सोमवार, 8 दिसंबर 2025

मंदिर के मौन साक्षी

 

एक निर्जन जंगल में एक मंदिर था। वहाँ पूजा चल रही थी। मंदिर के गर्भगृह में एक पुजारी और दो व्यक्ति उपस्थित थे। पूजा के बाद पुजारी ने कहा, “यह जागृत देवता है। जो भी सच्चे मन से अपने अपराधों की क्षमा माँगता है, उसे देवता क्षमा करते हैं।”

पहले व्यक्ति ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की, “भगवान, आप जानते हैं कि मैं अपना काम पूरी निष्ठा से करता हूँ। लेकिन जिस अस्पताल में मैं काम करता हूँ, वहाँ इस साल महामारी के दौरान मृत लोगों को कुछ दिन जीवनरक्षक प्रणाली पर रखकर पैसे कमाए गए। मैं इसका गवाह हूँ। सब कुछ अपनी आँखों से देखा, फिर भी चुप रहा। पेट पालना कठिन होता है। मैं मजबूर था। कृपया मुझे क्षमा करें।”

दूसरे व्यक्ति ने प्रार्थना की, “मेरे पिता महामारी से लड़ते हुए अस्पताल में मरे। वे सज्जन व्यक्ति थे। अगर उनसे अनजाने में कोई अपराध हुआ हो, तो उन्हें क्षमा करें। उन्हें अपने चरणों में स्थान दें।”

पुजारी ने कहा, “तथास्तु।” दोनों मंदिर से बाहर निकले।

पहला व्यक्ति दूसरे से पूछता है, “साहब, आपके पिता किस अस्पताल में स्वर्गवासी हुए?”

दूसरे ने अस्पताल का नाम बताया।

पहला व्यक्ति उसके चरणों में गिरकर बोला, “साहब, मैं उसी अस्पताल में नौकरी करता हूँ। आपसे क्षमा माँगता हूँ।”

दूसरे व्यक्ति के मन में क्रोध, द्वेष, घृणा—सब भावनाएँ उमड़ पड़ीं। उसने आँखें बंद कीं और खुद को सँभालने की कोशिश की। कुछ ही क्षणों में उसकी आँखों से आँसू बहने लगे।

पहले व्यक्ति ने पूछा, “साहब, आपकी आँखों में आँसू क्यों हैं?”

दूसरे व्यक्ति ने कहा, “मैं भी तुम्हारी तरह एक मौन साक्षी हूँ। मुझे भी सब पता था। मेरे पिता अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनके प्रति प्रेम के कारण मैं भी मजबूर था।”

 

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