प्राचीनकाल में इंद्रप्रस्थ शहर में एक न्यायप्रिय राजा राज्य करता था। एक दिन दरबार में सेनापति ने राजा से निवेदन किया महाराज, जिस जहरीले साँप ने शहर के नागरिकों की जान ली थी, उसे सैनिकों ने उसे पकड़ लिया है। महाराज, यदि आज्ञा हो, तो इस साँप को मार देते हैं।
राजा ने निर्णय लेने से पहले मंत्रियों से सलाह मांगी।
पहला मंत्री: महाराज, बिना ज्यादा सोचे समझे, इस जहरीले साँप को तत्काल मार दिया जाना चाहिए। यदि इसे जिंदा छोड़ दिया जाता है तो यह लोगोंकों डँसेगा, उनकी जान लेगा।
दूसरा मंत्री: महाराज, हम सभ्य इंसान हैं। 'खून का बदला खून' हमारी नीति नहीं है। अपने लोग हों या सांप, दोनों को समान न्याय मिलना चाहिए। बिना सोचे समझे उसकी जान लेना ठीक नहीं है। साँप को दंड देने से पहले, हमें सांप के पक्ष को भी जानना चाहिए। राजा दूसरे मंत्री के विचारों से सहमत हो गया। साँप का पक्ष जानने के लिए राजा ने राज्य के प्रमुख नागरिकों की एक समिति, जिसमे बुद्धिमान, प्रतिभाशाली, प्रगतिशील विचारक और बुद्धिजीवी शामिल थे, से परामर्श लेने का फैसला किया।
समिति ने राजा को सलाह दी। राजा, सांप जहरीला होता है, यह लोगों को डँसता है। डँसना साँप का स्वभाव है। उसने अपने स्वभाव के अनुसार लोगों को डँसा है। लोग साँप के डँसने से नहीं बल्कि साँप का जहर शरीर में जाने की वजह से मारे जाते हैं। साँप का इसमे कोई दोष नहीं है। इसे छोड़ देना चाहिए। जंगल से नगर में आने वाले साँपो को यदि हम दूध पिलाते रहेंगे तो शायद वह हमे काटेंगे नहीं।
राजा ने साँप को छोड़ दिया और आदेश दिया नगर में जगह-जगह साँपों के लिए दूध का इंतजाम किया जाए। नतीजा यह हुआ जंगल से निकल सैंकड़ों साँप शहर में आ गए। अब वे बेकौफ़ हो कर लोगोंकों डँसने लगे। लोग जान बचाने के लिए शहर छोड़ भागने लगे। एक दिन राजा महल में घुसे एक साँप को दूध पिला रहा था की साँप ने मौका देख राजा को डंस लिया। साँप के डँसने से राजा की मौत हो गयी। बिना राजा के शहर में अराजकता फ़ैल गयी। आखिरकार शहर वीरान हो गया। अब वहाँ सांपोंका राज है।