पसंद की लड़की से शादी कर ली। दो बच्चे हैं।” “तुम्हारा क्या?” वह बोली, “छह महीने बाद भाई कनाडा चला गया, उसी हफ्ते माँ-बाप का एक्सीडेंट हुआ। घर आते समय एक ट्रक ने उनके स्कूटर को टक्कर मारी। पिताजी हमेशा के लिए बिस्तर पर पड़ गए। माँ भी एक साल तक चल फिर ना सकी। मेरा पूरा समय उनकी सेवा में बीतता था। पिताजी ने दुकान भी बेच दी, पैसे फिक्स डिपॉज़िट में लगाए। भाई थोड़े पैसे घर भेजता था, उसी से गुज़ारा चलता रहा। एक साल बाद माँ वॉकर के सहारे चलने लगी। एक दिन तुम्हारे घर गई, लेकिन तुम शिफ्ट हो चुके थे। ऑफिस की सहेली भी नौकरी छोड़ चुकी थी। तुम्हारा कोई सुराग नहीं था। भाई ने कनाडा में शादी कर ली और पैसे भेजना बंद कर दिया। बचत भी धीरे धीरे खत्म होने लगी थी। मैंने घर पर ट्यूशन शुरू की और सरकारी नौकरी की तैयारी की। 1986 के अंत में नौकरी मिल गई। फिर तुम्हारी खबर मिली—तुम शादीशुदा हो। "मैं टूट गई। शायद मेरे भाग्य में माँ-बाप की सेवा ही थी। इसलिए नियति ने हमें अलग कर दिया।”
मैंने पूछा, “अब कैसे हैं वे?” वह बोली, “पिताजी चार-पाँच साल बाद चल बसे। अंतिम संस्कार मैंने ही किया। माँ ने कई बार शादी की बात की, लेकिन उन्हें छोड़कर कैसे जाती? पिछले साल वह भी चली गईं।” कुछ देर चुप रहकर मैंने पूछा, “क्या तुम अपना पता और फोन नंबर दे सकती हो? कभी ज़रूरत पड़ी तो…”
उसने मेरा दाहिना हाथ अपने हाथ में लिया। उसके स्पर्श में एक जलन थी। वह बोली, “विवेक, मैंने जीवन में सिर्फ एक पुरुष को छुआ है—तुम्हें। जब रातों में मैं बेचैन होती हूँ, मन व्याकुल हो उठता है—तब तुम्हारा स्पर्श याद आता है और मुझे सुकून से भर देता है। उस एक प्रेमभरे स्पर्श से ही मुझे जीने की ताक़त मिलती है। मेरा पता मत मांगो। फोन नंबर भी नहीं। अगर कभी मैं दिखूं, तो दूसरी राह पकड़ लेना। मेरे पास मत आना। अगर मेरी भावनाओं का बाँध टूट गया, तो हम दोनों जलकर राख हो जाएंगे। तुम्हारा परिवार भी बिखर जाएगा।”
उसकी साँसें तेज़ थीं, आवाज़ काँप रही थी। वह उठी, पर्स उठाया और तेज़ कदमों से विपरीत दिशा में चली गई। उसने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। मैं अवाक बैठा रह गया। आँखों में आँसू थे। उसके स्पर्श की ऊष्मा महसूस कर रहा था "वह अंदर ही अंदर सुलग रही थी, फिर भी खुद को समेटे हुए चली गई—मेरे स्पर्श को अपनी खामोशी में सहेजकर।" लसैंकड़ों अनसुलझे सवाल छोड़कर —क्यों नहीं खोजा मैंने उसे? शादी की इतनी जल्दी क्यों की? क्या मैं इंतज़ार नहीं कर सकता था? लेकिन अतीत कभी जवाब नहीं देता। हम सब नियति के गुलाम हैं।
उसे मेरी जानकारी थी, फिर भी वह कभी मिलने नहीं आई। उसने मेरी खुशियों पर अपनी छाया नहीं पड़ने दी। वह गज़ेटेड ऑफिसर बन चुकी थी। उसका पता और नंबर मिलाना मुश्किल नहीं था। लेकिन उसके प्रेम का सम्मान कर मैंने भी उससे मिलने का प्रयत्न नहीं किया। अब वह मेरे स्पर्श को दिल में सँजोकर अपना जीवन जी रही है। उसने मुझसे सच्चा प्रेम किया था।
और मैं…? मैं क्या सचमुच उससे प्रेम करता था, यह आज भी नहीं जानता। कुछ सवालों के जवाब कभी नहीं मिलते। वे उम्र भर हमें सताते रहते हैं।