सोमवार, 12 सितंबर 2022

पुरानी दिल्ली की यादें (12): खोये बाग बगीचोंकी यादें -गांधी मैदान

कुछ दिन पहले मन में ख़्याल आया जाकर देखते हैं, पुरानी दिल्ली में इतना सार्वजनिक निर्माण हो रहा है, क्या कुछ बाग बगीचे मैदान बचे हैं की नहीं। मेट्रो का तिकीट लेकर चाँदनी चौक स्टेशन उतर गया। स्टेशन से बाहर निकाला तो देखा एक ऊंची इमारत का निर्माण चल रहा था। शायद इसी जगह गांधी मैदान था। गांधी मैदान की पुरानी तस्वीर आंखोंके सामने आ गई। गांधी मैदान फव्वारे से हरदयाल लाइब्रेरी तक फैला हुआ था। रामलीला मैदान की तरह ही एक स्टेज यहाँ बना हुआ था। उस समय जनता राजनेताओं के भाषण बड़े चाव से सुनती थी। आंखोंके सामने वही पुराना नजारा छा गया। मुझे पुरानी दिल्ली के शहर के ही उपनाम वाले एक छुटभैये राजनेता की याद आ गई। भाषण चाहे वह गांधी मैदान में दे रहे हो, या खारी बाउली के चौक पर। उनका भाषण हमेशा एक सा ही होता था। उनके कुछ जुमले तो मुझे याद हो गए थे "हिन्दू का खून और मुसलमान का खून लाल ही होता है। हमें इस चुनाव में फ़ूट डालने वाली ताकतों को सबक सीखना है।" वैसे उन्होने जनसंघ, जनता पार्टी से कॉंग्रेस पार्टी तक सभी का चुनाव प्रचार किया था। मुझे याद एक दिन इलाके के कुछ बच्चोने उन्हे चिढ़ाते हुए पूछा, चचाजान, हिन्दू और मुसलमान का खून लाल होता है, यह बात तो हमारे समझ में आ गई, लेकिन आपके खून का रंग कौनसा है। वे उन्हे डंडा  लेकर मारने को दौड़े। मेरे हिसाब से शायद वह देश के पहले प्रोफेशनल चुनाव प्रचारक थे। गांधी मैदान की रामलीला भी बड़ी प्रसिध्द थी। मैदान के बीच में बना घूमता हुआ स्टेज इस रामलीला की खासियत थी। दूर-दूर से लोग गांधी मैदान की रामलीला देखने आते थे। रामलीला के बाद इस मैदान पर अक्सर दिवाली मेला या नए साल पर मेला लगता था। उन दिनों मेलोमें झूले, मौत का कुआं इत्यादि के अलावा सरकारी जादूगर खेल दिखते हुए तांत्रिकोंकी पोल खोलते थे। समाज प्रबोधन के कार्यक्रम भी होते थे। उन दिनों लोग पुस्तके खरीदकर पढ़ते थे। हिन्द पॉकेट बुक्स, देहाती पुस्तक भंडार की अँग्रेजी सिखानेकी पुस्तकें और गीता प्रेस के स्टॉल हर मेले में दिखाई देते थे। मेलों मे बच्चों की किताबोंके स्टॉल भी होते थे, जहां चन्दामामा, अमर चित्रकथा, भूतनाथ, चाचा चौधरी इत्यादि कॉमिक लोग अपने बच्चों के लिए बड़े चाव से खरीदते थे। आज के मेलों में पुस्तकें दिखाई नहीं देती। शायद आज के बच्चोंपर स्कूली किताबों का इतना बोछ है की वह चाह कर भी दूसरी पुस्तकें पढ़ नहीं सकते। हर साल  एक या दो महीने सर्कस भी इसी मैदान में आती थी। बाकी समय भी मैदान में रौनक लगी ही रहती थी। बंदर का खेल, साँप नेवले की लड़ाई और भालू का नाच दिखाकर लोगोंसे पैसा मांगने वाले मदारी भी दिनभर नजर आते थे। अब मैदान की जगह इमारत ने लेली है। गांधी मैदान अब इतिहास की गर्त में खो गया है। 

क्रमश: 

सोमवार, 5 सितंबर 2022

पुरानी दिल्ली की यादें (11): मराठी लोगोंके के बसने उजड़ने की यादें

वैसे तो दिल्ली का मराठी लोगों से पेशवा के जमाने से है। परंतु वे दिल्ली में बसने के लिए नहीं आए थे। आज से सौ साल से कुछ पहले पहले रेलवे का एक दफ्तर मुंबई से दिल्ली स्थानांतरित हुआ और उसके साथ ही कई मराठी परिवार भी दिल्ली आ गए। उनमें से पच्चीस तीस परिवार पुरानी दिल्ली के नया बाजार, नई बस्ती इलाके में किराए के मकानों में आकर रहने लगे। इसके अलावा फिल्म उद्योग से जुड़े कुछ परिवार भी दिल्ली आकार रहने लगे थे। शुरू के कुछ सिनेमा हाल जैसे नोवेल्टी, न्यू अमर, एक्ससेलसियर, वेस्टेंड इत्यादि (बाकी नाम में भूल चुका हूँ)  मराठी लोगों के थे।  हमारे दादाजी भी  जर्मन कंपनी में नौकरी के सिलसिले में दिल्ली आए और नया बाजार में किराए के मकान में रहने लगे। वे स्वतन्त्रता आंदोलन के दिन थे। इस सिलसिले में मराठी लोगोंका दिल्ली आना होता था। जाहीर है उन्हे ठहरने के लिए स्थान की जरूरत थी जहां अपनापन मिल सके। नया बाजार में एक इमारत के प्रथम और द्वितीय तल किराए पर लेकर सन 1919 में महाराष्ट्र स्नेह संवर्धक समाज की स्थापना हुई। जहां नाममात्र किराया देकर महाराष्ट्र से आने वाले लोग ठहर सकते थे। इसी के अलावा परिवारों में बच्चे बड़े होने लगे थे। तब हमारे दादाजी ने समाज के लोगों के साथ  मिलकर इसी जगह नूतन मराठी विद्यालय की स्थापना की जहां मराठी भाषा के साथ पाँचवी कक्षा तक की पढ़ाई की व्यवस्था की गई। हमारे पिताजी, चाचा, बुआएँ सभी पाँचवी तक समाज में स्थित स्कूल में पढ़ी थी। स्वतन्त्रता मिलने के बाद काका साहब गाड़गिल के प्रयास से स्कूल पहाडगंज शिफ्ट हो गया तथा बृहन महाराष्ट्र भवन का निर्माण भी पहाडगंज में हुआ जहां 50 से ज्यादा लोगों के ठहरने की व्यवस्था की गई थी। आज भी महाराष्ट्र से आकर लोग यहाँ ठहरते  हैं। यह तो हुई इतिहास की बात। 

अब हमारे परिवार की बात। विश्व युद्ध शुरू हुआ और जर्मन कंपनियों को देश निकाला दे दिया। हमारे दादाजी ने तब केमिकल मार्केट में हाथ आजमाया। सब कुछ अच्छा चलता रहा। दादाजी का अधिकांश काम पंजाब में था। 1947 के  विभाजन और दंगों की वजह से उनको भारी नुकसान हुआ।  उनका दिल्ली से मोह भंग हो गया और वह परिवार के साथ नागपुर वापस चले गए। परंतु विधाता को कुछ और ही मंजूर था। हमारे पिताजी नौकरी के सिलसिले में वापस दिल्ली आ गए और नई बस्ती में काबुली गेट स्कूल के पीछे स्वर्गीय स्वतन्त्रता सेनानी सुशीला मोहन के मकान में उन्होने दो कमरे  किराए पर लिए। पुरानी दिल्ली में मराठी परिवार कम थे,परंतु उस जमाने में सभी की चार-पाँच बच्चे तो होते ही थे। हम सभी मराठी बच्चे पहाडगंज स्थित नूतन मराठी स्कूल में ही पढ़ते थे। साथ-साथ पैदल चलते हुए पहाडगंज तक जाते थे और साथ-साथ ही पैदल वापस घर आते थे। इसी वजह से सभी में अच्छी दोस्ती थी। महाराष्ट्र समाज के प्रथम तल तो हमेशा आने वाले मेहमानो से भरा रहता था। पर ऊपर का हाल अक्सर खाली ही रहता था। इसी हाल में एक मराठी पुस्तकालय, एक टेबल टेनिस का टेबल और कैरम बोर्ड  भी। उस जमाने में होमवर्क इत्यादि का ज्यादा बोझ नहीं होता था। जाहीर था, हम सभी  बच्चोंका  रविवार का दिन समाज में ही खेलते हुए गुजरता था।  समाज  दोनों खेलों की प्रतियोगिताएं भी करता था, जिसमें  सभी भाग ले सकते थे। इन्ही प्रतियोगिताओंकी वजह से दोनों ही खेलोंमे कई राज्य स्तरीय खिलाड़ी निकले। उस जमाने में सभी त्योहार समाज में ही मनाए जाते थे। विशेषकर श्रीगणेश उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जाता था। गणपती विसर्जन का जलूस  शाम को चार  बजे नया बाजार से  शुरू होकर  चाँदनी चौक, कौड़ियापुल, जमुना बाज़ार होते हुए जमुना घाट रात आठ बजे पहुंचता था। मराठी भजन, लेझिम के साथ परेड, ढ़ोल-ताशे के साथ बढ्ने वाली गणेशजी की सवारी का दर्शन हजारो लोग करते थे। लोग जगह जगह गणेशजी को माला पहनकर उनका स्वागत भी करते थे। 

परंतु समय कभी एकसा नहीं रहता। किराए पर रहने वाले मराठी लोग अब दिल्ली में एक तरह से स्थायी हो गए थे। उनके बच्चों को भी दिल्ली में नौकरियाँ मिलने लगी थी। अपने मकान का सपना भी उनके मन में पलने लगा था। दिल्ली में डीडीए की घरोंकी योजनाएं निकली, हाउसिंग सोसाइटियाँ बनने लगी। 1977 के बाद परिवार पुरानी दिल्ली के बाहर अपने खुद के डीडीए फ़्लेटों में शिफ्ट होने लगे। लगभग दस साल में सभी पुरानी दिल्ली छोड़ कर चले गए। दिल्ली के बढ़ते ट्रेफिक की वजह से महाराष्ट्र से आने वाले मेहमान भी अब समाज में रुकने से कतराने लगे थे। शायद इसी मजबूरी से किराए की जगह चलने वाला महाराष्ट्र समाज भी पहाड़गंज के बृहन महाराष्ट्र समाज की इमारत में शिफ्ट हो गया। जहां समाज की सौंवी जयंती 2019 में मनाई गयी। 

अब बात हमारे परिवार की। मुंबई में होने वाली हड्तालों का प्रभाव हमारे पिताजी की नौकरी पर भी पड़ा। पगार अनियमित और कम मिलने लगा। किराया देना भी मुश्किल हुआ। मकान मालिक ने मौके का फायदा उठाया। शायद पाँच या छह हजार रुपए देकर 1980 में मकान खाली करा लिया। यह रकम हरीनगर में लिए छोटेसे के फ्लेट के एक साल के किराए के लिए काफी थी।  शायद पिताजी ने उस समय सोचा हो, बच्चे बड़े हो गए है। दो- चार साल में पैरों पर खड़े हो जाएंगे। हरी नगर आते ही हमारा भाग्योदय  हुआ। यहाँ डीडीए के फ्लेटों में ज़्यादातर सरकारी बाबू रहते थे। उनके बच्चे भी सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहे थे और हम भी इसी भेड़चाल में शामिल होकर सरकारी बाबू बन गए। 

केवल सत्तर साल के भीतर पुरानी दिल्ली से मराठी समाज उजड़ गया। नौकरीपेशा वाला समाज अपनी जड़ों से अलग हो चुका होता है। नौकरी के लिए इधर उधर भटकना ही उसकी नियति होती है। वह कहीं स्थायी टिक नहीं सकता।