गुरुवार, 5 मई 2022

पुरानी दिल्ली के यादें (2): सुशीला मोहन, स्वतन्त्रता सेनानी और वकील साहब


मकान मालिक वकील साहब थे फिर भी पुरानी दिल्ली में मकान को सुशीला मोहन का मकान  के नाम से जाना जाता था। सुशीला मोहन एक क्रांतिकारी थी। भगत सिंह, दुर्गा भाभी इत्यादि के साथ उन्होने कार्य किया था।काकोरी षड्यंत्र में जब राम प्रसाद बिस्मिल और उनके साथियोंकों बचाने के लिए सुशीला दीदी ने दस तोला सोना दिया। भगत सिंह को बचाने के लिए भी उन्होने 12000 रुपया एकत्रित किया था।  उनकी ब्रिटिश विरोधी गतिविधियोंकि वजह से 1932 में उन्हे छह महीने की सजा भी हुई थी। जेल से छूटने के बाद सुशीला दीदी ने सन 1933 में अपने ही एक सहयोगी वकील श्याम मोहन से विवाह किया। पुरानी दिल्ली के लोग उन्हे वकील साहब और मोहल्ले के चाचाजी के नाम से पुकारते थे।1942 के आंदोलन में भी उन्होने भाग लिया था। पति-पत्नी दोनों को सजा भी हुई थी। 


सुशीला दीदी ने विवाह से पूर्व एक बालक को गोद लिया था। जिसका नाम उन्होने प्यार से सतीश रखा था। हम मोहल्ले के बच्चे उन्हे सतीश काका के नाम से पुकारते थे। (मराठी मे काका चाचा को कहते  है)। शायद  सबसे पहले मेरे बड़े भाई ने उन्हे काका करके बुलाया होगा। सुशीला दीदी को कोई संतान नहीं हुई। परंतु यह सुशीला दीदी का दुर्भाग्य था की निसन्तान होते हुए भी चाचाजीने सतीश काका को कभी अपना नहीं माना। मैं जब दो साल का था अर्थात 1963 में सुशीला दीदी का स्वर्गवास हो गया था। मेरी माँ ने दीदी बारे में जो कुछ बताया उसके अनुसार वह सभी किराएदारोंकों अपने परिवार का ही मानती थी। जरूरत पड़ने पर उनकी धन और तन से सहायता भी करती थी। उन्होने मरने से पहले चाचाजी से वचन लिया था की वे किसी किराएदार को निकलेंगे नहीं। चाचाजी ने मरते दम तक अपनी पत्नी को दिए वचन का पालन किया।  

चाचाजी बहुत ही कठोर स्वभाव के थे। वकीली चोगे, सर पर ब्रिटिश हैट और हाथ मे छड़ी लेकर जब वह निकलते थे, तब उनका रौब देखते ही बनता था। गली- मोहल्ले के किसी बालक को गाली देते देखते ही उनका पारा चढ़ जाता था। जब तक छड़ी से उस बालक की अच्छी तरह  धुलाई नहीं कर लेते, उन्हे चैन नहीं मिलता था। उनके सामने किसी की भी बोलने की हिम्मत नहीं होती थी। यही कारण था पुरानी दिल्ली में रहते हुए भी हमारे  मुख से कभी 'साला' शब्द भी नहीं निकला। एक बार मोहल्ले के किसी बच्चे ने जमीन पर पड़ा तीन पैसे का सिक्का उठा लिया था। उसकी चाकलेट खरीद कर वह घर आया। दुर्भाग्य से चाचाजी की नजर उस पर पड गयी। मैं उस समय पाँच साल का हूंगा। पर अभी भी उस बच्चे की धुलाई याद है।  जिंदगी में कभी भी जमीन पर गिरा पैसा उठाने की हिम्मत नहीं हुई। शायद यही कारण था किरायेदारोंका कोई भी बालक निकम्मा नहीं निकला। एक डॉक्टर, एक इंजीनियर बाकी सरकारी नौकरी में या खुद के काम- धंधे में सफल हुए। 

सुशीला दीदी के गोद लिए बालक सतीश काका का विवाह पंजाब से निर्वासित परिवार की सुमन नाम की स्त्री से हुआ था। हम बच्चे उन्हे सुमन आंटी नाम से बुलाते थे। एक कमरे मे वे रहते थे। सतीश काका चाय बेचकर अपना गुजारा करते थे। चाचाजी ने शायद ही कभी उनकी आर्थिक मदत की हो। इसपर भी सुमन आंटी ने चाचाजी की तन-मन से सेवा की। उनके नाश्ते, भोजन इत्यादि का वह खास खयाल रखती थी। उन्हे भी कोई संतान नहीं हुई। सतीश काका मिलनसार और मृदभाषी थे। बच्चों में खासे लोकप्रिय थे। सदा हंसी मज़ाक करते रहते थे। मैंने कभी उन्हे नाराज होते नहीं देखा। 

सुशीला दीदी के मरने के बाद वकील साहब अपनी वसीयत और मकान अपने भतीजे के नाम कर दिया। जो कभी कभार ही उनसे मिलने आता था। वैसे तो चाचाजी  पक्के कोंग्रेसी थे। कांग्रेस के स्थानीय नेता सदा उनका आशीर्वाद लेने आते थे। उन्हे स्वतन्त्रता सेनानी का खिताब भी मिला। सिद्धांतवादी चाचाजीने पेंशन लेने से इंकार कर दिया था। जीवन के आखिरी पड़ाव पर उनके विचारधारा में परिवर्तन दिखाई दिया। 1978 में जमुना में बाढ़ आयी थी, उन्होने और मोहल्ले की महिलाओं सुमन आंटी, मेरी माँ इत्यादि ने गली और मोहल्ले में घर-घर जाकर पैसा आटा-चावल इत्यादि इकठ्ठा किया था। बेड़े में हलवाई के साथ मोहल्ले की महिलाओंने पूरिया तली, आलू की सब्जी बनी। पूरी-सब्जी, कपड़े, आटा-चावल, दाल बाढ़ पीड़ितों तक पहुँचाने की ज़िम्मेदारी उन्होने आरएसएस के कार्यकर्ताओं को सौंपी। शायद आपातकाल इसका कारण रहा हो। 

1979 में उनकी तबीयत खराब हो गयी और उनका स्वर्गवास हो गया। उनके भतीजे ने तत्काल ही मकान बेचने की प्रक्रिया शुरू कर दी। 'गाजर, डंडा और कानून' के प्रयोग से सभी किराएदारों से मकान खाली करा लिए। उस समय हमारे घर की हालत भी खस्ता थी। मुंबई के दलाल मजदूर नेताओंकी वजह से वहाँ  हड़तालें चल रही थी। जिसकी लपेट मे हमारे पिताजी की भी कंपनी थी। तनखा आधी-अधूरी मिल रही थी। केवल पाँच हजार रुपए लेकर हमारे पिताजी ने वह मकान छोड़ दिया। हमारा परिवार पश्चिमी दिल्ली अर्थात हरी नगर आ गया। इसके साथी ही हमारा भाग्योदय भी हुआ। जिसकी चर्चा फिर कभी। 

आपके मन में भी खयाल आया होगा मकान बेचने के बाद सतीश काका का क्या हुआ। सुमन आंटी के एक भाई सरकारी नौकरी में थे। उन्होने अपना एक फ्लॅट सतीश काका को रहने के लिए दे दिया। जहां वे अंत समय तक रहे। अपनी बहन के लिए एक भाई ने किराए की आमदानी पर पानी छोड़ दिया। 

क्रमश: अब एक किस्सा: चुन्नी मियां और बकरा (एक गरीब दर्जी और एक दबंग कसाई और बेचारा बकरा)



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