रविवार, 12 अक्टूबर 2025

चिन्या की दिवाली और फटाकों का आनंद

 

सड़क के एक तरफ बड़े-बड़े बंगले थे और दूसरी तरफ झुग्गी बस्ती। यह किसी भी बड़े शहर का आम दृश्य था। दस साल का चिन्या ऐसी ही एक झुग्गी में रहता था। बाकी बच्चों की तरह उसे भी दिवाली पर अनार, चरखी, रॉकेट जैसे फटाके चलाने की इच्छा थी।

उसके पापा ने उसे एक छोटा सा पिस्तौल दिलाया था। दिनभर टिकली चलाकर वह ऊब गया था। शाम को जब उसने आसमान में उड़ते रॉकेट देखे, तो उसे महसूस हुआ कि उसके पापा अनार जैसे फटाके नहीं ला सकते। "हम गरीब हैं," यह सोच उसे दुखी करने लगी।

"चिन्या, अंदर क्यों बैठा है? बाहर आ! सामने वाला कोठी वाला बड़ा अनार चलाने वाला है!" पापा की आवाज सुनकर चिन्या बाहर आया। सामने एक आदमी ने अनार चलाया। रंग-बिरंगा फव्वारा आसमान में चमका।

"क्या मजा आया ना!" पापा ने पूछा।

"कैसा मजा? मैंने थोड़ी अनार चलाया है," चिन्या बोला।

"देख सामने के बच्चे कैसे ताली बजा रहे हैं, कूद रहे हैं। उन्होंने भी अनार नहीं चलाया," पापा ने समझाया।

"नहीं चलाया, लेकिन उनके नौकर ने तो चलाया!" चिन्या बोला।

"अगर ऐसा होता तो सिर्फ नौकर को खुशी मिलती, बच्चों को नहीं," पापा ने कहा।

चिन्या चुप रहा।

"देख चिन्या, बड़े लोग, राजा-महाराजा, सेठ—खुद कुछ नहीं करते। उनके नौकर उनके लिए काम करते हैं। सोचो कि ये नौकर तुम्हारे लिए अनार चला रहा है। देखो कितना मजा आएगा!" पापा ने कहा।

"मतलब वो हमारा नौकर है, ऐसा मानू?" चिन्या ने पूछा।

 बस तभी चिन्या ने देखा, “पापा! वो नौकर फिर से एक अनार फोड़ने वाला है!” वह उत्साह से चिल्लाया। नौकर की ओर देखते हुए चिन्या बोला, “अरे भैया! हमारे लिए भी एक अनार फोड़ दो!”

 

नौकर ने सड़क के पार झोपड़ी के सामने खड़े छोटे चिन्या को देखा। उसे अपने गांव में छोड़े बेटे की याद गईवही उत्सुक चेहरा, वही चमकती आँखें। नौकर ने एक बड़ा, मोटा अनार उठाया, चिन्या को दिखाया और उसे जलाया। और लो! लाल, नीले और सुनहरे रंग की चिंगारियाँ आसमान में नाच उठीं। लाल, नीले और सफेद रंग की चमकती चिंगारियाँ आसमान को रोशन कर गईं।

चिन्या ने तालियाँ बजाईं और खुशी से उछल पड़ा। सड़क पार से नौकर को एक हँसता हुआ चेहरा मिला। नौकर ने भी मुस्कराहट लौटाईएक मजबूर पिता की उदास मुस्कान।

उस मुस्कान को देखकर चिन्या के पिता की आँखें भर आईं। बेबस पिताओं के आँसू।

नौकर की तरफ देखकर चिन्या चिल्लाया, " नौकर! हमारे लिए अनार चलाओ!"

लाल, नीले, सफेद रंग की सप्तरंगी रोशनी आसमान में फैल गई। चिन्या ने ताली बजाई, कूदने लगा। उसके चेहरे पर मुस्कान थी।

वह मुस्कान देखकर पापा की आंखों में आंसू गए।


सोमवार, 6 अक्टूबर 2025

ययाति का द्वंद: भोग का मार्ग या त्याग का मार्ग

 बुद्धिमान और शक्तिशाली ययाति को पृथ्वी का साम्राज्य दिया जाता है। ऋषि उसे उपदेश देते हैं: “तुझे पृथ्वी के सभी जीव-जंतु और जड़-चेतन सभी की रक्षा करनी है। क्षमा, दया और सहनशीलता मानवता के सच्चे आभूषण हैं। त्याग के साथ भोग करने से ही जीवन सार्थक होता है। यदि तू यह मार्ग अपनाएगा, तो प्रलय तक पृथ्वी का भोग कर सकेगा।

लेकिन ययाति अपने ज्ञान और शक्ति के नशे में चूर है। उसे लगता है कि "क्षमा और दया" दुर्बलों की भाषा है। वह कहता है कि पृथ्वी वीरों के भोग के लिए है, दुर्बलों को यहाँ जीने का अधिकार नहीं।

वह शूद्र जीवों को पैरों तले कुचलता है। बड़े वन्य प्राणी भी उसके मनोरंजन के साधन बन जाते हैं। वह चिरयौवना  पृथ्वी की सुंदरता से मोहित हो जाता है।  लेकिन उसकी राक्षसी लालसा उस सुंदरता को नष्ट कर देती है। वह उन्मादी और बलात्कारी बन जाता है, पृथ्वी के हरित वस्त्रों को फाड़ देता है। उसकी क्रूरता से पृथ्वी के शरीर पर गहरे घाव हो जाते हैं। इलाज न होने पर वे घाव सड़ने लगते हैं और वातावरण में विषैली दुर्गंध फैल जाती है। अब ययाति को श्वास लेने में भी तकलीफ होने लगती है। 

स्वर्ग के देवता उसे चेतावनी देते हैं: “तेरा जीवन पृथ्वी से जुड़ा है। भोग का मार्ग छोड़ और पृथ्वी को बचा—नहीं तो तू भी उसके साथ नष्ट हो जाएगा।

ययाति देवताओं को तुच्छ समझता है। वह ज्ञान के बल पर अंतरिक्ष में दूसरी पृथ्वी खोजने की सोचता है, या शक्ति के बल पर देवताओं को अपदस्थ कर स्वर्ग में अप्सराओं के साथ नित्य नए भोग का सपना देखता है। कभी-कभी उसे लगता है कि शायद स्वर्ग का अमृत उसकी प्यास ना बुझा सके।

लेकिन मनुष्य का भाग्य समय  के गर्भ में छिपा है। क्या ययाति भोग का नीच मार्ग छोड़कर त्याग और तपस्या का मार्ग अपनाएगा? या वह अंतरिक्ष के असीम अंधकार में खो जाएगा?

फिलहाल ययाति किंकर्तव्यविमूढ़ है।

बुधवार, 1 अक्टूबर 2025

विक्रमादित्य और सिंहासन की सीढ़ियाँ: आत्मा के बदले सत्ता"

 

राजा विक्रमादित्य सत्ता को केवल वैभव या प्रतिष्ठा के लिए प्राप्त नहीं चाहता था। वह सत्ता का उपयोग जनता के दुःख, गरीबी और अन्याय को दूर करने के लिए करना चाहता था।  वह  मंत्रियों और अधिकारियों लूट को बंद कर जनता का भला करना चाहता था।  उसने निश्चय किया कि वह राज्यलक्ष्मी की आराधना करेगा और उसकी कृपा से प्राप्त सत्ता का उपयोग जनकल्याण के लिए करेगा। सत्ता प्राप्त करने के बाद  वह गरुड़ जैसी पैनी नजर रख शासन के भ्रष्ट मंत्री और  भ्रष्ट अधिकारियों के अत्याचारों  से जनता की रक्षा करेगा।  

राजा की तपस्या से राज्यलक्ष्मी प्रसन्न हुई। शुभ मुहूर्त पर विक्रमादित्य सिंहासन की ओर बढ़ा। लेकिन सिंहासन तक पहुँचने के लिए सिंहासन की सीढ़ियों पर लगी उसे चार पुतलियों की परीक्षा पास करनी थी।  

पहली सीढ़ी पर जैसे ही राजा विक्रमादित्य ने पैर रखा पहली पुतली (जिसके आँखों पर पट्टी थी) बोली: “राजा को बुराई नहीं देखनी चाहिए।” चाहे भ्रष्टाचार और अन्याय सामने हो, उसे अनदेखा करना होगा।" राजा ने आँखें ढँक लीं। दूसरी पुतली (जिसके कान ढँके हुए थे) बोली: “राजा को बुराई नहीं सुननी चाहिए।” राजा को यदि जनता की पीड़ा, किसानों की आत्महत्या, गरीबी की चीखें सुनाई दे तो राजा को  कान बंद रखने होंगे।" राजाने कान ढँक लिए। तीसरी पुतली (जिसके होंठों पर उंगलीथी) बोली: “राजा को बुरा नहीं बोलना चाहिए।” चाहे मंत्री भ्रष्ट हों, राजा को मौन रहना होगा।" राजा ने मौन स्वीकार किया।

चौथी पुतली बोली: “अगर आँखें, कान और मुँह बंद भी कर लो, तो आत्मा बेचैन रहेगी। न्यायप्रिय राजा सत्ता खो देता है। अगर सत्ता चाहिए, तो अपनी आत्मा मुझे दे दो।” विक्रमादित्य ने चौथी पुतली को अपनी आत्मा अर्पित कर दी और वह सिंहासन पर बैठ गया।

जैसे ही वह सिंहासन पर बैठा, उसके सामने एक दिव्य दृश्य प्रकट हुआ: हरे-भरे खेत, मुस्कुराते किसान, गलियों में खेलते खुशहाल बच्चे, चहल-पहल से भरे बाज़ार, और एक शांत, समृद्ध समाज। दुख, गरीबी या अन्याय का कोई नामोनिशान नहीं था। हर घर में हँसी थी, हर दिल में उम्मीद, और हर कदम में खुशी। विक्रमादित्य को विश्वास हो गया  राजलक्ष्मी का आशीर्वाद से उसे  एक स्वर्ग जैसा राज्य प्राप्त हुआ है। 

आज भी कई नेता सत्ता पाने से पहले ईमानदारी और जनसेवा की बातें करते हैं, लेकिन सत्ता मिलते ही बदल जाते हैं।    सत्ता पाने के लिए अक्सर आत्मा  गिरवी रखनी पड़ती है। उसके बाद राजा को जनता के दुख और दर्द दिखाई नहीं देते हैं। 

गुरुवार, 25 सितंबर 2025

एक याद – गोटू और क्रिकेट की गेंद

 
सर्दियों की छुट्टियाँ थीं। उम्र बारह की रही होगी, लेकिन मन जैसे पहली बार दुनिया को समझने निकला था। पुरानी दिल्ली के मोरीगेट के बाहर फैले बागों में हम क्रिकेट खेलते थे. गरीब लड़कों की टीम, जिनके पास जुनून था, लेकिन गेंद नहीं। कॉर्क की गेंद के लिए हम पैसे जोड़ते थे — दस पैसे, बीस पैसे — और जब तीन रुपये इकट्ठा होते, तो लगता जैसे कोई खज़ाना मिल गया हो। असली क्रिकेट गेंदें तो अमीर लड़कों के पास होती थीं — सफेद कपड़े, चमकते बैट, और वो गेंद जो हमारे सपनों में थी।

एक दिन गोटू मिला.  मेरी ही उम्र का था वह.  उसके पास क्रिकेट की कई गेंदें थीं। उसने कहा, “DDCA से जान-पहचान है। मैच के बाद पुरानी गेंदें सस्ते में मिल जाती हैं।” हम उसके ग्राहक बन गए. क्रिकेट की असली गेंद , गेंद की कंडिशन के हिसाब से हम उससे  एक रुपये की, दो रुपये की, कभी तीन की भी खरीदते थे. 

गोटू अच्छा खेलता था। कभी-कभी हमारे साथ भी। कुछ दिनों बाद पता चला, उसका असली नाम असलम था। बल्लीमारान में रहता था। फिर एक दिन उसने वादा किया, लेकिन गेंद नहीं लाया। बाद में पता चला, वो गेंद किसी और को बेच दी थी।

मेरे दोस्त ने उसे डांटा, तो उसने कहा कि वह फिरोजशाह कोटला जा रहा है, अगर गेंद मिली तो अगली सुबह देगा। हमें उस पर भरोसा नहीं हुआ। मैंने और मेरे दोस्त ने तय किया कि हम भी वहाँ चलेंगे और देखेंगे कि वह गेंद कहाँ से लाता है। अगर पता चल गया तो हम भी सीधे थोक में खरीद सकते हैं और बेचकर पैसे कमा सकते हैं

हम पैदल दिल्ली गेट पहुँचे। तब फिरोजशाह कोटला स्टेडियम इतना बड़ा नहीं था। एक गली सीधे स्टेडियम की ओर जाती थी। स्टेडियम की दीवार और गली के बीच एक छोटा मैदान था, जहाँ DDCA की लीग मैचें होती थीं।हमने देखा कि गोटू गली के छोर पर बैठा था। मैच चल रहा था। हमें देखकर वह मुस्कराया और बोला, “धंधे का राज जानने आए हो क्या?” मैंने कहा, “अगर भरोसा होता तो यहाँ क्यों आते?” उसने कहा, “मैच चल रहा है, थोड़ी देर धूप में बैठना पड़ेगा।” मैंने कहा, “चलो थोड़ा आगे पेड़ के नीचे बैठते हैं।” वह हँसकर बोला, “अब आ ही गए हो तो चुपचाप बैठो और तमाशा देखो।”
हम वहीं बैठ गए। थोड़ी देर में बल्लेबाज़ ने जोरदार शॉट मारा और गेंद हमारी तरफ आई। गोटू जैसे इसी पल का इंतज़ार कर रहा था। वह दौड़कर गेंद उठाई और चिल्लाया, “भागो, भागो!” हमें कुछ समझ नहीं आया, लेकिन उसे भागते देख हम भी दौड़ पड़े।

हम एक दीवार की दरार से गली के अंदर घुसे और राहत की साँस ली। गोटू हँसते हुए बोला, “क्यों, मज़ा आया ना? थोड़ी देर और होती तो पकड़े जाते। बहुत मार पड़ती है, कभी-कभी पुलिस को भी सौंप देते हैं। जान हथेली पर रखकर तुम्हारे लिए गेंद लाता हूँ, फिर भी भरोसा नहीं करते।”

मन में एक ख्याल आया — अगर उस दिन हम पकड़े गए होते तो क्या होता... हमने कोई गलती नहीं की थी, फिर भी शायद हमें खूब मार पड़ती।
अगर यह बात घर तक पहुँच जाती, तो उसकी कल्पना भी करना मुश्किल है।क्रिकेट खेलना तो निश्चित ही बंद हो गया होता — हमेशा के लिए।

मैंने उससे पूछा, “इतना खतरा उठाकर तू ये सब क्यों करता है?” कुछ पल वह चुप रहा, फिर उसकी आँखें भर आईं। बोला, “घर पर मुझसे छोटे दो भाई और एक बहन है। माँ दो साल पहले गुजर गई, बाप ने दूसरी शादी कर ली। वह सब्ज़ी बेचता है, लेकिन मुझे एक पैसा नहीं देता। सौतेली माँ छोटे बच्चों को ठीक से खाना भी नहीं देती। मैं जो पैसे कमाता हूँ, उनसे उनके लिए खाना लाता हूँ।”

उसकी बात सुनकर मैं चुप हो गया। जाते समय मैंने वादा किया कि आज की घटना किसी को नहीं बताऊँगा। हमने वह वादा निभाया भी। अगली गर्मी की छुट्टियों में वह मैदान में नहीं दिखा।

इस साल IPL का मैच देखते हुए, न जाने क्यों, 42 साल बाद उसकी याद आ गई। सोचता हूँ, आज वह कहाँ होगा...
 
 

शनिवार, 20 सितंबर 2025

दंगे की राख में बचपन

 

यह बचपन की कहानी है। मेरी उम्र लगभग 12-13 साल थी। हमारा स्कूल पहाड़गंज में थी। स्कूल सुबह की थी, इसलिए हम 7-8 दोस्त पैदल ही स्कूल जाते थे। नया बाजार, कुतुब रोड, सदर बाजार, बारा टूटी, मोतियाखान होते हुए स्कूल पहुंचते द.  स्कूल पहुँचने में लगभग आधा घंटा लगता था। रोज़ 3-4 किलोमीटर चलने से चप्पल और जूते जल्दी खराब हो जाते थे।

मोतियाखान में फुटपाथ पर एक मोची  बैठता था। 5-10 पैसे में जूते-चप्पल ठीक करता था। उसका बेटा छोटू, हमारी उम्र का ही था। वह सरकारी स्कूल में पढ़ता था, जो दोपहर की होती थी। सुबह वह अपने पिता की मदद करता था।

उन दिनों पुरानी दिल्ली में साल में 2-4 दंगे होते थे। हमारे लिए दंगे का  मतलब दुकानों की लूट और आगजनी। एक बार सदर बाजार में दंगा हुआ। कपड़ों की कई दुकानें लूटी गईं। गरीबों ने भी मौका देखकर कपड़े उठा लिए। स्कूल में फटे कपड़े पहनने वाले बच्चे नए कपड़ों में दिखने लगे।

दंगे के 15-20 दिन बाद की बात है। स्कूल के बाद हम घर जा रहे थे। एक दोस्त के जूते फट गए थे। छोटू उस दिन मैली-कुचैली स्कूल यूनिफॉर्म में दुकान पर बैठा था। 

मैंने पूछा, "अब्बू की तबियत खराब है क्या?"

छोटू बोला, "स्कूल छोड़ दिया है। अब दुकान पर ही बैठूंगा।"

मैंने पूछा, "क्यों?"

उसने कहा, "अब्बू जेल में हैं।"

छोटू ने कहा उस दिन सुबह उसकी अम्मी ने अब्बू को उठाया और कहा, "सदर में दुकानें लूटी जा रही हैं। पड़ोसी नानके कपड़े उठा लाया है। मोहल्ले के बाकी मर्द भी गए हैं। तुम सो रहे हो?" अब्बू उठे, मन में सोचा कि यह ठीक नहीं है। लेकिन उन्होंने कई सालों से बच्चों के लिए नए कपड़े नहीं खरीदे थे। वहाँ तो पूरा मोहल्ला—हिंदू हो या मुसलमान—दुकानों की लूट में शामिल था। अब्बू भी उस भीड़ का हिस्सा बन गए। सदर बाज़ार में एक दुकान से लोग कपड़ों के थान सिर पर उठाकर बाहर निकल रहे थे। अब्बू भी उस दुकान में घुसे।

"लालच बुरी बला होती है" यह कहावत यूँ ही नहीं बनी है। शरीर साथ नहीं दे रहा था, फिर भी अब्बू ने 3–4 कपड़ों के थान सिर पर लाद लिए और दुकान से बाहर निकले। तभी अचानक आवाजें आईं—"पुलिस! पुलिस!" अब्बू घबरा गए। उनका  संतुलन बिगड़ गया और वे सड़क पर गिर पड़े। चोट तो लगी ही, साथ ही पुलिस ने उन्हें रंगे हाथ पकड़ लिया। 

उस उम्र में यह समझना आसान नहीं था कि ऐसे समय में क्या कहना चाहिए। फिर भी मैंने हिम्मत करके पूछा, "कोई वकील किया है क्या?"

"हाँ, एक वकील किया है, लेकिन वह कहता है कि अब्बू के खिलाफ पक्के सबूत हैं। अब्बू को कुछ साल तो जेल में रहना ही पड़ेगा।"

छोटू बोला, "अब्बू से गलती हो गई। किस्मत खराब थी।"

अब छोटू की पढ़ाई छूट गई। घर की जिम्मेदारी उसके कंधों पर आ गई।

उस साल की ईद और दिवाली कई घरों में अंधेरा लेकर आई।

मोगरे की वेणी

 

करीब ३५ साल बाद वे दोनों फिर मिले। बाल सफेद हो चुके थे, चेहरे पर उम्र की लकीरें थीं, लेकिन आंखों में पहचान अब भी ताज़ा थी। उसे आखिरी मुलाकात याद आई—नेहरू पार्क। उसके बालों में मोगरे के फूलों की वेणी थी, वह उसके करीब बैठी थी। उसने वेणी को सूंघने का बहाना करते हुए उसके गाल पर हल्का सा चुंबन लिया।

“दूर हटो! क्या समझा तुमने? अभी तो हमारी शादी भी नहीं हुई,” वह नाराज़ होकर बोली।

“तो फिर कब पूछोगे अपने पिताजी से? मुझे नौकरी लगे एक साल हो गया है।”

“मेरे पापा एक किराए के मकान में रहने वाले लड़के से अपनी बेटी की शादी नहीं करेंगे।”

“तो क्या हम ऐसे ही रहेंगे?”

“मैं सरकारी नौकरी के लिए कोशिश कर रही हूं। एक बार नौकरी लग गई तो पापा से कहूंगी—एक स्मार्ट, थोड़े बेअक्ल, लेकिन कंजूस लड़के से शादी करनी है। हमारी दोनों की तनख्वाह में घर चल जाएगा। पापा मना नहीं करेंगे, मुझे यकीन है।”

“मैं कंजूस?”

“तो क्या! अपनी प्रेमिका को चाणक्य सिनेमा में ६५ पैसे की पहली पंक्ति की टिकट दिलाने वाला, एक रुपए का पॉपकॉर्न और एक कप कॉफी दोनों के लिए। क्या मजनू है मेरा! वैसे, तुम्हारे माता-पिता से पूछा क्या?”

“दूध देने वाली गाय को कौन मना करता है।”

उसने उसकी पीठ पर ज़ोर से थप्पड़ मारा।

“अरे! कितना ज़ोर से मारती हो!”

“अरे नहीं, अब ‘पत्नी जी’ कहना सीखो।”

“मतलब शादी के बाद भी मारोगी?”

“हां, लेकिन बेलन से।”

उसके बाद वह कभी नहीं मिली। बाद में पता चला कि उसने मुंबई में एक सरकारी दफ्तर में नौकरी जॉइन की थी। उसकी शादी भी हो गई थी। वह कोई देवदास नहीं था। उसने अपनी मां की पसंद की लड़की से शादी कर ली।

“कैसी हो?” उसने पूछा।

वह बोली, “नाराज़ तो नहीं हो मुझसे? मेरे पापा को हमारे रिश्ते के बारे में पता चल गया था। मुझे तुमसे दूर करने के लिए उन्होंने चाल चली। मां ने कसम दिलाई। तुम भी वहां नहीं थे। मजबूरी में पापा की इच्छा माननी पड़ी।”

“तुम्हारे पति क्या करते हैं?”

“अब वे जीवित नहीं हैं। एक बड़ी कंपनी में ऊंचे पद पर थे, लेकिन शराब और जुए की लत में डूब गए। नशे में वे शैतान बन जाते थे। सारा गुस्सा मुझ पर निकालते थे। कुछ ही सालों में वे चले गए। बेटा भी पिता की राह पर चला। शराब ने उसकी भी जान ले ली। अब शायद रिटायरमेंट के बाद वृद्धाश्रम जाना पड़े। किस्मत है सबकी अपनी। तुम्हारा क्या?”

“तुम्हारी शादी की खबर सुनकर मुझे गुस्सा आया था। लेकिन मां ने समझाया—जिंदगी ऐसी ही होती है। मैंने मां की पसंद से शादी की। शादी के बाद एक बार पत्नी के साथ ओडियन में बालकनी की टिकट लेकर ‘मैंने प्यार किया’ फिल्म देखी।" बोलते समय एक उदास मुस्कान उसके चेहरे पर तैर गयी। 

“वाह! किस्मत वाली है वो—प्रेमिका के लिए ६५ पैसे की टिकट और पत्नी के लिए बालकनी!” कहते हुए उसने जीभ काट ली।

उसकी नजर सड़क पर मोगरे की वेणी बेचने वाले दुकानदार पर गई। मन में ख्याल आया—उसके सफेद बालों पर भी मोगरे की वेणी खूब जचेगी। वह रुका, पूछा, “वेणी लोगी?”

“हां, ले लो! अपनी पत्नी के लिए। मुझे भी मोगरे की वेणी पसंद है।”

उसने दो वेणियां लीं। एक उसके हाथ में दी।

उसने कहा, “तुम्हें भूलने की बहुत कोशिश की, लेकिन नहीं भूल पाई। उनके जाने के बाद तो बस तुम्हारी ही याद आती थी। कभी लगता था शायद तुम अब भी मेरा इंतज़ार कर रहे हो, कभी लगता था तुम्हारा भी परिवार होगा। खुद को समझाने की बहुत कोशिश की। जब तुम्हारी याद बेकाबू हो जाती, तो बाजार जाकर मोगरे की वेणी खरीदती, कमरे का दरवाज़ा बंद करके बालों में वेणी सजाकर आईने के सामने खड़ी होकर रोती... आज भी रोऊंगी।” कुछ पल दोनों चुप रहे। तभी उसकी बस आई और वह चली गई।

कुछ देर बाद उसकी नजर हाथ में पकड़ी मोगरे की वेणी पर गई। उसने  पत्नी के कहने के बावजूद भी कभी भी अपनी पत्नी के लिए वेणी नहीं खरीदी थी। और आज... उसके मन में विचारों का तूफान उठा। शादी से पहले उसकी पत्नी ने भी सप्तरंगी संसार के सपने देख होंगे। लेकिन हकीकत में ज़िंदगी भर वह पति की कम तनख्वाह में घर चलाने की जद्दोजहद करती रही। उसने अपनी सारी इच्छाएं मार दीं। कभी कुछ मांगा नहीं, कभी ज़िद नहीं की। उसे याद आया—कई बार उसके और बच्चों के टिफिन भरने के बाद सब्ज़ी बचती ही नहीं थी। जब पूछता, “अरे! तुम्हारे लिए सब्ज़ी नहीं बची?” तो वह कहती, “मैं अपना देख लूंगी।” अक्सर अचार या तेल-नमक-मिर्च के साथ रोटी खाकर भूख मिटा लेती। उसने भी उसे तन और मन से प्यार किया था। बदले में उसने क्या दिया? क्या मैंने कभी दिल से उसे प्यार किया?

उसने ठान लिया—अब सब भूलकर फिर से जीवन की शुरुआत करनी है।घर जाकर उसने अपने हाथों से पत्नी के सफेद बालों में मोगरे की वेणी सजाई..

 

रविवार, 14 सितंबर 2025

सत्य का भार

 

एक बार छह ऋषि, जनकल्याण की दिव्य भावना से प्रेरित होकर, हिमालय के हृदय में पहुँचे। उनकी आँखों में जिज्ञासा थी, हृदय में तपस्या, और आत्मा में एक ही ध्येय—सत्य की खोज

उन्होंने एक हिमाच्छादित पर्वत पर कठोर तप आरंभ किया। समय थम गया, वायु स्थिर हो गई, और अंततः... सत्य प्रकट हुआ।

सत्य का तेज इतना प्रखर था कि प्रत्येक ऋषि ने उसे भिन्न रूप में देखा—किसी को वह करुणा का प्रतीक लगा, किसी को न्याय का, किसी को प्रेम का, और किसी को शून्यता का। सभी ने सत्य का वर्णन किया, और आश्चर्य की बात यह थी कि हर वर्णन अलग था। फिर भी कोई असत्य नहीं बोल रहा था।

अंततः वृद्ध ऋषि ने मौन तोड़ा। उन्होंने कहा: "सत्य एक ही होता है, पर उसका प्रतिबिंब हर हृदय में अलग रूप में उतरता है। जब उसका पालन किया जाए, वह अमृत बनता है। लेकिन जब उसे दूसरों पर थोपने का प्रयास किया जाए, वह विष बन जाता है—और विनाश का कारण बनता है।"

उन्होंने शिष्यों को पृथ्वी पर लौटने का आदेश दिया, एक ही उपदेश देकर—सत्य का प्रचार करो, पर उसे बंधन मत बनाओ।

ऋषि पृथ्वी पर लौटे। उन्होंने सत्य का प्रचार किया, पर समय के साथ वे वृद्ध ऋषि की चेतावनी भूल गए। उनके शिष्य अहंकार से अंधे हो गए और अपने अनुभव किए गए सत्य को दूसरों पर थोपने लगे। सत्य प्रचार का माध्यम नहीं रहा, वह शस्त्र बन गया। मठ-मंदिर जलने लगे, विचारों का युद्ध छिड़ गया, और अंततः...

आज सत्य ही मानवता के विनाश का कारण बनने को है।

सत्य एक तेज है जो संसार को प्रकाशित करता है, पर वह विनाश भी कर  सकता है। उसे आत्मसात करने के लिए अहंकार का त्याग करना पड़ता है और दूसरों के अनुभव किए सत्य का भी सम्मान करना पड़ता है। क्योंकि सत्य एक नहीं, अनेक रूपों में प्रकट होता है। यही अंतिम सत्य है।