शर्माजी पिछले बीस वर्षों से एक औद्योगिक नगरी की एक फैक्टरी में सुपरवाइज़र के रूप में काम कर रहे थे। वे सीधे-सादे, ईमानदारी से काम करने वाले व्यक्ति थे। उनके बेटे ने हाल ही में इंजीनियरिंग की परीक्षा पास की थी और नौकरी की तलाश में था।
एक दिन स्थानीय श्रमिक संघ के प्रभावशाली नेताजी फैक्टरी में आए। उन्होंने शर्माजी से कहा, “शर्माजी, कल हड़ताल है। आप हमारे साथ खड़े रहिए। मैं आपके बेटे को इसी फैक्टरी में नौकरी दिलवा दूंगा।” शर्माजी को मन में संदेह था, लेकिन बेटे के भविष्य के लिए उन्होंने साथ दे दिया।
अगले दिन फैक्टरी के गेट पर नारेबाज़ी शुरू हुई- “नेताजी ज़िंदाबाद! मालिक मुर्दाबाद!” पुलिस ने भीड़ पर धावा बोला। शर्माजी समेत कई मजदूरों को बस में भरकर दूर ले जाया गया। कुछ घंटों बाद सभी को छोड़ दिया गया।
शर्माजी स्तब्ध रह गए। वे नेताजी से मिलने गए, लेकिन नेताजी मिले नहीं। उल्टा नेताजी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि तोड़फोड़ करने वाले उनकी यूनियन के लोग नहीं थे। शर्माजी की आँखों के सामने अंधेरा छा गया। अब न वेतन था, न पेंशन। कोर्ट-कचहरी, पुलिस स्टेशन, वकीलों के खर्च। बेटे की नौकरी तो दूर, अब घर चलाना भी मुश्किल हो गया। दूसरी ओर, कहीं और नौकरी मिलना भी कठिन हो गया था।
कुछ ही हफ्तों में फैक्टरी में ४० नए ठेकेदार मजदूर कम वेतन पर नियुक्त हो गए। नेताजी ने नई मर्सिडीज खरीद ली। लेकिन शर्माजी का जीवन बर्बाद हो गया।
यह कहानी सिर्फ एक व्यक्ति की नहीं है। अकेले मुंबई में ही श्रमिक नेताओं की चालों में फँसकर हजारों शर्माजी बेरोजगार हो गए।


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