सोमवार, 8 अगस्त 2022

जानिए आर्य शब्द का अर्थ अपने ग्रन्थों से


मैकाले  शिक्षा के माध्यम से हमें पढ़ाया गया आर्य विदेशी थे। भारत के मूल निवासियों पर सदा विदेशियों ने राज किया है। इस सब का आधार क्या, यह हमें कभी बताया नहीं गया।  इसका मुख्य उद्देश्य फूट डालो राज करो की नीति से सदा के लिए ब्रिटिश  शासन भारत पर थोपना था।  आजादी के बाद भी समाज में फूट डाल राज करने के लिए इस झूठ को और बढ़ावा दिया। आर्य, द्रविड़, मूल निवासी भांति-भांति के कृत्रिम भेद समाज में फैलाये गए।    

आर्य शब्द का अर्थ क्या है, यह जानने के लिए गूगल की सहायता ली।  मैंने जाना सभी भारतीय धर्म ग्रंथोंमे  पढे लिखे सत्य और धर्म मार्ग पर चलाने वाले सभ्य व्यक्ति को ही आर्य कहा है।  किसी जाती या क्षेत्र के लोगोंके लिए नहीं। उसी का सार: 

मनुस्मृति में कहा है,

मद्य मांसा पराधेषु गाम्या पौराः न लिप्तकाः।
आर्या ते च निमद्यन्ते सदार्यावर्त्त वासिनः।

वे ग्राम व नगरवासी, जो मद्य, मांस और अपराधों में लिप्त न हों तथा सदा से आर्यावर्त्त के निवासी हैं, वे ‘आर्य’ कहे जाते हैं।

वाल्मीकि रामायण में कहा है,

सर्वदा मिगतः सदिशः समुद्र इव सिन्धुभिः।
आर्य सर्व समश्चैव व सदैवः प्रिय दर्शनः। (बालकांड)
 
जिस तरह नदियाँ समुद्र के पास जाती है, उसी तरह जो सज्जनों के लिए 
सुलभ है, वे ‘आर्य’ हैं, जो सब पर समदृष्टि रखते हैं, हमेशा प्रसन्नचित्त रहते हैं।

महाभारत में कहा है,

न वैर मुद्दीपयति प्रशान्त,न दर्पयासे हति नास्तिमेति।
न दुगेतोपीति करोव्य कार्य,तमार्य शीलं परमाहुरार्या।(उद्योग पर्व)

जो अकारण किसी से वैर नहीं करते तथा गरीब होने पर भी कुकर्म नहीं करते उन शील पुरुषों को ‘आर्य’ कहते हैं।

वशिष्ठ स्मृति में कहा है ,

कर्त्तव्यमाचरन काम कर्त्तव्यमाचरन।
तिष्ठति प्रकृताचारे यः स आर्य स्मृतः।
 
जो करने योग्य उत्तम कर्म को करता है और न करने योग्य दुष्टकर्म को नहीं करता है और जो श्रेष्ठ आचरण मेन स्थिर रहता है, वही आर्य है। 

 
गीता में कहा है ,
अनार्य जुष्टम स्वर्गम् कीर्ति करमर्जुन।
(अध्याय २ श्लोक २)

हे अर्जुन ! तुझे इस असमय में यह अनार्यों का सा मोह किस हेतु प्राप्त हुआ क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है और न स्वर्ग को देने वाला है तथा न कीर्ति की और ही ले जाने वाला है | (यहां पर अर्जुन के अनार्यता के लक्षण दर्शाये हैं)


चाणक्य नीति में कहा है,

अभ्यासाद धार्यते विद्या कुले शीलेन धार्यते।
गुणेन जायते त्वार्य,कोपो नेत्रेण गम्यते।
(अध्याय ५ श्लोक ८)
सतत् अभ्यास से विद्या प्राप्त की जाती है, कुल-उत्तम गुण, कर्म, स्वभाव से स्थिर होता है, आर्य-श्रेष्ठ मनुष्य गुणों के द्वारा जाना जाता है

नीतिकार के शब्दों में,
प्रायः कन्दुकपातेनोत्पतत्यार्यः पतन्नपि।
तथा त्वनार्ष पतति मृत्पिण्ड पतनं यथा।

आर्य पाप से च्युत होने पर भी गेन्द के गिरने के समान शीघ्र ऊपर उठ जाता है, अर्थात् पतन से अपने आपको बचा लेता है, अनार्य पतित होता है,
तो मिट्टी के ढेले के गिरने के समान फिर कभी नहीं उठता।

अमरकोष में कहा है,
महाकुलीनार्य सभ्य सज्जन साधवः।
(अध्याय२ श्लोक६ भाग३)

जो आकृति, प्रकृति, सभ्यता, शिष्टता, धर्म, कर्म, विज्ञान, आचार, विचार तथा स्वभाव में सर्वश्रेष्ठ हो, उसे ‘आर्य’ कहते हैं ।


बौद्धों के धम्म पद में कहा है,

अरियत्पेवेदिते धम्मे सदा रमति पण्डितो।

पण्डित जन सदा आर्यों के बतलाये धर्म में ही रमण करता है।


पाणिनि सूत्र में कहा है ,
आर्यो ब्राह्मण कुमारयोः।

ब्राह्मणों में ‘आर्य’ ही श्रेष्ठ है। इसका अर्थ है जो ब्राह्मण धर्म  मार्ग  पर नहीं चलता वह आर्य नहीं है
 
हमारा कम पढ़ा लिखा पंडित भी पूजा पाठ के समय हमसे निम्न शब्दोंके साथ संकल्प कारवाता है। 

जम्बू दीपे भरतखण्डे आर्यावर्ते अमुक देशान्तर्गते ....
 
 और अंत में पं. प्रकाशचन्द कविरत्न के शब्दों में,

आर्य बाहर से आये नहीं,
देश है इनका भारतवर्ष।
विदेशों में भी बसे सगर्व,
किया था परम प्राप्त उत्कर्ष।
आर्य और द्रविड जाति हैं,
भिन्नचलें यह विदेशियों की चाल।
खेद है कुछ भारतीय भी,
व्यर्थ बजाते विदेशियों सम गाल।

आज भी सत्ता के लिए तथाकथित मूल  निवासी राजनीति हो रही है। देश में भ्रम  फैलाया जा रहा है। हमें ऐसे लोगोंसे सावधान रहना चाहिए। देश के सभी जाती और धर्म के निवासी जो सत्य मार्ग पर चलते  हैं आर्य ही है। 

बुधवार, 3 अगस्त 2022

पुरानी दिल्ली की यादें (10): गली की धर्मशाला और भगवती जागरण


कुएंवाली गली जहां नई बस्ती की बड़ी गली से मिलती थी। उसी जगह एक  धर्मशाला थी। शायद आज भी होती ऐसी आशा है। धर्मशाला काफी बड़ी थी। धर्मशाला में सामने एक बड़ा सा वरांडा और एक बड़ा हाल  था । ऊपरी मंजिल पर भी कुछ कमरे और एक हाल था। जहां शादी ब्याह की दावतें होती थी। उस समय ज़्यादातर शादियोंमे देसी घी में बने व्यंजन ही होते थे। धर्मशाला का उपयोग इलैक्शन के समय पोलिंग बूथ के रूप में भी होता था। इसी धर्मशाला में समय-समय पर भागवत कथाएँ और भगवती जागरण होते थे। माँ अपने साथ मुझे भी अक्सर कथा सुनने ले जाया करती थी। कथाकार अक्सर सन्यासी अथवा बुजुर्ग होते थे। भजन भी वह खुद ही गाते थे। कभी-कभी साथ में भजन गायक भी साथ देने के लिए होते थे। जो लोक गीत अथवा अर्धशास्त्रीय भजन अपनी सुमधुर आवाज में गाते थे। पेटी-तबला, ढ़ोल-मंजीरा, घंटी, शंख, करताल आदि वाद्यों का उपयोग भजन के साथ होता था।  किसी तरह का शोर-शराबा नहीं होता था। भगवती जागरण पूरी रात होता था। अत: कथाकार  रामायण, महाभारत, कृष्ण-सुदामा और  कई पौराणिक कहानियाँ बहुत ही भक्ति भाव से ओतप्रोत होकर तल्लीनता से कहते थे। वातावरण भक्तिमय हो जाता था। सुबह कथा के बाद,स्वादिष्ट देसी घी में बना हलवा और काले चने प्रसाद में मिलते थे। दुपहर के भंडारे में ही देसी घी में बनी पूरियाँ और सब्जी होती थी। जिसका स्वाद आज भी भूल नहीं पाया हूँ। इन कथाओंकों प्रभाव स्वाभाविक रूपसे मुझ पर भी हुआ। जीवन भर गलत आदतों और संगतों से दूर ही रहा। 

1980 में पुरानी दिल्ली मजबूरी में छोडनी पड़ी और हमारा परिवार हरी नगर इलाके में किराए के फ्लेट में आकार रहने लगा। नून, तेल लकड़ी के चक्कर में कई साल भगवती जागरण से दूर ही रहा। जितना की मुझे याद है शायद 1986 का साल था। मेरे एक मित्र ने कहा आज भगवती जागरण है, बॉलीवूड के एक बड़े गायक आ रहे हैं। रात को खाना खाकर करीब 11 बजे मित्र के साथ भगवती जागरण के पंडाल पर पहुंचा। वहाँ डीजे लगा हुआ था। बहुत शोर शराबे वाला संगीत बज रहा था। कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था। मंच के सामने दे दे प्यार दे (अम्बे तार दे) गाने पर कुछ नौजवान अभिताभ बच्चन की तरह नाच रहे थे। जैसे वे किमी काटकर को लुभा रहे हो। रात को बारह बजे के आसपास बॉलीवूड के भजन गायक पधारे। मुझे भी हात मिलने का सौभाग्य मिला। उनके मुख से भयानक खुशबू आ रही थी। मंच पर आते ही बेसुरी आवाज में चिल्लाते हुए वह भजन गाने लगे। बीच-बीच में जनता भी ज़ोर ज़ोर से जयकारे लगा रही थी। कुछ समय बाद कुछ युवक भगवान का भेस धर मंच पर आकार ऊलजलूल हरकते करने लगे।वातावरण कहीं से भी भक्तिमय नहीं लग रहा था। सभी कुछ अटपटा लग रहा था। सोचने लगा क्या इससे माँ भगवती प्रसन्न होती या क्रोधित होकर श्राप देगी। आखिर भोर होने पर कथा शुरू हुई। तब जाकर थोड़ी शांति हुई। इसी तरह के जागरण/कथाओंसे  से ना तो भगवान खुश होने वाले है और न ही पीढ़ी पर कोई संस्कार होगा। यदि ऐसा ही  चलता रहा और जागरण और कथा के नाम पर फैल रही विकृतियोंकों दूर नहीं किया तो आनेवाली  पीढ़ियाँ अपनी परंपरा और इतिहास और धर्म से वंचित हो जाएंगी। आज जब भी  कभी जागरण का पंडाल देखता हूँ तो मुझे पुरानी दिल्ली कि धर्मशाला में होने वाली भगवती जागरण याद आ जाता है।  काश, समय फिर लौटआए फिर से भक्ति से ओतप्रोत भगवती जागरण कि कथा सुनने को मिले  बस यही भगवान से प्रार्थना करता हूँ। 

 

मंगलवार, 2 अगस्त 2022

परमात्मा को कैसे जाने

 

अन्ति सन्तं न जहात्यन्ति सन्तं न पश्यति ।
देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति ॥अथर्ववेदः १०।८।३२॥
(ऋषि कुत्स: देवता: आत्मा)

सरल अर्थ: अत्यंत समीप होने के कारण हम (जीवात्मा) परमात्मा (आत्मा) को छोड़ नहीं सकते। अत्यंत निकट होते हुए भी, हम (जीवात्मा)  परमात्मा(आत्मा)  को देख नहीं पाते हैं।  ऋषि कहता है, हे जीव ! तू आत्मा के  काव्य देख,  जो न कभी मृत्यू को प्राप्त होती है, न जीर्ण होती है। 

वेद कहते हैं "अहम ब्रह्मास्मि"। मैं ही ब्रह्म हूँ। इस नश्वर देह में  ही परमात्मा का  निवास है। परमात्मा हमारे भीतर ही स्थित है फिर भी हम इसे न आँख से देख सकते हैं, न कान से सुन सकते हैं। क्योंकि आत्मा  शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध से परे है। हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों से आत्मा को अनुभव नहीं कर सकते। इसलिए कुछ लोग भगवान पर विश्वास ही नहीं करते हैं। उनका विश्वास है, देह के साथ सब कुछ नष्ट  हो जाता है। इसलिए ऋषि कहते हैं, अपने हृदय में स्थित आत्मा को जानना है तो उसका काव्य देखो। हम सभी जानते है, कवि सृजन करता है। परमात्मा तो सबसे बड़ा कवि है। उसने ब्रह्मांड का सृजन  किया है जिसमें अब्जावधि आकाशगंगाएँ समाहित है। हर आकाशगंगा में अब्जावधि तारें होंगे। ब्रह्मांड में हमारी  पृथ्वी की तरह  अनगिनत पृथ्वीयाँ होंगी, जिनपर जीवन फलफूल रहा होगा। लाखों हर रोज सृजित होती होगी और नष्ट भी होती होगी। यह सब कल्पना से परे है।  हमारी पृथ्वी को ही लें बर्फ से ढके पर्वत, कल कल बहती नदियां, जंगल, रेगिस्तान, महासागर, फल-फूल पेड़-पौधे, नानाविध जीव जन्तु सभी उस परमात्मा की रचनाएँ है। सभी जड़ और चेतन जीव पाँच ही तत्व मिट्टी, पानी, वायु, अग्नि और आकाश से बने है। जिन तत्वों से हमारा शरीर बना है, उन्ही तत्वों से सारा ब्रह्मांड बना है। परमात्मा की इसी लीला को जब  हम जान लेते हैं की जड़ और चेतन में कोई अंतर नहीं है। सृष्टि के  निरंतर चलने वाले चक्र का हम बस एक अंश भर है तब हमारे मन से राग द्वेष घृणा की सभी भावनाएं नष्ट हो जाती है। भगवान कृष्ण ने अर्जुन को अपना यही विराट स्वरूप दिखाया था। अर्जुन का मोह नष्ट हो गया, सभी शंकाएँ मिट गयी। उसे अपने कर्तव्यपथ का ज्ञान हो गया। जब हम जान जाते हैं, सभी कुछ परमेश्वर की इच्छा से होता है तब हम उसकी शरण में चले जाते है और अपने कर्तव्यपथ से किसी भी परिस्थिति में विमुख नहीं होते। क्योंकि हम अपने हृदय में स्थित परमेश्वर को जान चुके होते हैं।