महानगर का एक मोहल्ला. सीमेंट के पक्के घर, सीमेंट की गलियाँ, न कोई पेड़ न कोई पौधा. कल शाम हुई सावन की पहली बरसात. छाई रही बदरी रात भर, टपकती रही बूँद बूँद. भर गई नालियाँ और गलियाँ, फ़ैल गयी गंदगी चहुँ ओर. गली में बिजली के खम्बे के ऊपर लगी लेड लाईट की रोशनी करती रही रात भर इन्तजार. कोई तो पतंगा आये, रोशनी में नहाकर शहीद होने के लिए. पर हाय री किस्मत, बीत गई सगरी रैना, पतंगा न आया. बुझ गई सुबह सवेरे, बिन ब्याही विधवा होकर. पतंगोंकी लाशे खाने वाली वाली मुर्दाखोर चींटियाँ भी भूखी रह गई. रात को सुनाई नहीं दिया झिंगुरों के संगीत की ताल पर चिर परिचित मेंढकों का प्रेम गीत. शायद बेदखल हो गये शहर से, या गुम हो गए, काल की अंधियारी कोठडी में.
मच्छरों की सेना विजय घोष करती हुई घर चढ आई. रोक न सकी उसको जालीदार खिड़की-दरवाजों की दीवारें. काम नहीं आये मनुष्योंके रासायनिक आल आउट हथियार. नहीं मिली छिपने की जगह मछरदानी में भी. पीकर मनुष्य का खून, डंके की चोट पर तब विजय गीत गया मच्छरों ने.
डॉक्टर ने आज सुबह-सुबह जल्दी दवाखाना खोला. लगी हुई थी लम्बी लाइन डेंगू और मलेरिया ग्रस्त पराजित इन्सानोंकी. आखिर अच्छे दिन आ ही गए. ऐसे ही सावन बरसता रहा तो एक मर्सडीज पक्की.