मैकाले शिक्षा के माध्यम से हमें पढ़ाया गया आर्य विदेशी थे। भारत के मूल निवासियों पर सदा विदेशियों ने राज किया है। इस सब का आधार क्या, यह हमें कभी बताया नहीं गया। इसका मुख्य उद्देश्य फूट डालो राज करो की नीति से सदा के लिए ब्रिटिश शासन भारत पर थोपना था। आजादी के बाद भी समाज में फूट डाल राज करने के लिए इस झूठ को और बढ़ावा दिया। आर्य, द्रविड़, मूल निवासी भांति-भांति के कृत्रिम भेद समाज में फैलाये गए।
आर्य शब्द का अर्थ क्या है, यह जानने के लिए गूगल की सहायता ली। मैंने जाना सभी भारतीय धर्म ग्रंथोंमे पढे लिखे सत्य और धर्म मार्ग पर चलाने वाले सभ्य व्यक्ति को ही आर्य कहा है। किसी जाती या क्षेत्र के लोगोंके लिए नहीं। उसी का सार:
मनुस्मृति में कहा है,
मद्य मांसा पराधेषु गाम्या पौराः न लिप्तकाः।
आर्या ते च निमद्यन्ते सदार्यावर्त्त वासिनः।
वे ग्राम व नगरवासी, जो मद्य, मांस और अपराधों में लिप्त न हों तथा सदा से आर्यावर्त्त के निवासी हैं, वे ‘आर्य’ कहे जाते हैं।
वाल्मीकि रामायण में कहा है,
सर्वदा मिगतः सदिशः समुद्र इव सिन्धुभिः।
आर्य सर्व समश्चैव व सदैवः प्रिय दर्शनः। (बालकांड)
जिस तरह नदियाँ समुद्र के पास जाती है, उसी तरह जो सज्जनों के लिए
सुलभ है, वे ‘आर्य’ हैं, जो सब पर समदृष्टि रखते हैं, हमेशा प्रसन्नचित्त रहते हैं।
न वैर मुद्दीपयति प्रशान्त,न दर्पयासे हति नास्तिमेति।
न दुगेतोपीति करोव्य कार्य,तमार्य शीलं परमाहुरार्या।(उद्योग पर्व)
जो अकारण किसी से वैर नहीं करते तथा गरीब होने पर भी कुकर्म नहीं करते उन शील पुरुषों को ‘आर्य’ कहते हैं।
वशिष्ठ स्मृति में कहा है ,
कर्त्तव्यमाचरन काम कर्त्तव्यमाचरन।
तिष्ठति प्रकृताचारे यः स आर्य स्मृतः।
जो करने योग्य उत्तम कर्म को करता है और न करने योग्य दुष्टकर्म को नहीं करता है और जो श्रेष्ठ आचरण मेन स्थिर रहता है, वही आर्य है।
गीता में कहा है ,अनार्य जुष्टम स्वर्गम् कीर्ति करमर्जुन।
(अध्याय २ श्लोक २)
हे अर्जुन ! तुझे इस असमय में यह अनार्यों का सा मोह किस हेतु प्राप्त हुआ क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है और न स्वर्ग को देने वाला है तथा न कीर्ति की और ही ले जाने वाला है | (यहां पर अर्जुन के अनार्यता के लक्षण दर्शाये हैं)
चाणक्य नीति में कहा है,
अभ्यासाद धार्यते विद्या कुले शीलेन धार्यते।
गुणेन जायते त्वार्य,कोपो नेत्रेण गम्यते।
(अध्याय ५ श्लोक ८)
सतत् अभ्यास से विद्या प्राप्त की जाती है, कुल-उत्तम गुण, कर्म, स्वभाव से स्थिर होता है, आर्य-श्रेष्ठ मनुष्य गुणों के द्वारा जाना जाता है।
नीतिकार के शब्दों में,
प्रायः कन्दुकपातेनोत्पतत्यार्यः पतन्नपि।
तथा त्वनार्ष पतति मृत्पिण्ड पतनं यथा।
आर्य पाप से च्युत होने पर भी गेन्द के गिरने के समान शीघ्र ऊपर उठ जाता है, अर्थात् पतन से अपने आपको बचा लेता है, अनार्य पतित होता है,तो मिट्टी के ढेले के गिरने के समान फिर कभी नहीं उठता।
अमरकोष में कहा है,
महाकुलीनार्य सभ्य सज्जन साधवः।
(अध्याय२ श्लोक६ भाग३)
जो आकृति, प्रकृति, सभ्यता, शिष्टता, धर्म, कर्म, विज्ञान, आचार, विचार तथा स्वभाव में सर्वश्रेष्ठ हो, उसे ‘आर्य’ कहते हैं ।
बौद्धों के धम्म पद में कहा है,
अरियत्पेवेदिते धम्मे सदा रमति पण्डितो।
पण्डित जन सदा आर्यों के बतलाये धर्म में ही रमण करता है।
पाणिनि सूत्र में कहा है ,
आर्यो ब्राह्मण कुमारयोः।
ब्राह्मणों में ‘आर्य’ ही श्रेष्ठ है। इसका अर्थ है जो ब्राह्मण धर्म मार्ग पर नहीं चलता वह आर्य नहीं है।
हमारा कम पढ़ा लिखा पंडित भी पूजा पाठ के समय हमसे निम्न शब्दोंके साथ संकल्प कारवाता है।
जम्बू दीपे भरतखण्डे आर्यावर्ते अमुक देशान्तर्गते ....
और अंत में पं. प्रकाशचन्द कविरत्न के शब्दों में,
आर्य बाहर से आये नहीं,
देश है इनका भारतवर्ष।
विदेशों में भी बसे सगर्व,
किया था परम प्राप्त उत्कर्ष।
आर्य और द्रविड जाति हैं,
भिन्नचलें यह विदेशियों की चाल।
खेद है कुछ भारतीय भी,
व्यर्थ बजाते विदेशियों सम गाल।
आज भी सत्ता के लिए तथाकथित मूल निवासी राजनीति हो रही है। देश में भ्रम फैलाया जा रहा है। हमें ऐसे लोगोंसे सावधान रहना चाहिए। देश के सभी जाती और धर्म के निवासी जो सत्य मार्ग पर चलते हैं आर्य ही है।